Sunday, July 09, 2006
Monday, July 03, 2006
निर्वासन में निर्माण
लामा घूमते रहते हैं
आजकल
मंत्र बुदबुदाते
................
वे मंत्र नहीं पढ़ते
वे फुसफुसाते हैं-तिब्बत
तिब्बत- तिब्बत
तिब्बत- तिब्बत
तिब्बत- तिब्बत
और रोते रहते हैं
रात-रात भर
राजधानी दिल्ली की सरगर्मियों से दूर धौलाधार की पहाड़ियों में , चीड़ और देवदार के घने जंगलों से घिरा एक तिब्बत धर्मशाला के मैकलोडडगंज में स्थित है। तिब्बतियों की राजनैतिक -सांस्कृतिक आकांक्षाओं का यह केन्द्र दुनिया भर में ‘ दूसरा तिब्बत ’ के नाम से जाना जाता है । कुछ यथार्थ , कुछ स्वप्निल सा यह संसार जैसे हिमाचल की देव भूमि नाम की सार्थकता सिद्द करता है । जून महीने की इस अलसुबह में लोगों का हूजूम नम्-ग्यल् मंदिर की ओर बढ़ा चला जा रहा है। सनतफ और तोनखाक पहने लामा , हाथो में धर्मचक्र और तसबीह लिए आम जन मुख्य मंदिर में बुद्ध की विशाल प्रतिमा के सामने पूजा-अर्चना में तल्लीन हैं। ‘ ओम मणिपद्मेहुम ’ की ध्वनि पूरे परिसर में गूंज रही है। दलाई लामा का आवास इसी परिसर से सटा हुआ है । बुद्ध पूर्णिमा के विशेष महीने में उत्तर प्रदेश , बिहार से आये बौद्ध भिक्षुक यहाँ डेरा डाले हुए हैं । देशी-विदेशी सैलानियों का सैलाब फिजा में एक अजीब रंग भर रहा है । बाहर से आए सैलानियों के लिए भले ही यह दुनिया सुकून देने वाली हो पर एक लम्बे अर्से से यहाँ रह रहे तिब्बतियों के लिए घर आज भी एक सपना है । तिब्बत का नाम सुनते ही इनकी आँखों में खोये हुए हुए ख़्वाब उभर आते हैं। मैकलोडगंज बाजार के फुटपाथ पर अपनी छोटी सी दुकान लगाए वांदू ने अपने धर्मगुरू दलाई लामा की तरह पिछले 47 सालों से तिब्बत नही देखा है। वे कहते हैं “ हमको तो जाना ही चाहेगा तिब्बत वो अपना देश है । ” पर यह कैसे संभव होगा ? ‘वो गुरूजी (दलाई लामा) जैसा चाहेगा वैसा होगा ।’ अपने राजनैतिक और धर्मगुरू दलाई लामा से वांदू की तरह हजारों तिब्बती शरणार्थियों की यही उम्मीद है ।
माओत्सेतुंग की चीनी सरकार की ज्यादतियों और उसके विरोध में 10 मार्च 1959 को हुए ल्हासा विद्रोह के बाद तब 23 वर्षीय दलाई लामा ने अपने 80,000 अनुयायियों के साथ देश के बाहर शरण लेने का निश्चय किया । चीनी सत्ता के सामने किसी भी तरह के प्रतिरोध की परिणति हिंसा और जान – माल की क्षति में होती। नतीजतन अहिंसा और शांतिपूर्ण ढंग से तिब्बत समस्या के हल की कोशिश की पहल उन्होने की जिसकी आज पूरे विश्व में सराहना की जा रही है । शांति के लिए दिया गया नोबेल पुरस्कार और पिछले दिनों अमेरिका का सर्वोच्च नागरिक सम्मान कांग्रेसनल गोल्ड मेडल की घोषणा इसकी तस्दीक करती है । 