Monday, January 30, 2012

बड़े परदे की खबर


पिछले दिनों युवा फिल्म निर्देशक गुरविंदर सिंह की पंजाबी फिल्म अन्हे घोड़े दा दान (अंधे घोड़े का दान)की एक अखबार में की गई समीक्षा को लेकर चर्चित संगीतकार और फिल्म अध्येता मदन गोपाल सिंह बेहद खिन्न थे. उनकी नज़र में इस फिल्म की समीक्षा में वो सब था जो फिल्म में नहीं है!
गौरतलब है कि चर्चित लेखक गुरुदयाल सिंह की कहानी पर आधारित अन्हे घोड़े दा दानको हाल ही में बेहतरीन निर्देशन और सिनेमाटोग्राफी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई.
पंजाब के एक गाँव में दलित किसानों की दुखद स्थिति के इर्द-गिर्द घूमती यह ऐसी पहली पंजाबी फिल्म है, जिसे पिछले वर्ष वेनिस फिल्म समारोह में शामिल किया गया और विदेशों में इस फिल्म की काफी सराहना की जा रही है.
पिछले वर्ष मराठी फिल्म के चर्चित युवा फिल्म निर्देशक उमेश कुलकर्णी को जब एक निजी समाचार चैनल ने यंग इंडियन लीडरपुरस्कार से नवाजा तो सुखद आश्चर्य हुआ. बॉलीवुड के स्टैपल डाइटपर पलने वाले हमारे समाचार चैनलों को क्षेत्रीय सिनेमा की सुध कहाँ! गौरतलब है कि उमेश कुलकर्णी की फिल्म देऊलको राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में इसी वर्ष बेस्ट फीचर फिल्म सहित कई पुरस्कार दिए जाने की घोषणा की गई है. पहले भी उनकी फिल्मों को काफी प्रशंसा और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं.
इन फिल्मों के साथ दिक्कत यह है कि ये किसी बड़े मीडिया सहयोगी को नहीं ढूंढ पातीं और हमारी मीडिया के सरोकार और वर्ग चरित्र सबके सामने स्पष्ट है.
जब सलीम अहमद निर्देशित एक मलयाली फिल्म एडामिंते माकन अबू (अबू, आदम का बच्चा)को भारत की ओर से आधिकारिक तौर पर ऑस्कर पुरस्कार के लिए भेजा जाता है तब दिल्ली में बैठे राष्ट्रीय पत्रकारोंको लगता है, ‘आह! अदूर गोपालकृष्णन और शाजी करुण के बाद नई पौध भी है जो अच्छी फिल्में बना रही हैं.
बीते कुछ सालों में बॉलीवुड की फिल्मों के प्रचार में भारतीय मीडिया की सहभागिता अचंभित करती है. हर बड़े बैनर की फिल्म रिलीज होने से पहले स्टारइस टीवी स्टूडियो से उस स्टूडियो कूदते-फांदते रहते हैं. पत्रकारों के साथ हँसते-बतियाते हैं, फोटो खिंचवाते हैं और फिर उस फिल्म को भव्य’, ‘दिव्यरूह को छूने वाली' आदि-आदि विशेषणों से विभूषित किया जाता है.
हर शुक्रवार को बॉलीवुड के इन कलाकारों के लिए समाचार कक्ष में रेड कारपेटबिछाया जाता है. क्या यह अनायास है कि वर्तमान में हर बड़ी फिल्म प्रोडक्शन कंपनी का मीडिया पार्टनर कोई ना कोई अखबार या खबरिया चैनल होता है?
भूमंडलीकरण के बाद पूरी दुनिया में खबरों की परिभाषा बदली है. अब संपादकों और मालिकों का सारा जोर खुश खबरीपर रहता है. दूसरे शब्दों में, समाचार उद्योग यथास्थिति के बरकरार रखने में राज्य, बाजार और सत्ता के सहयोगी हैं. ऐसे में, आज बॉलीवुड की फिल्मों, क्रिकेट और सेंसेक्स के उछाल की खबरें सुर्खियाँ बटोर रही है और किसानों की आत्महत्या, दलितों के उत्पीड़न और आदिवासियों के जंगल और जमीन से बेदखली बमुश्किल जगह बना पाती है. ये डाउन मार्केटकी खबरें हैं!
वर्तमान में मीडिया के सरोकर जन से नहीं अभिजनसे जुड़े हैं. अब खबरें तेजी से मनोरंजन उद्योग का हिस्सा बनती जा रही है और इससे बाजार, अखबार और खबरिया चैनलों सबका हित सधता है. पिछले दिनों भारतीय पत्रकारिता में राजनीतिक खबरों को लेकर पेड न्यूज की खूब चर्चा हुई. इसके तहत अखबार चुनावों के दौरान एक तयशुदा पैकेजलेकर राजनीतिक पार्टियों के मनोनुकूल खबरें, फोटो, इंटरव्यू आदि छापते हैं. वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनावों और हाल ही में संपन्न हुए पंजाब विधानसभा चुनावों में एक बार फिर यह देखने में आया. लेकिन पेड न्यूज को महज राजनीतिक खबरों तक सीमित करके देखना बीते दो दशकों में समाचार उद्योग की दशा और दिशा को संपूर्णता में देखने से

