Monday, December 22, 2014

पी साइनाथ की पहल

पी साइनाथ
भारतीय साहित्य और राजनीति की भाषा में गाँव अभी भले जीवित हो, महानगरीय पत्रकारिता से गाँव-देहात गायब हो चला है. जब कभी हजारों किसान-मजदूर दिल्ली में धरना-प्रदर्शन के लिए आते हैं, तो अखबारों, टेलीविजन चैनलों में खबरें इन लोगों की वजह से प्रभावित होने वाले ट्रैफिक की होती है. हमें पता भी नहीं चलता कि इनकी माँगें क्या थी? किन समस्याओं को लेकर ये दिल्ली आए थे? ऐसे में गाँव और उसके बदलते यर्थाथ को विश्वविद्यालयों में होने वाले समाजशास्त्रीय अकादमिक अध्ययनों के लिए छोड़ दिया गया है.

भारतीय गाँव, उसकी बोली-बानी, बदलते जीवन यथार्थ और उसकी समस्याओं को एक जगह समेटने के उद्देश्य से पिछले दिनों पी साईंनाथ की पहल से पीपुल्स आर्काइव ऑफ रूरल इंडियानामक एक वेब साइट शुरु की गई (http://www.ruralindiaonline.org/) है. इसे उन्होंने हमारे समय का एक जर्नल और साथ ही अभिलेखागार कहा है. इस वेबसाइट पर विचरने वाले एक साथ विषय वस्तु के उपभोक्ता और उत्पादक दोनों हो सकते हैं. इस पर उपलब्ध सामग्री, फोटो, वीडियो का इस्तेमाल कोई भी मुफ्त में कर सकता है. साथ ही कोई भी इस वेबसाइट के लिए सामग्री मुहैया करा सकता है और इसके लिए पेशेवर पत्रकारीय कौशल की जरुरत नहीं है. इस वेबसाइट को चलाने के लिए पी साईंनाथ किसी राजनीति या कारपोरेट जगत से धन नहीं लेना चाहते, बल्कि आम जनों के सहयोग की उन्हें दरकार है.

कई बार सोचता हूँ कि यदि हमारे समय में पी साइनाथ नहीं होते तो क्या हम भारतीय गाँव-देहातों, किसानों की खबरों से रू-ब-रू हो पातेक्या उदारीकृतवैश्विक अर्थव्यवस्था में किसानों की समस्या, उनकी आत्महत्या के कारणों, विषम परिस्थितियों में खेतीबाड़ी को जान पाते? टाइम्स ऑफ इंडिया और द हिंदू में पत्रकारीय कार्य के दौरान उनकी रिपोतार्जों का कोई सानी नहीं है. उनकी लिखी चर्चित किताब एवरीबॉडी लव्स ए गुड ड्रॉट’ पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए एक टेक्स्ट बुक की तरह है.

जनसत्ता, 25 दिसंबर 2014
किसानों के जीवन, उनकी समस्याओं से मीडिया की बेरुखी और लाइफ स्टाइल, फैशन, फिल्मी शख्सियतों की जिंदगी में अतिरिक्त रूचि पर व्यंग्य करते हुए पी साइनाथ ने वर्ष 2005 में अपने एक लेख में लिखा था: 1991-2005 के दौरान लगभग 80 लाख किसानों ने खेतीबाड़ी छोड़ दी लेकिन वे कहाँ गए इसकी चिंता कोई नहीं करता. कोई व्यवस्थित काम इस सिलसिले में नहीं किया गया है. मीडिया की इसमें कोई रुचि नहीं है. हां, भले ही हम आपको यह बता सकते हैं कि पैरिस हिल्टन कहाँ हैं. पिछले सालों में भारतीय मीडिया में ना सिर्फ खबर बदले हैं, बल्कि खबरों की नई परिभाषा भी गढ़ी गई है. 

जन्मभूमि और कर्मभूमि आप खुद नहीं चुनते, वो आपको चुनती है. मेरा जन्म मिथिला के एक पिछड़े गाँव में हुआ और मेरी बेटी कैथी पिछले वर्ष दिल्ली में जन्मी. मेरे लिए गाँव एक जीवित यर्थाथ है जहाँ देश की आबादी के करीब 70 फीसद लोग रहते हैं. पर पता नहीं बीस-तीस साल बाद मेरी बेटी के लिए गाँव का मानचित्र कैसा हो!

मुझे गाँव छोड़े लगभग बीस साल हो गए. पर गाँव अभी छूटा नहीं है. बरस-दो बरस में एक-दो बार गाँव चला ही जाता हूँ. जब गाँव से शहर की ओर लौटता हूँ तो लगता है कि कुछ छूट रहा है. बचपन की कुछ स्मृतियां, सपने, रंग और आबोहवा. जो बचा है मन उसे तेजी से समेट लेना चाहता है. निस्संदेह मेरे जैसे हजारों लोगों के लिए यह पहल इस गुजिश्ता साल की एक सुखद भेंट हैं. पर इस भेंट को आने वाली पीढ़ी के लिए संभालने का जिम्मा भी हम जैसे लोगों पर ही है, जो मुख्यधारा की मीडिया के बरक्स न्यू मीडिया से बदलाव लाने की अपेक्षा पाले बैठे हैं!