29 अप्रैल 1959 को मसूरी में निष्कासन अवधि के दौरान दलाई लामा ने लोकतांत्रिक आधार पर तिब्बती सरकार का पुनर्गठन किया । तिब्बतियों के स्वतंत्रता संघर्ष को नेतृत्व देने वास्ते केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन के लिए एक संविधान बनाया गया जो तिब्बतियों से संबंधित सभी नीतियों का संचालन करता है। तिब्बत में तथा तिब्बत के बाहर रहनेवाले तिब्बतियों के लिए यह निर्वासित सरकार ही उनकी एकमात्र वैध सरकार है। मई 1960 से केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन का मुख्यालय धर्मशाला में है । धर्मशाला स्थित निर्वासित सरकार असल में तिब्बत के स्वतंत्रता की पूर्वपीठिका है । बातचीत के दौरान कई राजनैतिक कार्यकर्ता इसे ‘ एक प्रयोग ’ की संज्ञा देते हैं ।
खुद दलाई लामा इस बात को कह चुके हैं कि स्वतंत्रता के बाद पहली चुनौती अंतरिम सरकार का गठन कर एक संविधान सभा को चुनने की होगी । सभा तिब्बत के लिए लोकतांत्रिक संविधान का निर्माण कर उसे अपनायेगी । जैसे ही तिब्बती जन सरकार का चुनाव करेंगे , दलाई लामा अपने सारे राजनैतिक अधिकार उस समय की अंतरिम सरकार के अध्यक्ष को सौंप देंगे। यह कब और कैसे होगा यह अनुत्तरित सवाल धर्मशाला में हर तिब्बती के चेहरे पर लिखा हुआ दिखाई पड़ता है । तिब्बती युवा कांग्रेस , जिससे तकरीबन 30,000 सदस्य जुड़े हुए हैं , के अध्यक्ष कालसांग फुनसोक गोरदुकपा कहते हैं तिब्बत का मुद्दा उलझा हुआ है । ऐसा नहीं कि हम निराश हैं , पर इतिहास गवाह है कि संधर्ष का रास्ता कभी आसान नहीं होता । गौरतलब है कि तिब्बती युवा कांग्रेस तिब्बती सरकार की मध्यमार्गीय नीति का समर्थन नही करती है ।
पंडित नेहरू ने 1959 में लोकसभा में तिब्बत को सांस्कृतिक रूप से भारत का विस्तार कहा था। इसी बात का समर्थन करते हुए तिब्बत सरकार के वर्तमान प्रधानमंत्री समदौङ रिनपोछे कहते हैं “ तिब्बत शत – प्रतिशत भारतीय बौद्ध संस्कृति का विस्तार है । भाषा , व्याकरण , लिपि , धर्म आदि भारत से वहाँ गये । ” यही वजह है कि दलाई लामा ने दूसरे जगहों की बजाय भारत को तरजीह दी। वह कहते है , यह हमारा गुरू देश , धर्म देश है । आज भारत , भूटान , नेपाल , अमेरिका , कनाडा , स्वीटजरलैण्ड आदि देशों में तकरीबन 1 लाख 30 हजार तिब्बती रह रहे हैं , जिनमे से करीब 1 लाख पूरे भारत में फैले विभिन्न पुनर्वास शिविरों में हैं । तिब्बत और भारत के बीच आवा -जाही प्राचीन काल से रही है । तिब्बत में जो एक विशिष्ट आध्यात्मिक पद्धिति एवँ संस्कृति विकसित हुई उसका उत्स भारत रहा है । सातवीं सदी में तिब्बत में बौद्द धर्म भारत से गया । भारत के साथ तिब्बत के व्यापारिक संबंध भी रहे हैं । तिब्बत में प्राचीन काल के भारतीय ग्रंथ , शास्त्र आदि विद्यमान हैं । आधुनिक काल में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत जा कर प्राचीन आचार्यों की कई दुर्लभ ग्रंथों और पांडुलिपियों की खोज की थीं । आचार्य धर्मकीर्ति की विख्यात किन्तु लुप्त कृति ‘ प्रमाणवार्तिक ’ की मूल प्रति यायावर राहुल को तिब्बत में ही मिली थी । ऐसे ही अनेक ग्रंथ वह तिब्बत से ढूंढ लाये थे । मूल तिब्बती में सुरक्षित इन ग्रंथों के पुनरोद्धार का काम सारनाथ स्थित तिब्बती उच्च अध्ययन संस्थान में पिछले 40 सालों से हो रहा है ।