चूकना होगा. यह सही है कि मीडिया किसी भी लोकतांत्रिक समाज में सूचना, शिक्षा और मनोरंजन का एक प्रमुख जरिया है. लेकिन गहरे अर्थ में वह सामाजिक विकास और परिवर्तन का माध्यम है. समाज की आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक एजेंडों को तय करने में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है.
यह जानने के बाद कि वर्तमान में फिल्म पत्रकारिता मेनस्ट्रीम पत्रकारिता का हिस्सा है और मनोरंजन (खास कर बॉलीवुड) की खबरों को सबसे ज्यादा तरजीह दी जा रही है, इस बात पर बहस जरुरी है इनके सबके बीच किस तरह की सांठ-गांठ है. मीडिया संगठनों और बॉलीवुड की कंपनियों के बीच दुरभि-संधि की खुल कर चर्चा होनी चाहिए. साथ ही बहस इस बात पर भी की जानी चाहिए हिंदी की सार्वजनिक दुनिया (पब्लिक स्फीयर) को पिछले दो दशकों में बॉलीवुड की फिल्मों ने और उनसे जुड़े प्रचार ने किस रूप में प्रभावित या संकीर्ण किया है और इसमें हिंदी क्षेत्र के बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका रही है.
अकीरा कुरोसावा की चर्चित फिल्म रोशोमनका एक पात्र कहता है-झूठ है तो भी क्या फर्क पड़ता है, जब तक वह हमारा मनोरंजन करता रहे. बॉलीवुड की अमूमन हर फिल्म के बारे में आम दर्शकों की राय रोशोमन के इस पात्र से भिन्न नहीं होती है. वह अब सत्य, शिव और सुंदर की तलाश में सिनेमा हॉल में नहीं जाता!
फिर भी जब कोई दर्शक सिनेमा हॉल में दाखिल होता है तब उसके साथ सौ सालों की परंपरा भी होती है. इन वर्षों में हिंदी सिनेमा ने कई मानक गढ़े हैं और इन्हीं मानकों के आधार पर वह अपने तईं फिल्म को कसता-परखता है. लेकिन आश्चर्य तब होता है जब ना सिर्फ मुख्यधारा के मीडिया, बल्कि नए मीडिया- ब्लॉग, फेसबुक, टिवटर- पर भी मीडिया से जुड़े लोग, फिल्म अध्येता जानबूझ कर या अनजाने बिना किसी सोच-विचार के इन फिल्मों के प्रचार में जुट जाते हैं.
हाल ही में रिलीज हुई एक फिल्म की समीक्षा लिखते हुए एक टीवी पत्रकार ने अपने ब्लॉग पर लिखा था- हम हिंदी सिनेमा देख रहे हैं, कुरोसावा की फिल्म नहीं, जिनकी एक भी फिल्म मैंने नहीं देखी है. उन्होंने आगे लिखा- मैं कागज के फूल का रिव्यू नहीं लिख रहा, उस फिल्म का लिख रहा हूं जो चलती भी है और बनती भी है!
यह उस फिल्म की समीक्षा कम प्रचार ज्यादा है, जिसे लोग एक महीने के बाद भूल जाते हैं. पर कागज के फूल और कुरोसावा की फिल्मों की चर्चा आज भी की जाती है.
गौरतलब है कि उस फिल्म का मीडिया पार्टनर देश का एक बड़ा मीडिया समूह था जिसके कई समाचार चैनल हैं. हम टीवी चैनल से यह अपेक्षा नहीं करते कि वह फिल्म के बारे में हमें सम्यक रूप से बताएगा, पर यह अपेक्षा स्वतंत्र ब्लॉगरों और सोशल साइट के कर्ता-धर्ताओं से है, जो किसी सेंशरशिप या बाध्यताओं के शिकार नहीं.
वर्ष 2005 में जब एक निजी समाचार चैनल पर बंटी और बबलीफिल्म के रिलीज होने से ठीक पहले स्टूडियो में फिल्म के कलाकार प्राइम टाइम की खबर पढ़ते देखे गए, तब कुछ बहस जरुर हुई, फिर सब शांत हो गया.
हाल ही में चर्चित फिल्म कलाकार इरफान खान ने फिल्म प्रोमोशन को लेकर कलाकारों की उछल-कूद पर नाखुशी जाहिर की, लेकिन उन्होंने स्वीकार किया कि वे इस तमाशे से मुक्त नहीं हो सकते. फिल्म का प्रचार फिल्म निर्माण का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका है.
इरफान ने एक इंटरव्यू में स्वीकार किया है कि जिनके पास पैसा है वे बड़े स्तर पर फिल्म का प्रोमोशन करते हैं. मैं नाम नहीं लूँगा लेकिन मैं उन फिल्मों के बारे में जानता हूँ कि जिसकी अखबारों में समीक्षाएँ लाखों रुपए देकर छापी गई लेकिन फिर भी फिल्म फ्लॉप रही.
हमारे समय के एक बेहतरीन अभिनेता जब ऐसा कह रहे हों तो इसे भूमंडलीकरण के दौर में फिल्म प्रमोशन और मीडिया के बीच एक सांठ-गाठ की ओर इशारे की तरह देखना चाहिए. सवाल है कि अगर ऐसा है तो इससे भारतीय समाज, सिनेमा और मीडिया का कितना हित होगा.
(अन्हे घोड़े दा दान के सेट पर गुरविंदर सिंह, जनसत्ता , 25 मार्च 2012 (रविवार) को मीडिया कॉलम में प्रकाशित)

