Monday, October 24, 2016

हिंदी में एकांगी मीडिया मंथन

राज्यसभा टीवी पर मीडिया मंथननाम से एक रोचक कार्यक्रम आता है, जिसके एंकर हैं हिंदी के वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश. शनिवार (22 Oct) को प्रसारित हुए इस कार्यक्रम का विषय था मीडिया में विज्ञापन या विज्ञापन में मीडिया’. विषय काफी मौजू और समकालीन पत्रकारिता की चिंता के केंद्र में है.
पर कार्यक्रम देख कर काफ़ी निराशा हुई. उम्मीद थी कि मंथन से कुछ निकलेगा, लेकिन निकला वही ढाक के तीन पात! हिंदी में जो इन दिनों मीडिया विमर्श है वह मंडी, दलाल स्ट्रीट, दुष्चक्र जैसे जुमलों के इधर-उधर ही घूमता रहता है. इसी तरह उर्मिलेश और जो कार्यक्रम में मौजूद गेस्ट थे इसी विमर्श के इर्द-गिर्द अपने विचारों को परोसते रहे, जो कि अंग्रेजी विमर्श में कब का बासी हो चला है. उर्मिलेश भी अंत में इसी निष्कर्ष पर पहुँचे कि बाज़ार के दुष्चक्र से मीडिया की मुक्ति नहीं’. ‘वह अभिशप्त है’. वगैरह, वगैरह.
विमर्श की चिंता के केंद्र में यह था कि विज्ञापन और ख़बर के बीच अब कोई फर्क नहीं बचा है’. ‘पत्रकारिता के सामाजिक सरोकर बिलकुल ख़त्म हो गए हैं.पेड न्यूज, एडवरटोरियल इन दिनों ख़बरों पर हावी है, आदि.
सवाल बिलकुल जायज है और यह स्थापित तथ्य है कि पेड न्यूज़, एडवरटोरियल मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिह्न बन कर खड़े हैं. और इस पर कई वरिष्ठ पत्रकार, शोधार्थी पिछले दशक से लिखते रहे हैं, बहस-मुबाहिसा करते रहे हैं
पर कार्यक्रम के दौरान इन सारे सवालों, बहस के बीच कोई आंकड़ा नहीं था (पहले कितना रेशियो विज्ञापन और खबर का था जब आठ-दस पेज का अखबार होता था, और आज 20-25 पेज के अखबार में क्या रेशियो है). कोई स्रोत नहीं थे.
1953 में ही संपादक अंबिका प्रसाद वाजपेयी विज्ञापन को समाचार पत्र की जान कह रहे थे. और हिंदी समाचार पत्रों के विज्ञापन के अभाव में निस्तेज होने का रोना रो रहे थे. 1954 में पहले प्रेस कमीशन ने अखबारों में बड़ी पूंजी के प्रवेश की बात स्वीकारी थी. पर इसका लाभ अंग्रेजी के अखबारों को मिलता रहा.
उदारीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण के बाद ही भारतीय भाषाई अखबार विज्ञापन उद्योग से जुड़ कर लोगों तक ठीक से पहुंच सके. रौबिन जैफ्री ने अपने लेखों में विस्तार से इसे रेखांकित किया है, सेवंती निनान इसे हिंदी की सार्वजनिक दुनिया का पुनर्विष्कार कहती हैं. जाहिर है इस पुनर्विष्कार में विज्ञापन, पूंजीवादी उद्योग के उपक्रम तकनीक की प्रमुख भूमिका थी. मैंने भी अपनी किताब हिंदी में समाचारमें विस्तार से रेखांकित किया है कि किस तरह भूमंडलीकरण के बाद हिंदी के अखबार जो अंग्रेजी के पिछलग्गू थे, एक निजी पहचान लेकर सामने आए हैं.
पर अपनी बहस में उर्मिलेश ना तो इस भाषाई मीडिया क्रांतिकी चर्चा करते है, ना ही अखबारों, चैनलों के प्रचार-प्रसार से आए लोकतंत्र के इस स्थानीय, देसी रूप को देखते-परखते हैं. साथ ही विज्ञापन की इस बहुतायात मात्रा से परेशानी किसे है? पाठकों-दर्शकों को कि मीडिया के विमर्शकारों को? क्या कोई सर्वे है कि असल में पाठक-दर्शक विज्ञापन चाहते हैं या नहीं. यदि हां, तो कितना विज्ञापन उपभोक्ता चाहते हैं? हम एक कंज्यूमर सोसाइटी (उपभोक्ता समाज) में रह रहे हैं, ऐसे में विज्ञापन की भूमिका को एक नए सिरे से देखने की जरूरत है, महज 'शोर' कह कर हम इसे खारिज़ नहीं कर सकते.