जड़ो से कट कर भी किस तरह अपनी साँस्कृतिक विशिष्टता को बचाए रखा जा सकता है धर्मशाला में रह रहे तिब्बती इसका अप्रतिम उदाहरण हैं । तिब्बतियों की आत्मीयता , निश्छलता , आपको गहरे छू जाती है । पर जैसा अमूर्त भाव तिब्बतियों को लेकर हमारे मन में दूर से देखने पर उपजता है वह नजदीक से देखने पर नहीं आता । पुराने और नये के बीच एक जद्दोज़हद है । सन् 2002 से धर्मशाला में मिस तिब्बत प्रतियोगिता का आयोजन प्रत्येक साल अक्टूबर महीने में किया जाता है । लेकिन निर्वासित सरकार इसे अपसंस्कृति कह कर खारिज़ करती है । यह प्रतियोगिता एक प्राइवेट संस्था लोबसांग वांग्यल के बैनर तले आयोजित होता है । प्रतियोगिता के लिए प्रतिभागी बमुश्किल मिल पाती है । पिछले साल महज एक ही प्रतिभागी अंत तक प्रतियोगिता में टिकी रही । आयोजक लोबसांग वांग्यल सामाजिक दबाव को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं । पर उनका कहना है कि इन प्रतियोगिताओं से तिब्बती आधुनिक संस्कृति की झलक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचेगी , साथ ही स्वतंत्र तिब्बत की हमारी माँग पुख्ता होगी । यही संस्था पिछले साल से तिब्बती फिल्म महोत्सव का भी आयोजन धर्मशाला में कर रही है । पुरानी और नई पीढ़ी के सोच और व्यवहार में अंतर राजनैतिक विचारों को लेकर भी है । पिछली पीढ़ी के लोग चीनी सरकार द्वारा नवनिर्मित 1142 किलोमीटर लंबी रेल लाईन , जो कि ल्हासा को बेजींग , संघाई जैसे शहरों से जोड़ेगी , को तिब्बतियों के खुशहाली के रूप में देखते हैं । खुद दलाई लामा इस साल 10 मार्च को दिए अपने भाषण में तिब्बती क्षेत्रों में हुए ढाँचागत विकास को सकारात्मक माना है । तिब्बती युवा कांग्रेस के दिल्ली स्थित कार्यालय में सूचना सचिव धोनधुप इससे सहमत नहीं है। उनका कहना है कि यह आर्थिक नहीं राजनैतिक निवेश है । चीनी सरकार रेलवे का इस्तेमाल इस क्षेत्र में अपनी सैन्य गतिविधियों को बढ़ाने में करेगी । विकास के नाम पर तिब्बती अस्मिता तथा संस्कृति को मिटाना चीनी सरकार की मूल मंशा है , इसलिए हम इसका विरोध कर रहे हैं । तिब्बत में चीनी सरकार की कोई भी गतविधि भारत के लिए भी परेशानी का सबब होगी । जबसे तिब्बत की भूमिका भारत और चीन के बीच बफर स्टेट ( मध्य –स्थित राष्ट्र ) की नहीं रही , तिब्बती सीमा पर अतरिक्त सुरक्षा और चौकसी की जरुरत बढ़ गई है । अंतरराष्ट्रीय संबंधो के कई विशेषज्ञ भारत और चीन के बीच कूटनीतिक दृष्टि से तिब्बत की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते रहे हैं ।