Tuesday, January 17, 2012

अजब शहर में एक योगी: किरण सेठ

तो तुम्हें शुभा मुद्गल पसंद है.’

शायद जून-जुलाई की कोई दोपहर थी और मैं अपने शोध निर्देशक प्रोफेसर वीर भारत तलवार के कमरे पर किसी काम से गया था.
तलवार जी संगीत के बेहद शौकिन हैं. उनके साधारण लेकिन सुरुचिपूर्ण ड्राइंग रुम में एक तरफ लगे दीवान पर कुछ सीडी बेतरतीब सी बिखरी पड़ी दिखती थी. शुरु-शुरु में मुझे लगता रहा कि शायद जल्दीबाजी की वजह से हो ऐसा, लेकिन धीरे-धीरे देखा कि बिखराव में भी एक अलग अंदाज है.

तलवार जी के पास पापुलर और शास्त्रीय संगीत की सीडी और कैसेट का बेहद ख़ूबसूरत संग्रह है. उस दिन कमरे में आशा भोंसले का गाया कोई फिल्मी कैसेट बज रहा था....मैंने देखा कि बिस्तर पर एक कैसेट शुभा मुद्गल का भी है तो मैंने वही सुनने की फ़रमाइश की थी.

तलवार जी के स्वर में उत्सुकता और थोड़ी खुशी थी...मेरे जेनरेशन से शायद उन्हें यह अपेक्षा ना हो कि शास्त्रीय संगीत में हमारी कोई दिलचस्पी होगी. यह बात क़रीब दस साल पुरानी है.
बहरहाल, उस दिन दिल्ली के एनएसडी में भारत रंग महोत्सव में नाटक देखने गया था. भीड़ के बीच अभिमंच की ओर बढ़ते हुए मेरी नज़र एक जाने-पहचाने चेहरे की तरफ पड़ी.

