Wednesday, April 12, 2017

चंपारण सत्याग्रह का कलमकार: पीर मुहम्मद मूनिस

पीर मुहम्मद मुनीस
आधुनिक भारत के इतिहास की तारीख़ में अप्रैल 1917 का भारी महत्व है. सौ साल पहले इसी महीने मोहनदास करमचंद गाँधी ने बिहार के चंपारण में जाकर सत्याग्रह की शुरुआत की थी. भारत की धरती पर अपने पहले अहिंसक सत्याग्रह के बारे में उन्होंने लिखा है- मैंने वहाँ ईश्वर का, अहिंसा का और सत्य का साक्षात्कार किया.भले ही गाँधी के लिए चंपारण अनजाना था, बिहार की जनता, चंपारण के लोक के लिए वे अपरिचित नहीं थे.

चंपारण के एक युवा पत्रकार, पीर मुहम्मद मूनिस (1882-1949) ने उन्हें चंपारण आने का निमंत्रण देते हुए एक पत्र में लिखा था- हमारी दुख भरी गाथा उस अफ्रीका के अत्याचार से, जो आप और आपके अनुयायी वीर सत्याग्रही भाइयों और बहनों के साथ हुआ- कहीं अधिक है.इस पत्रकार का नाम न तो गाँधी की आत्मकथा में मिलता है, न ही आधुनिक भारत के किसी इतिहास में. हाल के वर्षों में छिटपुट कुछ लेखों में गाँधी को चंपारण की धरती पर लाने में सूत्रधार की भूमिका में खड़े राजकुमार शुक्ल के साथ चलते-चलते इस पत्रकार की भी चर्चा कर दी जाती है. यहाँ तक कि बिहार की पत्रकारिता का इतिहासलिखने वालों की नज़र में भी वे नहीं समा पाते!

मेरे लिए आश्चर्य की बात है कि गाँधी, जो खुद एक पत्रकार भी थे, चंपारण सत्याग्रह के कलमकार, पत्रकार, सत्याग्रही पीर मुहम्मद मूनिस का उल्लेख करने से कैसे चूक गए!

मूनिस कानपुर से निकलने वाले पत्र प्रताप’ (संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी, 1913-31) के संवाददाता थे. वर्ष 1914 से वे नियमित रूप से प्रताप में पत्रों, लेखों, टिप्पणियों के माध्यम से नीलहों के आतंक, अत्याचार, किसानों की परेशानी, शोषण और उनके संघर्ष को दुनिया के सामने ला रहे थे. इनमें कई लेख उन्होंने छद्म नाम दुखी आत्मासे भी लिखा. गाँधी के चंपारण आने से पहले ही वे प्रताप में चंपारण में अंधेर’ (13 मार्च 1916), ‘चंपारण की दुर्दशा’ (10 अप्रैल 1917) आदि लेख लिख चुके थे. उन्होंने गाँधी की चंपारण यात्रा की रिपोर्ट भी प्रताप को भेजी थी. प्रसंगवश इसी दौर में बिहारीअखबार (1912) में संपादक बाबू महेश्वर प्रसाद ने चंपारण के रैयतों पर नीलहों के दमन की रिपोर्टों, टिप्पणियों को प्रकाशित किया जिसकी वजह से उन्हें अपने संपादक पद से हाथ धोना पड़ा था. मूनिस के लिए इस तरह की रिपोर्ट लिखना आसान नहीं था जिसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा.

