Saturday, September 22, 2012

शिमला में निर्मल वर्मा

सितंबर की इस शाम बारिश की गंध और हवा में रोमांस है. बादलों का घेरा शहर को अपने आगोश में लिए हुए हैं. शर्ट में ठंड लगती है पर स्वेटर या स्वेट शर्ट पहनने का मन नहीं होता. ऊंची पहाड़ियों पर देवदार के पेड़ शांत और स्थिर खड़े हैं. जैसे वे सिर्फ आपको सुनेंगे भर, कहेंगे कुछ नहीं. एक आकाशधर्मा गुरु की तरह जिसके पास आपके विचारों, भावों को सुनने का पर्याप्त समय होता है.

रात की इस खामोशी और अंधेरे में गेस्ट हाउस में सिर्फ हमारी साँसे सुनाई दे रही है. पता नहीं बगल के कमरे में कोई है भी या नहीं. मैंने धीरे से रीना से कहा- 'भूत से डर तो नहीं लगता!

दिल्ली की भागमभग से दूर, मैदानों में पले-बढ़े हमारे लिए हिल स्टेशनों की नीरवता एक ख्याल सी लगती है. यूँ तो शिमला कई बार आया, पर शादी के बाद यह शिमला की पहली यात्रा थी. कुछ शब्द हमारी जबान पर मुश्किल से चढ़ते हैं. मेरे लिए हनीमून एक ऐसा ही शब्द है.

बहरहाल, छाता लेकर जब हम अगले दिन शहर घूमने निकले तो धूप के छोटे-छोटे टुकड़े खिले थे. आसमान पूरी तरह साफ नहीं था. कुछ दिनों से यहाँ बारिश हो रही थी. पर ऐसा क्यों लग रहा है कि शिमला से हर वर्ष शिमला छीजता जा रहा है. या यह सिर्फ मेरे मन का वहम है!

शहर तो वही है. मॉल रोड, गिरजा घर, गेयटी थियेटर, पुरानी किताबों की दुकानें और दूर  सामने की जाखू की पहाड़ी पर स्थित हनुमान की विशाल मूर्ति.  फिर ऐसा क्यों लगता है मुझे?

शाम होते ही मॉल रोड पर सैलानियों की भीड़ इतनी कि पाँव रखने की जगह नहीं. शोर-शराबा और बीयर की गंध!  रात होते ही सड़कों पर आवारा कुत्ते. पता नहीं पहाड़ पर स्थित शहरों में रोमांस होता है या उसकी ओबा-हवा में जो हमें अपनी ओर खींचती है.

अपने अंदर इतिहास की कई गाथाएँ समेटे वॉयसराय लॉज (वर्तमान में भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान) एक ऐतिहासिक धरोहर (हेरिटेज ब्लिडिंग) है. पर बाहर से यह जितना भव्य दीखता है अंदर से उतना ही खोखला. छत से टप टप रिसता पानी, लकड़ियों में लगे घुन और रख-रखाव की बुरी व्यवस्था इस इमारत की बदहाली की कहानी बयां करती है. कहते हैं कि निर्मल वर्मा ने अपने चर्चित उपन्यास लाल टीन की छत यहीं रह कर लिखा था.

निर्मल वर्मा की कहानियों, यात्रा वृत्तांतों में शिमला कई बार, कई तरहों से आया है. बचपन की स्मृतियाँ किसी भी लेखक, रचनाकर के लिए बेहद कीमती होती हैं. और यदि वह रचनाकार निर्मल वर्मा की तरह प्रतिभावान हो तो रचनाकार की स्मृतियों के साथ शहर एक पाठक के मन में अपना संसार गढ़ते हैं.

शिमला जब-जब गया मन हर बार लाल टीन की छत वाले निर्मल वर्मा के उस शहर को ढूंढ़ता रहा. शाम में मॉल रोड स्थित गेयटी थिएटर में निर्मल वर्मा की दो कहानियों धूप का एक टुकड़ा और डेढ़ इंच ऊपर का मंचन है. बाहर सड़कों पर जितनी ही ज्यादा भीड़ है, इस खूबसूरत थिएटर के अंदर उतने ही कम लोग. 

नाटक खत्म होने के बाद थिएटर से निकल कर हम सामने ही एक किताब की दुकान में घुस गए. तरह तरह की किताबों से सजे इस दुकान में निर्मल वर्मा की कोई किताब नहीं मिली. मैंने दुकानदार से लगभग चिढ़ कर कहा, आपका शहर निर्मल वर्मा को याद कर रहा है और आपके यहाँ उनकी एक भी किताब क्यों नही है.

जवाब में यह चिर-परिचित जुमला सुनने को मिला- हिंदी की किताबें कहाँ बिकती हैं!

चीड़ों पर चाँदनी संस्मरण में निर्मल वर्मा ने लिखा है, क्या यह शिमला है-हमारा अपना शहर-या हम भूल से कहीं और चले आए हैं

इस बार शिमला से आने के बाद मेरे मन में यह सवाल गूँजता रहा.

(समांतर स्तंभ के तहत जनसत्ता, 26 सितंबर 2012 को प्रकाशित)