Wednesday, February 01, 2017

लोक की कलाकार: बउआ देवी

बउआ देवी के साथ लेखक 
मिथिला पेंटिंग की सिद्धहस्त कलाकार बउआ देवी से बात करते हुए लगता है कि हम किसी किस्सागो के सामने बैठे हैं. दिल्ली के जिस कमरे में हम बैठे थेउसकी दीवारों पर मिथिला पेंटिंग यानी मधुबनी पेंटिंग की कोई छाप भले न दिखेमगर उनकी चित्रकला और जीवन यात्रा के बारे में सुनना आह्लादकारी अनुभव है. करीब साठ वर्षों से वे इस लोकचित्र कला से जुड़ी हैं और भारत सरकार ने कला के क्षेत्र में योगदान के लिए उन्हें इस वर्ष पद्मश्री से नवाजा है. वे कहती हैं कि चित्रों को बनाते हुए मोन नहिं भरै अछि’ यानी मन नहीं भरता है.’ पिछले ही महीने वे एक बड़े कैनवास पर मिथिला पेंटिंग करके वडोदरा से लौटी हैं.

हिंदूबौद्धइस्लाम धर्मोंलोक-वेद की परंपराओं और लोक कथाओं से मिथिला की सभ्यता और संस्कृति प्रभावित रही है. बउआ देवी से कोहबरसूर्यग्रहणकालिया मर्दन और रामायण-महाभारत के किस्से सुन कर आप पल भर के लिए मिथिला के लोक में पहुंच जाते हैं. ये पारंपरिक विषय उनकी पेंटिंग के मूल में हैं. खासकर नाग-नागिन का चित्रण असंख्य बार हैपर नए रूप में. उन्होंने बताया कि इन चित्रों में आप मेरे मनोभावों को पढ़ सकते हैंअगर मैंने रोते हुए इन तस्वीरों को उकेरा हैतो संभव है कि यह आपको भी महसूस हो! मेरी आंखों के सामने विभिन्न मुद्राओं में हमेशा सांप नाचते रहते हैं. जब मैंने पूछा कि क्या आपको सांप से डर नहीं लगता?’ तो मुस्कारते हुए उन्होंने कहा कि डर तो लगता हैपर बचपन से नागदेवी विषहारा की दंत कथाओं को सुनती आई हूं.’ असल में नाग-नागिन एक प्रतीक के रूप में इन चित्रों में आते हैंजो रक्षक भी हैं और संहारक भी. नाग के चित्रण को लेकर ही उन्हें 1985-86 के दौरान राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था. उनकी पेंटिंग में रेखाओं की स्पष्टता और ज्यामितीय आकृतियों में चटक रंग (भरनी शैली में) मोहक लगता है. पर इन रेखाओं में कई बार अनगढ़पन भी दिखता हैजो आकृति निरूपण से परे जाकर इन चित्रों को एक विशिष्टता प्रदान करता है.

सत्तर के दशक में फ्रांस के कला प्रेमी और उपन्यासकार इवस विको जब मिथिला पेंटिंग के ऊपर शोध के सिलसिले में मधुबनी पहुंचे तो उन्होंने अपनी किताब द वूमेन पेंटर्स आॅफ मिथिला’ में नोट किया कि यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि यह कला भारतीय सभ्यता के सबसे उजले पक्ष को अभिव्यक्त करती है.’ विको की चर्चा करने पर बउआ देवी कहती हैं कि पहली बार विको ही उन्हें पेरिस एक प्रदर्शनी में लेकर गए थे. सत्तर के दशक में जब यह कला मिथिला की चौहद्दी से बाहर निकलीतब यूरोप और खास कर पेरिस में इस कला के कद्रदान काफी रहे. पिछले साल अक्तूबर में भी पेरिस में पेंटर्स ऑफ मिथिला’ नाम से एक प्रदर्शनी लगाई गई थीजिसमें नए कलाकारों की भागीदारी थी.

उन्हें न तो हिंदी ठीक से आती है न अंग्रेजी. जब उन्हें पता चला कि मैं खुद एक मैथिली भाषा-भाषी हूंपचहत्तर वर्ष की बउआ देवी के चेहरे पर बच्चों-सी निश्छल हंसी उभर आई. उन्होंने कहा कि मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूंबस पांचवीं तक की पढ़ाई की. अपने समाज में जो गीत-संगीतकिस्से-कहानी हमने सुने थे और बचपन में दादी-मां से जो लिखिया’ सीखा थाउसी को लेकर मैं आगे बढ़ी.’ असल में बउआ देवी को यह कला परंपरा के रूप में अपनी दादी और मां से मिली. इस कला को लेकर वे देश और विदेश के अनेक शहरों में गर्इं पर उनका मन रमता है जितवारपुर में ही. जब मैंने पिछले तीस वर्षों में जापानब्रिटेनफ्रांसस्पेन के विभिन्न शहरों के उनके अनुभव के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा- मुझे अच्छा नहीं लगा.


जिस तरह मिथिला पेंटिंग या मधुबनी पेंटिंग की रेखाओंरंगों और बनावट में एक लोक की सामूहिकता आकार लेती हुई दिखती हैउसी प्रकार उनकी बातचीत में भी मिथिला पेंटिंग की परंपरा लिपटी हुई चली आती है. बार-बार वे मिथिला पेंटिंग की कलाकार सीता देवी और जगदंबा देवी का जिक्र करती हैं. असल में गौने के बाद वे मधुबनी के नजदीक अपने ससुराल जितवारपुर आर्इंतब उन्हें इनसे परिचित होने का मौका मिला. ये दोनों भी जितवारपुर की ही थीं और सत्तर के दशक में इनकी पेंटिंग से देश-विदेश के कलाप्रेमी परिचित हो चुके थे. जहां सीता देवी को भरनी शैली में महारत हासिल थीवहीं जगदंबा देवी कचनी शैली में. 1970 में जगदंबा देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया. गंगा देवीसीता देवीजगदंबा देवी और महासुंदरी की तरह ही बउआ देवी मिथिला पेंटिंग की विशिष्ट स्वर हैं. 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी जर्मनी यात्रा के दौरान हनोवर के मेयर को बउआ देवी कीबनाई एक पेंटिंग भेंट की थीजिसमें जीवन चक्र को निरूपित किया गया है.

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में, 'लोक की कला' शीर्षक से 01.02.2017 को प्रकाशित)