Friday, November 05, 2010

मगध की शांति

सन् 1991 की मई की गर्मियों में लोकसभा चुनाव की लहर थी. हज़ारों लोगों की हुजूम के साथ मैं भी राजीव गाँधी को सुनने गया था.

सच कहूँ तो सुनने से ज्यादा दरअसल देखने गया था. इतना याद है कि किसी ने मुझे अपने कंधे पर बिठा कर राजीव गाँधी को दिखाया था. वे झंझारपुर आए थे, मेरे गाँव का कस्बा. इसी झंझारपुर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस पार्टी की टिकट पर चुनाव जीत कर जगन्नाथ मिश्र बिहार में राज करते रहे.

राजीव गाँधी को देख कर मैं बहुत खुश हुआ था. लेकिन तब तक हमारे स्कूल की दीवारों पर राजीव गांधी और कांग्रेस के विरोध में नारे दिखने लगे थे. बाल मन में जब हम उन नारों के मायने ढूँढ़ रहे थे, उसी दौरान बिहार में सत्ता समीकरण भी बदला था. लालू प्रसाद यादव ने बिहार की सत्ता संभाल ली थी.

चरवाहा विद्यालय जैसी योजनाओं और आम जनों की भाषा में बात करने की अपनी विशिष्ट शैली की वजह से देश-विदेश की मीडिया की नजरों में वे तुरंतहीरोबन गए थे. एक नए विहान की आस लोगों के मन में जगी थी. लेकिन उसके बाद मीडिया में बिहार की जो छवि बनती गई वह अब एक इतिहास है.

बिहार में हर चुनाव विशिष्ट रहा है. पिछले लोकसभा चुनाव के बारे में दिवंगत पत्रकार प्रभाष जोशी ने लिखा था कि 'बिहार में यदि चुनाव नहीं देखा तो क्या देखा.' एक बार फिर से बिहार में हो रहे विधानसभा चुनाव पर क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मीडिया की निगाहें टिकी है. विकास के मुद्दे और जातीय समीकरणों के बीच इस बार कांग्रेस की अलख जगाने पार्टी के महासचिव युवराजराहुल गाँधी बिहार चुनाव के मैदान में उतरे हैं. लेकिन 20 वर्षों में बिहार के राजनीतिक समीकरणों में गाँधी परिवार का करिश्मा अब धूमिल पड़ गया है. हेलिकॉप्टरों से उड़ती धूल से बिहार की जनता की आँखें अब नहीं चौधियाती. इन वर्षों में जो लोग कांग्रेसी थे उन्होंने भी पाले बदल लिए. झंझारपुर विधानसभा क्षेत्र से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र के पुत्र विधानसभा चुनाव जीते थे, पर वे कांग्रेस से नहीं, बल्कि फिर इस बार की तरह जनता दल (एकी) से चुनाव लड़े थे.

मीडिया में विकास पुरूषनीतिश कुमार के विकास कार्यों की तारीफ हो रही है. चुनावी पंडित कह रहे हैं कि इस बार चुनाव में जातीय समीकरण नहीं, विकास की बातें वोटरों के मन में है. लेकिन विकास की बात सड़कों से शुरू होकर सड़कों पर ही खत्म हो जा रही है.

मेरे गाँव की सड़क जो अधपकी बीच में ही बन कर रह गई थी वह पिछले 20 वर्षों में वैसी ही है. बिजली कभी-कभी अतिथि सा आ जाती है. प्राथमिक स्कूल में मास्टर साहब बच्चों को हांकते रहते हैं. इन्हें देख नागार्जुन के दुखरन मास्टर की याद ताजा हो जाती है. गंदगी में पनपते मलेरिया के मच्छरों के बीच लोग रामभरोसे जी रहे हैं. पूरे इलाक़े के लिए एक खस्ताहाल अस्पताल है जिसमें किसी गर्भवती महिला या मरीज के लिए खून देने की भी व्यवस्था नहीं है. ऐसा लगता है कि इन वर्षों में रेणु के मैला आंचल में और ज्यादा धूल भर गई हो.

नब्बे के दशक में बिहार से छात्रों का दूसरे राज्यों में जो पलायन शुरू हुआ वह बदस्तूर जारी है. इन वर्षों में उच्च शिक्षा की बदहाली जिस कदर हुई वह किसी से छुपी नहीं है. इसका दंश सबसे ज्यादा हमारी पीढ़ी ने भोगा है. हां, हाल के वर्षों में बीच-बीच में बिहार में प्रस्तावित नालंदा विश्वविद्यालय और इससे जुड़ी गौरव की चर्चा हो जाती है, बस!

हम जैसे मध्यम वर्ग से आए लोग जिनके पास सांस्कृतिक पूँजी और आय थी, मौक़ा मिलते ही महानगर की ओर भाग लिए और भूमंडलीकरण-उदारीकरण के रथ पर चढ़ने की कोशिश में है. पर मेरे साथ गाँव की स्कूल में पढ़ने और खेलने वाले मेरे दोस्त नथुनी पासवान और मदन मंडल वहीं कहीं छूट गए. जो किसान और खेतिहर मज़दूर काम की तलाश में शहर आए वे एक स्लम से निकल कर दूसरे स्लम में फँसेHh हैं.

बिहार में जब तक शिक्षा और स्वास्थ्य की व्यवस्था नहीं सुधरेगी तब तक विकास की कोई भी बात बेमानी है. लेकिन जैसा कि मगध कविता संग्रह की एक कविता में श्रीकांत वर्मा ने लिखा है: कोई छींकता तक नहीं/ इस डर से/ कि मगध की शांति भंग ना हो जाए/ मगध को बनाए रखना है, तो/ मगध में शांति रहनी ही चाहिए.

ऐसा लगता है चुनावी महापर्व में वर्षों बाद बिहार में आई शांति को मीडिया अपने सवालों से भंग नहीं करना चाहता.

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 4 नवंबर 2010 को प्रकाशित)