मूनिस के लेखों का संकलन-संपादन करने वाले पत्रकार श्रीकांत लिखते हैं: मूनिस अरबी का शब्द है जिसका अर्थ है मददगार, साथी, कामरेड. मूनिसपीर मुहम्मद अंसारी का तखल्लुस (उपनाम) था. अपने नाम की सार्थकता उन्होंने जीवनपर्यंत सिद्ध की. जैसा नाम वैसा काम.’’
प्रभात प्रकाशन, दिल्ली  से प्रकाशित


जब देश में हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान की बात की जा रही थी तब मूनिस हिंदुस्तानी भाषा की वकालत कर रहे थे. बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन का 15वां अध्यक्ष उन्हें बनाया गया था और वे इस संस्थान के संस्थापकों में शामिल थे. भाषा के प्रति उनका नजरिया एकदम स्पष्ट था. भाषा ऐसी हो जिसमें लोगों की आत्मा बोले. उन्होंने हिंदी भाषा के बारे में जो बात वर्ष 1937 में कही वह आज भी मौजूं है- कुछ लोग हिंदी-भाषा को जनता की भाषा न बनाकर पंडितों की भाषा बनाने का विफल प्रयत्न कर रहे हैंजनता के लिए ऐसी भाषा का प्रयोग-लिखने और बोलने में करना चाहिए जो सरल, सुबोध और भावमय हो, जनता जिसे तुरंत समझ जाए और उसी भाषा में अपना अभिप्राय आसानी से प्रकट कर सके.भाषा के प्रति ऐसा रवैया वही अपना सकता है जिसका जुड़ाव जनता से हो. उनके लेखों में शायरों की पंक्तियाँ और रामचरित मानस के दोहे एक साथ उद्धृत मिलते हैं.

वे कलम के सिपाही होने के साथ-साथ देश के लिए लड़ने वालों के साथ खड़े थे. जब चंपारण में कांग्रेस की स्थापना वर्ष 1921 में हुई तब वे उससे जुड़े. बाद में आंदोलनों के दौरान वे जेल भी गए. जब तिनकठिया प्रथा समाप्त हो गई तो ऐसा नहीं कि वे चुप बैठ गए. उन्होंने वर्ष 1920 में चंपारण में फिर नादिरशाहीजैसे रिपोर्ताज लिखे थे. उन्होंने लिखा- कोठी के साहब बहादुर ने मोटरकार खरीदने के लिए गाँव के रैयतों पर हूबलीटैक्स लगाया.’’ वे जीवनपर्यंत गरीब किसानों, मजलूमों के साथ खड़े रहे.

मूनिस हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर थे. वर्ष 1915 में प्रताप में  हिंदू-मुस्लिम एकताशीर्षक से लिखे लेख में उनके लोकतांत्रिक विचारों की झलक मिलती है. वे लिखते हैं- ‘‘जहाँ एकता है वहाँ विरोध भी है और जहाँ विरोध है वहाँ एकता भी साथ ही साथ है. सारे जन-समुदाय का एक विचार, एक भाव और एक ख्यालात का होना सर्वथा असंभव है.इस लेख के प्रकाशन का वर्ष यदि 1915 के बदले 2015 कर दिया जाए तो ऐसा लगेगा कि वे समकालीन भारत को संबोधित कर रहे हैं!

आचार्य शिवपूजन सहाय ने मूनिस के व्यक्तित्व और कृतित्व पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि मूनिस एक निर्भीक, स्वाभिमानी, बलिदानी पत्रकार थे, पर जब विद्यार्थी जी हिंदू-मुस्लिम एकता की बलिवेदी पर शहीद हो गए तब मूनिसजी सर्वथा असहाय हो गए.जाहिर है, मूनिस, प्रताप के संपादक और स्वतंत्रता सेनानी विद्यार्थी से गहरे प्रभावित थे.

सहाय के मुताबिक मूनिस के लेखों का संग्रह जो प्रकाशक के पास था वह बिहार में 1934 में आए भूकंप में नष्ट हो गया था. मूनिस के लेखों, निजी पत्रों के अभाव में इतिहास के कई प्रश्न अनुत्तरित रह गए हैं. प्रसंगवश, 23 अप्रैल 1917 की शाम में गाँधी मूनिस की माता से मिलने बेतिया स्थित उनके घर पैदल गए. वहाँ हजारों लोग मौजूद थे, पर मूनिस की चर्चा कहीं नहीं है. क्या उस दिन मूनिस मौजूद थे? इस बात का उल्लेख न गाँधी करते हैं, न हीं राजकुमार शुक्ल? फिर वे उस दिन कहाँ थे? सवाल यह भी है कि चंपारण सत्याग्रह के इतिहास में मूनिस कहां हैं? या इसे इस तरह भी कहा जा सकता है क्या सरकार और बौद्धिक वर्ग को मूनिस की सुधि है?