उस कड़ाके की ठंड में साधारण कठ-काठी का, चश्मा पहने वह सौम्य व्यक्ति नोटिस बोर्ड पर एक पर्चा चिपका रहे थे. मैंने कैमरा निकाल लिया. कैमरे की ओर देख उन्होंने मुस्करा दिया और कहा- आइएगा, आईआईटी में 18 जनवरी को उस्ताद अमजद अली खान का कंसर्ट है!’ 
किरण सेठ पिछले करीब 35 वर्षों से बिना किसी सुर्ख़ियों में रहे युवाओं के संग मिल कर स्पीक मैके को नेतृत्व दे रहे हैं

90 के दशक के मध्य में जब दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था तब हमारे सालाना जलसे में नृत्यांगना उमा शर्मा आईं थीं. ‘स्पिक मैके (SPIC MACAY) के तहत उनका यह कार्यक्रम था.
पहली बार मैंने तभी स्पिक मैके (सोसाइटी फॉर द प्रमोशन ऑफ इंडियन क्लैसिकल म्यूजिक एंड कल्चर अमंगस्ट यूथ) के बारे में सुना था.

बचपन में जब ऑल इंडिया रेडियो पर दोपहर में बिस्मिल्लाह खान या सिद्धेश्वरी देवी अपना राग अलापती थीं तब हम रेडियो बंद कर देते थे. तब ना तो संगीत की सुध थी ना समझ. सही मायनों में हमारे लिए शास्त्रीय संगीत का द्वार स्पिक मैके ही ने खोला. साहित्य में अनुराग होने की वजह से संभवत: शास्त्रीय संगीत को जब सुनना शुरु किया तो दिलचस्पी और बढ़ती गई. तब से अब तक दिवंगत बिस्मिलाह खान साहब से लेकर रवि शंकर, गिरिजा देवी और बिरजू महराज आदि को स्पिक मैके के ही कार्यक्रम में लाइव देखा-सुना है. और लगभग दिल्ली में होने वाले हर कार्यक्रम में कभी भीड़ में पीछे दरी को ठीक करते तो कभी तन्मय हो कर संगीत का आनंद लेते किरण सेठ मिले हैं.
उस दिन मैंने कहा कि, 'सर, असल में आपके बारे में कुछ लिखना चाहता हूँ...' हल्के से मुस्कुराते हुए उन्होनें मुझे स्पिक मैके का एक विजिटिंग कार्डदिया और उस पर अपना फोन नंबर हाथ से लिखते हुए कहा स्पिक मैके के बारे में लिखिए...

पिछले दिनों मैं मिथिला पेंटिंग को लेकर एक शोध के सिलसिले में मधुबनी गया था. वहाँ जब मिथिला पेंटिंग की एक चर्चित कलाकार महासुंदरी देवी से मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि पिछले साल से स्पिक मैके के तहत देश के विभिन्न भागों से कुछ बच्चे एक महीने मेरे पास रहने आ रहे हैं. वे मिथिला पेंटिंग की बारीकियों को सीखते-समझते हैं.
आईआईटी दिल्ली में वर्ष 1979 में स्पिक मैके की एक बेहद छोटे स्तर पर विधिवत शुरुआत की गई. इन वर्षों में इसका विस्तार देश-विदेश के विभिन्न महानगरों, छोटे शहरों, कॉलेजों और स्कूलों में बढ़ता चला गया. 
स्पिक मैके यह एक ऐसा आंदोलन बन गया है जो अब किसी परिचय का मोहताज नहीं है. पर स्पिक मैके की वेब साइट पर जब आप नजर डालेंगे तो आज भी वहाँ किरण सेठ की चर्चा या उनका परिचय शायद ही कहीं मिले!

पेशे से शिक्षक किरण सेठ इस अजब शहर में एक निष्काम योगी की तरह हैं जो भारतीय संगीत और संस्कृति का अलख युवाओं के बीच जगाए हुए अपने काम में मस्त हैं. कबीर ने ठीक ही लिखा है… मन मस्त हुआ फिर क्या बोले?’
(जनसत्ता, 20 जनवरी 2012 को समांतर स्तंभ में फिर क्या बोले शीर्षक से प्रकाशित, तस्वीर:किरण सेठ)