तिब्बती युवा अपने जीवन , भविष्य को लेकर किसी भी आम भारतीय की तरह ही चिंतित है । समय के साथ आगे बढ़ने की ललक इनमें है । पिछली पीढ़ी के बरक्स नई पीढ़ी पर पापुलर कल्चर का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है । रहन-सहन , खानपान और पहनावे आदि में हर कहीं बदलाव झलक जाता है । मोमो , टीमो , चाउमीन की खुशबू के साथ- साथ कान्टीनेन्टल और उत्तर तथा दक्षिण भारतीय व्यंजनों की महक रेस्तराओ में महसूस होती है । पारंपरिक परिधान के साथ - साथ पश्चिमी परिधानों का चलन बढ़ा है । सड़कों तथा बाजार में युवाओ को देशी – विदेशी संगीत पर थिरकते देखा जा सकता है । आधुनिक शिक्षा पर जोर बदलते वक्त के साथ कदमताल मिलाने की कवायद है । तिब्बती स्कूलों में पाँचवी तक की शिक्षा तिब्बती भाषा में दी जाती है , उसके बाद की पढ़ाई – लिखाई हिन्दी तथा अंग्रेजी माध्यम से होती है । दिल्ली के एक कॉल सेंटर में काम कर रही तेंजिन डोलकर बताती हैं ‘ पाँचवी तक की पढ़ाई तिब्बती भाषा के माध्यम से करने के बाद हिन्दी तथा अंग्रेजी माध्यम से हमने पढ़ाई किया था । ’ भारतीय सरकार की नौकरियों में चूँकि इनका प्रवेश नहीं होता , फलतः पढ़ाई पूरी करने के बाद जोर स्वरोजगार पर होता है । भारतीय अर्थव्यस्था में उदारीकरण के आने के बाद प्राइवेट सेक्टरों में भी तिब्बती युवाओं के लिए अवसर खुले हैं । फिर भी करीब 70 फीसदी तिब्बतियों का आर्थिक आधार ऊनी कपड़ो सहित जूते और अन्य वस्तुओं की खरीद-फरोख्त पर टिका हुआ है । इसके अलावा रेस्तरां , इंटरनेट कैफे , कृषि क्षेत्रों से जुड़े रोजगार आमदनी का मुख्य स्रोत हैं । देश – विदेश से मिलने वाली आर्थिक सहायता निस्संदेह तिब्बतियों के लिए संजीविनी का काम करती है । बहरहाल ,तिब्बतियों की कर्मठता , स्वाबलंबन शरणार्थी शब्द को झुठलाता है ।
निर्वासित सरकार का कार्यालय न्यूयार्क , पेरिस ,लंदन , टोकियो , काठमाण्डू और मास्को जैसी जगहों पर भी है । पूरे यूरोप तथा अमेरिका में बौद्द धर्म को प्रसारित करने का श्रेय दलाई लामा को जाता है । धर्मशाला में देशी – विदेशी सैलानियों का जमावड़ा पूरे साल भर रहता है । दिल्ली तथा अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त निर्वासित सरकार की संसद सदस्य बत्तीस वर्षीय तेसरिंग योदून कहती हैं ‘ भले ही आधुनिक शिक्षा- दीक्षा और पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव बाहरी तौर पर पड़ा हो , हमारी अस्मिता तिब्बती ही है । धर्म हमारे लिए आस्था और अस्मिता दोनो है । ’ एक – दो अपवादो को छोड़ आज भी आमतौर पर तिब्बती अपनी समुदाय के लोगों के बीच ही शादी करते हैं ।