Saturday, April 08, 2017

मैथिली सिनेमा को भी ‘अनारकली’ का इंतज़ार है

'अनारकली ऑफ आरा' फ़िल्म के निर्देशक अविनाश दास से एक इंटरव्यू के दौरान पूछा गया कि दरभंगा में क्या आप जानते थे कि आप फ़िल्म बनाना चाहते हैं.उनका जवाब था- हां, लेकिन तब किशोर उम्र में मैंने किसी को बताया नहीं था. मैं नहीं चाहता था कि लोग मेरे ऊपर हँसे.’ 

यह बात 80 के आख़िरी और 90 के शुरुआती वर्षों की है.
सोचिए, यदि अविनाश ने दरभंगा-मधुबनी (मिथिला इलाके) में किसी को अपनी फ़िल्म बनाने की इच्छा के बारे में बताया होता तो क्या प्रतिक्रिया होती. घर-परिवार, आस-पड़ोस के लोग हँसते और फिर दुत्कारते हुए कहतेअबारा नहितन (आवारा कही का)!
दरभंगा-मधुबनी इलाके में आज़ादी के बाद से ही फ़िल्मों के प्रति लोगों  की दीवानगी रही है (खास कर पुरुषों में), पर एक घोर वितृष्णा का भाव भी रहा है. ऐसा नहीं कि सूचना क्रांति के इस दौर में, 25-30 सालों में, इस रुख में कोई भारी बदलाव आया हो. यह दुचित्तापन आज भी कायम है. फ़िल्म निर्माण-निर्देशन या अभिनय से जुड़ना आवारगी की श्रेणी में ही आता है! फिर भी गाहे-बगाहे इस क्षेत्र से मुंबई एक्सप्रेसपकड़ने वाले लोग मिल जाते हैं. पर उनका सारा ध्यान बॉलीवुड में जोर अजमाइश में ही लगा रहा.
64 वें राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कारों से सम्मानित फ़िल्मों की सूची देख रहा था और सोच रहा था कि क्या मैथिली में बनी कोई फ़िल्म भी इस सूची में है? असल में, पिछले वर्ष मिथिला मखानको मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार मिला था और स्मृति में यह बात थी. शायद, ‘मिथिला मखानएक मात्र मैथिली में बनी फ़िल्म है जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है. अविनाश भी गीतकार के रूप में इस फ़िल्म से जुड़े थे.
पिछले दो दशकों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फ़िल्मों की धमक बढ़ी है. भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीकी, मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर और कला से जुड़े नवतुरिया लेखक-निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण-वितरण को पुनर्परिभाषित किया है. इस बार जिस फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार मिला है वह एक मराठी फ़िल्म ही है-कासव (कच्छप-कछुआ). साथ ही सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी राजेश मापुस्कर को उनकी मराठी फ़िल्म वेंटिलेटरके लिए मिला है.
जहाँ कम लागत, अपने कथ्य और सिनेमाई भाषा की विशिष्टता की वजह से मराठी फ़िल्म राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रही है, वहीं भारतीय सिनेमा के इतिहास में फुटनोट में भी मैथिली फ़िल्मों की चर्चा नहीं मिलती.  यहाँ तक की पापुलर फ़िल्मों में भी भोजपुरी फ़िल्मों की ही चर्चा होती है, जबकि दोनों ही भाषाओँ में फ़िल्म निर्माण का काम एक साथ करीब पचास-पचपन साल पहले शुरू किया गया था. जहाँ वर्तमान में भोजपुरी सिनेमा एक उद्योग का रूप ले चुकी है, वहीं मैथिली सिनेमा अपने पैरों पर भी खड़ी नहीं हो पाई है.
