Friday, June 28, 2013

नेकर के किनारे

धूप खूब खिली है. लोग नंगे बदन नेकर के तट पर लेटे धूप सेंक रहे हैं. कुछ विद्यार्थियों के हाथों में किताब और नोट बुक भी दिख जाती हैवैसे नेकर का पानी गंदला हैनदी पर बना पुल भी सेन या टेम्स पर बने पुल से कोई स्पर्धा करता नहीं दिखता. नेकर नदी और हाइडेलबर्ग को लेकर मेरे मन में एक छवि अल्लामा इकबाल की एक नज्म से जुड़ी हुई थी- एक शाम-दरियाए नेकर के किनारे.

हाइडेलबर्ग शहर की रौनक नेकर के दोनों तटों पर बसे विश्वविद्यालय से हैशहर खुश मिजाज दिखता है.  इसमें एक ठहराव है और समय के साथ ना चलने की जिद्दी धुन भी. कोई बनावटीपन या दिखावा नहींशहर का फैलाव भले ही कम हो पर सैलानियों की आवाजाही ज्यादा है

ऊँची पहाड़ियों पर बने कैसल के ऊपर पहुँचे तो मन में केदारनाथ सिंह की पंक्ति गूँजी- यहाँ से देखोकरीने से सजे मकानों का सुर्ख रंग, पहाड़ी पर हरे-भरे पेड़ और बीच में बहती नेकर नदी. मानो शहर बुद्ध की ध्यान मग्न प्रतिमा में बदल गया हो.

सोचता हूँ, सात सौ साल पहले यह शहर और विश्वविद्यालय कैसा रहा होगामन में नालंदा विश्वविद्यालय की छवि उभरती है. पुराने शहर के अंदरूनी हिस्से में हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय की पुरानी इमारत और एक संग्रहालय भी है. सन 1386 में स्थापित जर्मनी के सबसे पुराने इस विश्वविद्यालय ने इतिहास के कई थपेड़े झेलेनाजी जर्मनी में अन्य विश्वविद्यालयों की तरह इसने भी हिटलर का समर्थन किया था. हालांकि विश्वयुद्ध के दौरान विध्वंस से यह बच गया था, पर उस दौर में पुस्तकालय की किताबों को लोग शहर से दूर गाँवों-कस्बों में ले गए, ताकि विध्वंस की हालत में उसे बचाया जा सके. यूरोप में और खास कर जर्मनी में युद्ध कालीन इतिहास की गाथा को सहेज कर रखा गया है ताकि आने वाली पीढ़ी उस सबक से कुछ सीख सके. हाइडेलबर्ग की यात्रा से पहले हम कोलोन स्थित 'नेशनल सोशिलिज्म म्यूजियम' गए थे, जो नाजी जर्मनी में गेस्टापो (खुफिया पुलिस) का मुख्यालय था. उन दीवारों पर उस दौर की ज्यादती और व्यथा का विवरण भले ही विचलित करता हो, पर मानवता के इतिहास के लिए इसे सहेजना जरुरी लगता है

बहरहाल, पुराने शहर की गलियों में भटकने के बाद हम अल्लामा इकबाल की रिहाइश की खोज में निकले. उन्होंने हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय से दर्शन, साहित्य और जर्मन भाषा की पढ़ाई की और बाद में म्यूनिख से पीएचडी की थीउनकी स्मृतियों को सुरक्षित रखते हुए नेकर के तट पर एक मार्ग का नाम- 'इकबाल उफेर' रखा गया है. 'उफेर' यानी स्ट्रीटनेकर के दूसरे तट पर एक स्ट्रीट है -'फिलॉसफेन वेग'. सैकड़ों साल पुराने मकानों से घिरी इस स्ट्रीट पर कहते हैं कि कई दार्शनिकों ने अपने निशान छोड़े हैं! इसी के इर्द-गिर्द एक मकान के बाहर एक नेमप्लेट दिखती है जिसमें लिखा है: 'दार्शनिक, कवि और पाकिस्तान के जनक  (मानस पिता) यहाँ रहते थे'. 
 

'सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्ता हमारा' लिखने वाले कवि इकबाल और एक अलग राष्ट्र पाकिस्तान की मांग करने वाले विचारक इकबाल के साथ तालमेल बिठाने में मुझे परेशानी हुई. उनका व्यक्तित्व एक साथ कई विरोधाभासों  को समेटे हुए था

खैर, मेरी इन उलझनों का जवाब अगले दिन हाइडेलबर्ग विश्वविद्यालय के दक्षिण एशियाई संस्थान में मिला जहाँ मुझे हिंदी मीडिया पर बोलना थायह संस्थान पिछले पचास सालों से दक्षिण एशियाई भाषा, साहित्य और संस्कृति के ऊपर शोधशिक्षण-प्रशिक्षण को बढ़ावा दे रहा हैं. इस संस्थान में प्रवेश करते ही रचनाकर्म में रत रवींद्रनाथ ठाकुर की एक आवक्ष प्रतिमा ('बस्ट') दिखती हैइकबाल की तरह ठाकुर भी दक्षिण एशिया के एक ऐसे प्रतिनिधि शायर और विचारक थे, जिन्हें किसी एक राष्ट्रीयता में कैद नहीं किया जा सकता

संस्थान के वर्तमान निदेशक प्रोफेसर हंस हार्डर खुद हिंदी और बांग्ला के विद्वान हैं. मेरी नजर कोल्हापुरी चप्पल पर पड़ी जो उन्होंने पहन रखी थी. मैंने तारीफ की तो मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा कि आम तौर पर विश्वविद्यालय में हम ये पहन कर नहीं आते, पर आज गरमी है, तो चलेगा. और फिर यह दक्षिण एशियाई संस्थान तो है ही

आज लोग इसे भले ही याद न करें, पर 20वीं सदी की शुरुआत में अल्लामा इकबाल, जाकिर हुसैन, राम मनोहर लोहिया जैसे राजनेता-विचारक जर्मनी शिक्षा-दीक्षा के लिए आए थे. जेएनयू के प्रोफेसर आनंद कुमार ने बताया कि लोहिया की पीएचडी थीसिस का वर्तमान में कोई अता-पता नहीं है. भारत सरकार को चाहिए कि वह जर्मनी के साथ मिल कर उनके शोध प्रबंध की खोज का उपक्रम करे, ताकि पता चल सके वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौर में किन विचारों-चिंताओं से जूझ रहे थे
(दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता में 28 जून 2013 को प्रकाशित)

Friday, June 14, 2013

मेहनतकशों का शहर


जिगन को 'मुफस्सिल' तो नहीं कहेंगे पर बर्लिन, बोन, कोलोन की तुलना में यह शहर अपनी शान में छोटा है.  और जैसा कि हर छोटे शहरों या मुफस्सिल में रहने वालों के साथ होता है, वे आस-पास के शहरों की ओर हसरत और कुछ ईर्ष्या से देखते रहते हैं.

तीन वर्ष पहले जब कुछ महीने के लिए आया था तो लोगों को आश्चर्य लगता था कि दिल्ली जैसे विशाल महानगर का आदमी इस छोटे शहर में कैसे खुश रह रहा है. तब रोमानिया मूल की जर्मनी में पली-बढ़ी योआना पूछती थी दिल्ली से कैसे यहाँ! यह शहर तो नहीं जँच रहा होगा ! मैं कहता था- अरे! इसलिए तो जँच रहा है! योआना दिल्ली, कोलकाता देख आई है.

द्वितीय विश्वयुद्ध के करीब 70 वर्षों के बाद युद्ध की पीड़ा से जर्मनी उबर भले गया हो, उसके भूत ने अभी भी पीछा नहीं छोड़ा है. कल जब हम कुछ प्रोफेसर के साथ रात का खाना खा रहे थे तब एक प्रोफेसर ने हँसते हुए पूछा- अच्छा बताइए, एक तो जर्मनी युद्ध के लिए प्रसिद्ध रहा है और दूसरा किस चीज से उसकी खासियत झलकती है. किसी ने कहा, समय की पाबंदी, किसी ने कहा, दक्षता और किसी ने कहा बीयर! पर हँसते हुए फिर उन्होनें ही जवाब दिया- 'गलत, हम युद्ध हारने के लिए भी प्रसिद्ध है!'