जब पच्चीस रुपए का अख़बार पाँच रुपए में मिल रहा हो, ज्यादातार मीडिया हाउस का कारोबार घाटे में हो, ऐसे में विज्ञापन पर निर्भरता स्वाभाविक है. पर हिंदी में मीडिया मंथन इसे एक इच्छाशक्ति से बदलने’, ‘organic approach (?)’ को बढ़ावा देने से आगे किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा. यह विमर्श मीडिया को पूंजीवाद की महत्वपूर्ण इकाई मानने से ही परहेज करता प्रतीत होता है. इसके विश्लेषण के औजार पत्रकारिता के वही गाँधीवादी, शुद्धतावादी कैनन है (गाँधी विज्ञापन के प्रति काफी सशंकित थे. वे अपने पत्रों में विज्ञापन के लिए कोई जगह नहीं छोड़ते थे, 99 प्रतिशत विज्ञापन को पूरी तरह से बकवास मानते थे) जो आज़ादी के साथ ही भोथरे हो गए थे.
(जानकी पुल पर प्रकाशित)

Sunday, October 16, 2016

अंग्रेजी टीवी न्यूज़ चैनल का हिंदीकरण

वर्ष 2001 में भारत के संसद भवन पर हुए आतंकवादी हमले के बाद भारत-पाकिस्तान सीमा रेखा पर दोनों देशों की सेनाओं का जमावड़ा था और युद्ध के बादल मंडरा रहे थे. ‘आजतक’ जैसे चैनलों ने युद्ध का समां बाँधने और युयुत्सु मानसिकता तैयार करने में एक बड़ी भूमिका अदा की थी. उसी दौरान (2001-02) हम भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), नई दिल्ली में पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहे थे. हमें तथ्य और सत्य के रिश्ते की बारीकियों को समझाया जा रहा था. सवाल करना, पूछना, कुरेदना, ख़बर की तह तक जाने की सीख दी जा रही थी. असहज तथ्यों को छुपाने की सत्ता की आदत, ख़बर निकालने के गुर, साथ ही सत्ता के साथ एक हाथ की दूरी बरतने की सलाह दी जा रही थी.
उस वक्त आज तक चैनल से जुड़े रहे दीपक चौरसिया व्याख्यान देने आए थे. बातों-बातों में उन्होंने हमसे पूछा कि- ‘आज तक की प्रसिद्धि क्यों इतनी है?’ मैंने कहा- ‘युद्ध हो ना हो, आप टैंक, मोर्टार स्टूडियो में तैनात रखते हैं और यह आम दर्शकों को लुभाता है. दर्शकों के अंदर की हिंसा को उद्वेलित करता है!’ चौरसिया साहब का चेहरा बुझ गया था. मेरे एक मित्र ने एक चिट बढ़ाई- भाई, आपको शायद नौकरी की जरुरत नहीं होगी, हमें है!
उस वक्त हमें लगता था और मीडिया के जानकार कहते थे कि टेलीविजन मीडिया अपने शैशव अवस्था में है. ये संक्रमण काल है, कुछ वर्षों में यह ठीक हो जाएगा. पंद्रह वर्ष बाद ऐसा लगता है कि हिंदी समाचार चैनलों के इस संक्रमण से अंग्रेजी के चैनल भी संक्रमित हो चुके हैं. अर्णव गोस्वामी और ‘टाइम्स नॉउ’ इसके अगुआ है. और इस बीच अर्णव के कई ‘क्लोन’ तैयार हो चुके हैं.
भारतीय भाषाई मीडिया पर राष्ट्रवादी भावनाओं को बेवजह उभारने का आरोप हमेशा लगता रहा है, जो एक हद तक सच भी है. पर मोदी सरकार के आने के बाद, ‘न्यूज नैशनलिज्म’ के इस दौर में, अंग्रेजी पत्रकारिता खास तौर से खबरिया चैनलों की भाषा और उनके तेवर देख कर लगता है कि अब सामग्री के उत्पादन और प्रसारण के स्तर पर ‘अंग्रेजी और वर्नाक्यूलर’ के बीच विभाजक रेखा मिट गई है. यह अंग्रेजी चैनलों का ‘हिंदीकरण’ है.