ममता गाबए गीतजैसी फ़िल्म एक अपवाद है, जिसे गीत-संगीत की वजह से मिथिला के समाज में आज भी याद किया जाता है. इस फ़िल्म में महेंद्र कपूर, गीता दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फ़िल्म के शीर्ष गायकों ने आवाज़ दी थी और मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने गीत लिखे थे. एक गीत विद्यापति का लिखा भी शामिल था और संगीत श्याम शर्मा ने दिया था.
प्रसंगवश, ‘ममता गाबए गीतके निर्माताओँ में शामिल केदार नाथ चौधरी इस फ़िल्म के मुहूर्त से जुड़े एक प्रंसग का उल्लेख करते हुए लिखते हैं कि जब वे फणीश्वर नाथ रेणुसे मिले (1964) तो उन्होंने मैथिली फ़िल्म के निर्माण की बात सुन कर भाव विह्वल होकर कहा था-अइ फिल्म केँ बन दिऔ. जे अहाँ मैथिली भाषाक दोसर फिल्म बनेबाक योजना बनायब तहमरा लग अबस्से आयब. राजकपूरक फिल्मक गीतकार शैलेंद्र हमर मित्र छथि (इस फ़िल्म को बनने दीजिए. यदि आप मैथिली भाषा में दूसरी फ़िल्म बनाने की योजना बनाए तो मेरे पास जरूर आइएगा. राजकपूर की फ़िल्मों के गीतकार शैलेंद्र मेरे मित्र हैं). 
इस फ़िल्म के निर्माण के आस-पास ही रेणु की चर्चित कहानी मारे गए गुलफामपर तीसरी कसमनाम से फ़िल्म बनी. इस फ़िल्म में मिथिला का लोक प्रमुखता से चित्रित है और फ़िल्म में एक जगह तो संवाद भी मैथिली में सुनाई पड़ता है!  हीरामन अनारकली ऑफ आरामें भी मौजूद है, पर उसका रूप बदला हुआ है. वह मिथिला का सीधा-साधा गाड़ीवान नहीं है, महानगर दिल्ली में एक मैनेजर है!
क्या तीसरी कसममैथिली में बन सकती थी? यदि यह फ़िल्म मैथिली में बनी होती तो शायद मैथिली सिनेमा का इतिहास कुछ और होता. आप कह सकते हैं कि यह तो ख्याम-ख्याली है. जैसे यह सोचना कि मैला आँचलउपन्यास यदि मैथिली में लिखा गया होता या नागार्जुन मैथिली को छोड़ कर हिंदी की ओर रुख नहीं करते तो मैथिली साहित्य की प्रगतिशील धारा और पुष्ट और संवृद्ध हुई होती.
ऐसा नहीं कि इन वर्षों में मैथिली में फिल्में नहीं बनी, या प्रयास नहीं किए गए. पर जो छिटपुट, इक्का-दुक्का फिल्में बनी और एक नज़र उन पर डालें तो स्पष्ट लगता है कि इन फ़िल्मों की ना कोई विशिष्ट सिनेमाई भाषा है और ना हीं इनमें कोई दृष्टि मिलती है जो मिथिला के समाज, संस्कृति को संपूर्णता में कलात्मक रूप से रच सके.
बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि जिस तरह से हिंदी सिनेमा जगत में भोजपुरी बोली-वाणी में रची-बसी अनारकली ऑफ आराको आलोचनात्मक स्वीकृति मिली है, वह अविनाश और मुंबई में रहने वाले मिथिला के कलाकारों को मैथिली में फ़िल्म बनाने को भी प्रेरित करेगी. मैथिली सिनेमा नागराज मंजुले, चैतन्य ताम्हाणे जैसे निर्देशकों का इंतज़ार बेसब्री से कर रहा है!
नोट: मैथिली के लेखक केदार नाथ चौधरी ने ममता गाबए गीतके निर्माण से जुड़ी व्यथा कथा को बेहद रोचक शैली में अपनी किताब अबारा नहितनमें चित्रित किया है.
 (जानकी पुल पर प्रकाशित)