असल में करीब सात-आठ सौ साल पुराने इस शहर का अस्सी प्रतिशत हिस्सा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नष्ट हो गया था. इसे इसलिए भी निशाना बनाया गया क्योंकि उत्तरी-राइन वेस्टफेलिया में पड़ने वाला उत्तरी-पश्चिमी यह क्षेत्र लौह-इस्पातों से भरा-पूरा था.  और मुख्यत:  कामगारों का शहर था. नष्ट नीड़ का निर्माण आप कितना भी कीजिए, पर क्या आप पुरानी रौनक को पा सकेंगे? फिर भी मेहनतकशों ने नए सिरे से इस शहर को बुना और आज जर्मनी के किसी भी अन्य शहर की तरह आज उतना ही जर्मन है. छोटी-छोटी पहाड़ियों से घिरा, बीचों-बीच बहती जिग नदी ,  बारिश की फुहाड़ और केंद्र में जिगन विश्वविद्यालय. सत्तर के दशक में क्षेत्रीय विकास के लिए सरकार ने इसके केंद्र में विश्वविद्यालय की स्थापना की और आज यह मुख्य रूप से 'यूनिवर्सिटी टाउन' कहलाता है.  किसी भी विश्वविद्यालय में मौसम के बदलने के साथ प्रवासी पक्षियों की तरह विद्यार्थियों का आना-जाना लगा रहता है. लेकिन युवाओं की चहल-पहल, गहमागहमी बरकरार रहती है. भारत अभी युवाओं का देश है , इसके ठीक उलटा जर्मनी में उम्र के आखिरी चरण की ओर बढ़ते लोगों की जनसंख्या काफी अधिक है. और यह यहाँ के लोगों और जर्मनी के सरकार की मूल चिंता है. 

पिछली बार सर्दी से उकताए लोग वसंत के आने की बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे. पर जून महीने में चारों तरफ हरियाली वैसी है जैसे भारत में मानसून के समय होती. नौ साढ़े-नौ बजे अंधेरा होता है, ऐसा लगता है सूरज 'ओवर टाइम' कर रहा हो! 
योआना

भारत और जर्मनी में 'राजनीति, घर्म और मीडिया 'के संबंधों को लेकर यहाँ  एक सेमिनार का आयोजन है और इसी सिलसिले में हम कुछ भारतीय दोस्तों और प्रोफेसरों के साथ आए हैं.  शाम को हम योआना से मिले. योआना मल्टीनेशनल कंपनी के कर्मचारियों को अंग्रेजी पढ़ाने के बाद आई थी. वे कहती है कि भूमंडलीकरण के बाद ऐसे लोगों की माँग बढ़ी है जो अंग्रेजी जानते हो क्योंकि इन कंपनियों का कारोबार भारत और अमेरिका जैसे देशों के साथ है और अंग्रेजी की जरुरत होती है. पर यहाँ लोगों में अंग्रेजी नहीं जानने को लेकर झिझक या विनम्रता से उपजी एक स्वभाविक हया जो हमारे अंदर होती है वह भले हो ,पर शर्म नहीं है जैसा कि हममें आम तौर पर होती है. किताब की दुकानों पर जर्मन में ढेरों किताबें और किसी एक छोटे से खंड में अंग्रेजी की किताबें दिखती हैं. 

योआना शाहरुख खान की जबरदस्त फैन है. पिछली बार वो मुझे अपने घर 'ओम शांति ओम' दिखाने ले गई थी. मैंने पूछा कि क्या 'जब तक है जां', देख ली? उसने कहा अभी नहीं, हां, 'रा वन' देखी थी. मैंने पूछा कि क्या तुम्हारे माता-पिता भी हिंदी फिल्म देखते हैं? अपने हाथों को इस अंदाज में झटका कि क्या बात करते हो. पर साथ ही जोड़ा कि मेरी दादी जरुर देखती थी. रोमानिया में राज कपूर की आवारा और तीसरी कसम काफी चर्चित थी. मेरी दादी इन फिल्मों का जिक्र करती थी और आवारा मुझे भी पसंद है.


(जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 22 जून 2013 को प्रकाशित)

Wednesday, June 12, 2013

Who's News: Ideology and practice of the Hindi media



Religion, Politics and Media: German and Indian Perspectives
University of Siegen, Germany (14-15th June 2013)
 The Representation of Religious Diversity in Hindi Language Newspapers in India
Dr Arvind Kumar (Arvind Das)
 India is a multiethnic, multireligious, multilingual society. Indian constitution describes it as a ‘sovereign socialist secular democratic republic’. Still religion, caste and linguistic identities play a major role in defining Indian nation and its democratic politics. In the last two decades, Indian politics hovered around the twin identities of caste and religion, accompanied by the exponential growth in the language media.
While in Europe the obituary of newspapers is being written every now and then, media industry, particularly language newspaper industry in India is seeing a phenomenal growth with the advent of new technologies which came with globalization and the increase in literacy and expanding market. Among all the vernacular languages, Hindi being an official language and lingua franca has wider reach in the country. According to the Audit Bureau of Circulations (ABC) the average certified copies of Hindi language dallies in the period of July-December 2012, was over 15 million, while for English dallies it was over 9 million, for Malayalam it was over 4 million and for Marathi dallies it was over 5.4 million. In this paper I will try to map the role of Hindi newspapers in representing religious diversity in India.
 Who's News: Hindi newspapers in the Globalizing India
SAA, University of Heidelberg (Lecture, June 18th 2013) 

In the last decade of 20th century Indian economy embraced the process of liberalization (1991), heralding the contemporary phase of Globalization.  It changed the nature of Indian state and made profound impact on the society. In the same period language media, particularly, Hindi language newspapers, flourished accompanying the changes in the literacy and the political discourse in the Hindi heartland. The relationship between globalization and Hindi newspapers is quite interesting. Hindi newspapers got an identity of its own, emerged as a market leader, expanded its reach and thus redefined the public spheres. Newspapers internalized the changes brought by the globalization changing the language, content and presentation of the news. Looking at the newspapers we see the politics is no longer given prominence, instead economic, sports and entertainment news hog the headlines. Although the Dalits and women are still conspicuous by their absence in the newsrooms, there emerged a new discourse relating to them on the pages of newspapers. In this lecture I will focus on the impact of globalization on Hindi newspapers and its relationship with the Indian society.


Ideology and practice of the Hindi media
Asia and Africa Institute, University of Hamburg, Germany (lecture, 19th June 2013)
                                                                                                                 Unprecedented changes have been taking place in the last two decades in the realm of global media. In Europe, the obituary of newspapers is being written every now and then but language newspaper and television industry in India has seen a phenomenal growth with the advent of new technologies, which came with liberalization and globalization of the Indian economy in the last decade of 20th century, accompanied by the increase in literacy and expanding market. 

Hindi media has emerged as a medium of political power and discourse. It’s no longer a ‘poor cousin’ of English. It has gained a new confidence vis-à-vis its English counterpart. Now Hindi newspapers are getting published from many regional centres and almost every newspaper has its internet edition, and thus redefining and reinventing the public sphere. It has become global in reach while catering to the local tastes and interests.

Since the publication of first journal, Oodunta Martand (The Rising Sun) in 1826, Hindi press has traveled a long way. In the pre-independence era Hindi press voiced its nationalist concerns and practiced it with missionary zeal but post-independence it emerged as a profession and now it is a huge industry. Hindi media’s ideology is governed by the market forces and very definition of news has changed. Relationship between production departments and editorial board is fast changing. The role of editors have been relegated and ‘brand managers’ are taking control of the newspapers.

In this lecture, I will try to map the contours of changes particularly in terms of news production, content, language, ownership, training of journalists, role of editors and the shift in ideology that took place in Hindi media in the globalizing India in the period of 1991-2012.