तिब्बती सांस्कृतिक विशिष्टता को अक्षुण्ण बनाए रखने में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने दूरदर्शिता का परिचय दिया था । प्रधानमंत्री रिनपोछे कहते हैं ‘ उस वक्त यदि नेहरू चाहते तो आजीविका के लिए विशाल भारत में शरणार्थियों को कही भी खपा सकते थे, पर उन्होने तिब्बती शरणार्थी को समूहों में पुनर्वास करने की योजना बनाई । जिससे वे बिखर नही गये। समूहों में उनकी अस्मिता बनी रह सकी। ’ आज पूरे देश में तकरीबन 45 पुनर्वास शिविर हैं । इन शिविरों में 20-30 हजार की आबादी से लेकर 400-500 तक की आबादी बसती है । शिमला , देहरादून , दार्जिलिंग , मुण्डगोड आदि जगहों पर ये वेवतन अपनी भाषा , साहित्य , संस्कृति को सँभाले हुए संघर्ष की लौ जलाये हुए हैं । इन शिविरों में बौद्ध मंदिर , तिब्बती स्कूल , पारंपरिक तिब्बती चिकित्सा केंद्र मौजूद है। मैकलोडगंज स्थित तिब्बती बौद्ध दर्शन विश्वविद्यालय , पुस्तकालय , पारंपरिक चिकित्सा केन्द्र , प्रदर्शनकारी कला केन्द्र दूसरे तिब्बत नाम को सच साबित करता है । यहाँ पूरे भारत में फैले तिब्बतन चिल्ड्रेन्स विलेज का मुख्यालय है । जहाँ पर बच्चे तिब्बती भाषा , साहित्य , संस्कृति के अलावे आधुनिक ज्ञान – विज्ञान की शिक्षा पाते है । मैकलोडगंज के विभिन्न बौद्ध विहारों में कर्नाटक , अरूणाचल प्रदेश , लद्दाख के अलावे बुरियातिया , तुबा , मंगोलिया जैसी जगहों से बौद्ध दर्शन की पढ़ाई करने काफी बच्चे आते हैं। चीनी प्रतिनिधि मंडल के साथ बातचीत कर रहे तिब्बती तिब्बत प्रतिनिधि मंडल के सदस्य सोनम नोरबु डागपो बताते हैं किस तिब्बत से प्रत्येक महीने सैकड़ो तिब्बती पहाड़ को लाँघ कर नेपाल के रास्ते तिब्बती संस्कृति में दीक्षित होने धर्मशाला पहुँचते है । इसी तरह बौद्ध भिक्षुणी डेलिक तोसमो आठ साल पहले बौद्ध दर्शन और संस्कृति का अध्ययन करने तिब्बत से धर्मशाला आई। वे कहती हैं कि मैं रोज तिब्बत के बारे में सोचती हूँ । मेरा एक ही सपना है कि कैसे मैं फिर तिब्बत पहुँच जाऊँ । शायद यही सपना लाखों तिब्बती रोज देखते होगें ।
बेवतन सरकार
बीते 3 जून को पूरे दिन निर्वासित तिब्बती सरकार के धर्मशाला स्थित मुख्यालय में गहमागहमी रही । इस दिन सरकार के प्रधानमंत्री ( कालोन तिरपा ) पद के लिए चुनाव हुआ । 1 जुलाई को चुनाव परिणाम आया । मुकाबला वर्तमान प्रधानमंत्री समदौङ रिनपोछे और पूर्व मंत्री जूचेन थूपतेन नम्-ग्यल् बीच था । सन् 2001 में दलाई लामा की अनुशंसा पर तिब्बती संसद ने संविधान में संशोधन कर प्रधानमंत्री पद के लिए लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव की व्यवस्था की थी । सन् 2001 में पहली बार प्रधानमंत्री पद के लिए चुनाव कराया गया था । इससे पूर्व दलाई लामा जो केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन के अध्यक्ष हैं , कशाग ( निर्वाचित मंत्री परिषद ) के अध्यक्ष ( प्रधानमंत्री ) को नामांकित करते थे । इस चुनाव में तकरीबन 33 देशों में फैले निर्वासित तिब्बती ने एक व्यक्ति एक वोट ( जिनकी आयु 18 वर्ष हो ) के आधार पर अपने मत का प्रयोग किया । मुख्य चुनाव आयुक्त तासी पुनसौ कहते हैं विभिन्न देशों में मौजूद क्षेत्रीय चुनाव कार्यालय ने इस प्रक्रिया को अंजाम दिया । यह पूछने पर की चीनी सरकार इस चुनाव को किस रूप में लेगी ? उनका कहना था कि , निस्संदेह इस पूरी चुनाव प्रक्रिया पर चीनी सरकार अपनी पैनी नजर रख रही होगी ।
