Saturday, October 16, 2010

जर्द पत्तों का वन

पिछले साल इन्हीं दिनों हम श्रीनगर में थे. शरद ने शहर में दस्तक दे दी थी. चिनार के पत्ते सुर्ख होने लगे थे. कश्मीर की हमारी यह पहली यात्रा थी. मकसद कश्मीर विश्वविद्यालय में होने वाले एक सम्मेलन में भाग लेना था, लेकिन उससे कहीं ज्यादा हमारे मन में वर्षो से कश्मीर देखने की चाह थी. एक तरफ बचपन से एक कहावत की तरह हम सुनते आ रहे थे कि, 'धरती पर अगर स्वर्ग कहीं है तो यहीं है', दूसरी तरफ नब्बे के दशक में जवान हो रही हमारी पीढ़ी के लिए कश्मीर हिंसा और संघर्ष का पर्याय रहा है. इस द्वैत के बीच कश्मीर हमारी जेहन में आकार लेता रहा.

जम्मू-कश्मीर की कमान युवा मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने हाथों में पिछले साल ही ली थी. फिज़ां में बदलाव की एक उम्मीद थी और इस उम्मीद को सम्मेलन का उद्धाटन करते हुए उन्होंने दुहराया भी था. लेकिन पिछले तीन महीनों से कश्मीर घाटी में हो रहे 'इंतिफादा' और पुलिस बलों की कार्रवाई लोगों की उम्मीद के लिए जैसे एक बार फिर छलावा साबित हुई है.

इन दिनों मन में बार-बार यह सवाल उठता रहा है कि दिल्ली में और देश के अन्य भागों में अपनी-अपनी दुनिया में मस्त, सपनों और अरमानों के पीछे भागते हमारी पीढ़ी के लिए कश्मीर के नौजवानों की मौत के क्या मायने हैं? इन सपनों के मारे जाने से क्या कहीं हमारे सपने भी टूटते है या हमारे लिए यह महज एक ख़बर है, एक दुर्घटना. जैसा कि सुदूर किसी अन्य देश में हो रही दुर्घटना या हिंसा की कोई ख़बर आने पर हमारी प्रतिक्रया होती है. हम दुखी होते हैं, पर वह हमारे भावबोध का हिस्सा नहीं बन पाती.

बेंडिक्ट एंडरसन ने लिखा है कि 'राष्ट्र कि परिकल्पना हमारी कल्पना में ही साकार होती है'. यात्रा के दौरान मिले पत्रकार प्रेम शंकर झा ने कहा था कि 'कश्मीर से बाहर रहने वाले आपकी पीढ़ी के लिए कश्मीर की यात्रा अमूमन पहली ही होती है'. एक-दो अपवाद को छोड़ कर मुझे याद नहीं है कि कश्मीर में हुई हिंसा के विरोध का स्वर हमने किसी अन्य विश्वविद्यालय में सुना हो या उनकी चिंताओं को लेकर हमने कभी कोई सार्थक पहल की हो.

सच तो यह है कि दिल्ली जैसे महानगरों में कश्मीर के लोगों से हमारी पहचान नहीं के बराबर होती है और हम इसे टटोलने की कोशिश भी कभी नहीं करते कि ऐसा क्यों है. इस बार देश की प्रतिष्ठित आईएएस परीक्षा में कश्मीर के एक प्रतियोगी शाह फैसल ने जब पहला स्थान पाया तो सबकी नज़र एकाएक कश्मीरी युवाओं की प्रतिभा की ओर गई. ऐसा ही भाव युवा पत्रकार बशारत पीर की अंग्रेजी में प्रकाशित किताब कर्फ्यूड नाइटकी चर्चा होने पर हमारे मन में हुआ.

कश्मीर विश्वविद्यालय में जब मैं कुछ छात्रों से मिला तो मुझे एक अजीब- सी उलझन होने लगी. मेरे अंदर एक अपराध बोध हुआ कि कहीं ना कहीं इनके दुख और वेदना के लिए हम जिम्मेदार हैं. कश्मीर विश्वविद्यालय के छात्रों के चेहरे पर आक्रोश, वेदना और हताशा एक साथ दिखी. कोई भी छात्र मुझे ऐसा नहीं मिला जिसके पास दुख और दर्द के किस्से ना हो. किसी के भाई, किसी के पिता-चाचा, तो किसी की बहन के साथ ऐसी अनहोनी घटी थी जिसके बारे में बात करते-करते उनकी आवाज भारतीय राज्य और सत्ता के प्रति तल्ख हो उठती थी.

दिल्ली से गए कुछ दोस्तों के साथ छावनी में तब्दील श्रीनगर में घूमते हुए एक अजीब सी दहशत हमारे मन में थी. गोकि पिछले साल कश्मीर में हिंसा नहीं के बराबर हुई थी और माहौल शांत था लेकिन शांति की इस चादर के नीचे छिपी बेचैनी और गुस्से की झलक हर किसी से बात करने पर मिलती थी. कर्फ़्यू के बिना भी एक अलिखित कर्फ़्यू का माहौल हर जगह था चाहे वह डल झील हो या हजरत बल. हर तरफ लोहे की कंटीली बाड़ और सरकारी बंदूकें सिर उठाए हमारा स्वागत कर रही थी. मैंने अपने जीवन में बस एक बार 1992 के दिसंबर में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद कर्फ़्यू झेला था. किशोर उम्र की वह दहशत आज भी मेरे मानस पटल पर अंकित है.

एक ऑटोवाले से बात करते हुए जब मैंने कश्मीर के हालात के बारे में पूछा तो साफ कश्मीरी जबान में जो कुछ भी उन्होंने कहा उसका तर्जुमा मैंने अपने तई कुछ यों किया- साहब, ये चिनार का पेड़ आप देख रहे हैं... जितने पत्ते इस पेड़ में लगे हैं और जितने नीचे बिखरें हैं उतनी ही दर्द की दास्तान आपको यहाँ मिलेंगी.

पिछले तीन महीनों में पुलिस बलों की गोलीबारी से सौ से ज्यादा मारे गए युवाओं की दास्तान फिर से अलिखित रह गई. हम शायद ही जान पाएँ कभी कि इन युवाओं के सपने क्या थे, प्रेम और कविता को लेकर उनके क्या विचार थे, उनके लिए आजादी का क्या मतलब था. एक बार फिर शरद के आते ही जर्द पत्तों के वन में उनके सपने दफन कर दिए जाएँगे. हमारी दुनिया में, हमारे सपनों में भी क्या किसी टूटे हुए पत्ते की सरसराहट सुनाई देगी?

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 7 अक्टूबर 2010 को प्रकाशित)