ऐसा नहीं है कि सत्ता या बाजार के दबाव मे खबरें अखबारों ना चैनलों से पहले नहीं गिराई जाती थी, पर हाल में जिस तरह से एनडीटीवी ने लचर तर्क देकर पूर्व गृहमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी चिदंबरम के इंटरव्यू को प्रोमो दिखाने के बाद रोका है, वह स्वतंत्र पत्रकारिता पर प्रश्नचिह्न लगाता है. गौरतलब है कि हमारी पीढ़ी हज़ार कमियों के बावजूद भारतीय टेलीविजन पत्रकारिता में एनडीटीवी को एक मानक के रूप में देखते बड़ी हुई है. एक-दो अपवाद को छोड़ कर उड़ी में हुए आतंकी हमले के बाद जिस तरह से भारतीय मीडिया सेना और सत्ता से सवालों से परहेज करता रहा है, उससे लगता है कि आने वालों दिनों में पत्रकारिता सरकारी प्रेस रीलिजों के भरोसे ही चलेगी.
पाकिस्तान और सेना के मामले में भारतीय मीडिया राज्य और सत्ता के नज़रिए से ही ख़बरों को देखने और उन्हें विश्लेषित करने को अभिशप्त लगता है.
जाहिर है कि सीमा रेखा पर किसी चैनल का कैमरा नहीं लगा है और संघर्ष के वक्त पत्रकार वहाँ नहीं थे. खबरें ‘विश्वस्त सूत्रों’ से ही मिलती है, पर विश्लेषण करने, सवाल पूछने को तो हमारे स्वनामधन्य पत्रकार-संपादक स्वतंत्र हैं!
कुछ वर्ष पहले नोम चोमस्की ने एक इंटरव्यू के दौरान कहा था कि पाकिस्तानी मीडिया भारतीय मीडिया से ज्यादा स्वतंत्र है और उन पर सत्ता का दवाब अपेक्षाकृत कम है. संभव है इसमें हमें अतिरंजना लगे. पर सर्जिकल स्ट्राइक्स के बाद जिस तरह से पाकिस्तानी की मीडिया सत्ता से सवाल पूछने की हिम्मत दिखाई है, ये सच लगता है.
हाल ही में पाकिस्तान के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग थलग होने और सेना और राजनेताओं के बीच उभरे मतभेद की खबर डॉन अख़बार के पत्रकार-विश्लेषक सिरिल अलमेइडा ने प्रकाशित की थी. इस पर पाकिस्तानी सरकार-सेना ने जो रुख अपनाया उसकी मजम्मत करने में वहाँ की अखबारों ने कोई कसर नहीं छोड़ी. मसूद अजहर और हाफिज सईद के ऊपर ‘राष्ट्रीय हितों’ को ध्यान में रखते हुए कोई कार्रवाई नहीं करने पर सवाल उठाते हुए ‘द नेशन’ ने लिखा: सरकार और सेना के अलाकमान प्रेस को लेक्चर देने की कि वह किस तरह अपना काम करे, कैसे हिम्मत कर रहे हैं? एक प्रतिष्ठित रिपोर्टर के साथ अपराधी की तरह बर्ताव करने की वे हिम्मत कैसे कर रहे है? कैसे वे हिम्मत कर रहे हैं यह बताने का कि उनके पास एकाधिकार है, योग्यता है यह घोषणा करने का कि पाकिस्तान का ‘नेशनल इंटरेस्ट’ क्या है? 

क्या ऐसी किसी प्रतिक्रिया की उम्मीद आज हम भारतीय मीडिया से कर सकते हैं? गौरतलब है कि पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सीएनएन न्यूज 18 को दिए इंटरव्यू के दौरान कहा था: मीडिया अपना काम करता है, वह करता रहे. और मेरा यह स्पष्ट मत है कि सरकारों की, सरकार के काम-काज का कठोर से कठोर analysis होना चाहिए, criticism होना चाहिए, वरना लोकतंत्र चल ही नहीं सकता है.
पर लोकतंत्र ठीक से चले इसकी फिक्र किसे है!