पिछले मार्च में निर्वासित सरकार की 14 वी लोकसभा का गठन किया गया था । कुल 46 सदस्यों वाली इस संसद के 43 सदस्य लोकतांत्रिक तरीके से निर्वासित तिब्बतियों के द्वारा चुने जाते हैं , जबकी बाकी तीन को दलाई लामा नामांकित करते हैं । संसद में तिब्बत के तीनों प्रदेशों – यूसांग , दोमे , दाते में हरेक से 10 सदस्य ( जिनमें हरेक प्रदेश से दो महिला सदस्य का होना अनिवार्य है ) और बौद्ध धर्म के चार स्कूलों तथा बोन धर्म में हरेक से दो सदस्य , दो यूरोप और एक उत्तरी अमेरिका से संसद का प्रतिनिधित्व होता है । संसद सदस्य येशी दोलमा कहती हैं इस संसद में युवाओं की भागेदारी पिछले संसद की तुलना में ज्यादा है । स्वाभाविक रूप से आम जनों की इस संसद से काफी अपेक्षा है । लेकिन जैसा कि तिब्बती युवा कांग्रेस के अध्यक्ष कालसांग कहते है ‘तिब्बती आम जन क्या चाहती है इसका कोई लेखा- जोखा संसद के पास नही है । हम सरकार की मध्यम मार्ग की नीति से सहमत नहीं है। आजादी हमारा हक है । ’
निर्वासित तिब्बती सरकार की नीति पर आम सहमति भले ना हो पर इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि निर्वासन में रह रहे तिब्बतियों का यह अहिंसात्मक संघर्ष विश्व भर में निर्वासन में रह रहे , स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत अन्य लोगों के लिए भी मिसाल है ।
तिब्बत को बँटने नहीं देंगे
निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रधानमंत्री ( कालोन तिरपा ) प्रोफेसर समदौङ रिनपोछे जाने – माने शिक्षाविद् तथा बौद्ध दार्शनिक हैं । वे तिब्बती उच्च अध्ययन संस्थान , सारनाथ के निदेशक रह चुके हैं । उनसे अरविंद दास की बातचीत के कुछ अंश :
चीनी प्रतिनिधियों के साथ तिब्बती प्रतिनिधियों की पाँच दौर की वार्ताएँ हो चुकी है , क्या नतीजे सामने आये ?
नतीजा क्या सामने आया ऐसा कहना अभी बहुत जल्दबाजी होगी । करीब आठ सालों से संपर्क टूटा हुआ था वह 2002 में जोड़ पाये हैं । पहला और दूसरा चरण जनसंपर्क और घूमने – फिरने तक सीमित था । तीसरा और चौथा चरण काफी लम्बा और गहराई लिए था । एक नतीजा यह रहा कि चीनी जनवादी गणराज्य और हमलोगो के बीच क्या मतभेद हैं यह उभर कर सामने आया । पाचवेँ दौर की बातचीत में कोई नई बात सामने नही आई । लेकिन तीसरे और चौथे दौर में जो अस्पष्टताएँ रह गई थी उसका स्पष्टीकरण देने का एक – दूसरे को मौका मिला । दोनों पक्ष एक – दूसरे को समझ गये हैं , मतभेदों को कम करने की कोशिश की जाएगी ऐसी हम आशा करते हैं ।
तिब्बत की स्वतंत्रता की जगह अब माँग स्वायतत्ता तथा स्वशासन की की जा रही है , ऐसा क्यों ?
इसके लिए इतिहास में जाना पड़ेगा । 1951 में चीन ने तिब्बत को अपने कब्जे में कर लिया । 17 सूत्री समझौता की धोषणा की गई । 1951 से 1959 तक दलाई लामा और तिब्बती चीनी नेतृत्व की और से ईमानदारी से साथ रहने के प्रयास हुए । लेकिन जैसे – जैसे चीन की शक्ति बढ़ती गई , वे 17 सूत्री समझौते को नकराते गये । अंततः दलाई लामा को अपने 80,000 अनुयायियों के साथ देश छोड़ना पड़ा । 1959 में हमने 17 सूत्री समझौते को नकारा । इसके दो कारण थे । पहला – इस समझौते को जोर – जबरदस्ती के तहत लागू किया गया था जिसका अंतरराष्ट्रीय जगत में कोई महत्व नहीं रह गया था । दूसरा चीन ने इसका पालन नही किया था । 1959 से 1979 तक तिब्बत और तिब्बत के बाहर अंतरराष्ट्रीय जगत में तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष चलते रहे । 1979 में माओ का समय समाप्त हुआ । चीनी शासनाध्यक्ष दैंग जियाओ पैंग ने दलाई लामा के सामने वापस आने का प्रस्ताव रखा साथ ही कहा कि माओ के समय में चंडाल चौकड़ी के माध्यम से जो ज्यादती हुई उसे सुधारा जायेगा । दैंग जियाओ पैंग ने कहा कि अगर स्वाधीनता की माँग दलाई लामा छोड़ दें तो अन्य मसले को बातचीत के जरिए सुलझाया जा सकता है । दलाई लामा ने सकारात्मक ढंग से उत्तर दिया कि स्वशासन के तहत साँस्कृतिक स्वायत्तता , सभ्यता को संजो कर रखने का अवसर मिलें तो चीन की छत्रछाया में रहने को तैयार हैं । 1979 से इस मध्यमार्गीय नीति का अनुसरण कर रहे हैं । जो कि आज की परिस्थति के अनुकूल है । 1951 में संपूर्ण तिब्बत स्वाधीन नहीं था , स्वशासी के रूप में रहेंगे तो संपूर्ण तिब्बत को एकजुट कर रखा जा सकता है । तिब्बत राज्य को 11 हिस्सों में बाँट कर रखा गया है उसे एकीकृत रहना चाहिए उसे पूर्ण रूप से स्वायत्तता मिलें तो हम चीन की संप्रभु सत्ता के अंतर्गत रहने को तैयार हैं ।
चीनी सरकार की इस पर क्या प्रतिक्रिया है ?
चीन ऐसा नहीं मान रहा है लेकिन उसे ऐसा मानना पडे़गा । यह माँग चीन के संविधान के अनुरूप है । अल्पसँख्यको की स्वाधीनता चीन के संविधान में उल्लेखित है । तिब्बत एक ही अल्पसँख्यक राष्ट्र है अनेक नही तो इसे क्यों बाँटा जाए । सभी अल्पसँख्यक राष्ट्र को एक साथ रहने का उल्लेख संविधान में है ऐसा हम माँग कर रहे हैं । चीनी शासन इसे कठिन समझ रहा है अगर ऐसा नहीं हुआ तो स्वाधीनता की माँग छोड़ने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है ।
तिब्बती समस्या को लेकर हाल के वर्षों में भारत सरकार की क्या नीति रही है ?
नेहरूजी जैसा निदान कर गये थे उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । जैसा भी सरकार आया किसी दल ने कोई परिवर्तन नहीं किया शायद उसकी आवश्यकता नहीं दिखाई देती । दलाई लामा प्रशासन को भारत सरकार और जनता का सहयोग शुरू से ही मिलता रहा है । कभी – कभी लगा है कि ज्यादा सुविधा मिल गई । अमेरिका , स्वीटजरलैण्ड , कनाडा जैसी जगहों पर हमें बेगानेपन का एहसास होता है। लेकिन यहाँ पर हमें कभी ऐसा नहीं लगता कि हम दूसरे देश में हैं ।
अब आपकी प्राथमाकिताएँ क्या रहेंगी ?
पिछले पाँच सालों में जो कुछ हमने किया है उसे जारी रखेंगे । पहली प्राथमिकता चीन के साथ राजनैतिक वार्ता को आगे बढ़ाना है । शरणार्थी समाज में स्थिरता लाना तथा स्थायीत्व प्रदान करना मेरी दूसरी प्राथमिकता होगी ।