Thursday, December 24, 2020

Glad did I live and gladly die: Obituary

(14.10.1942-15.12.2020)
पापा (अनिरुद्ध दास) चाहते थे कि हम स्कॉलर बने. वे हमेशा अपने नाती-पोते को ऑक्सफोर्ड-कैंब्रिज भेजने की बात करते थे, पर हमारे बारे में ऐसा नहीं कहते थे. वे जानते थे कि उनके पास हमारे लिए साधन नहीं थे. असल में बिहार-झारखंड में बिजली विभाग में अस्टिटेंट इंजीनियर की नौकरी करते हुए बेहद ईमानदार बने रहे. उनके जैसा ईमानदार जीवन में दो-एक लोग ही मुझे अब तक मिले हैं, जो मेरे क़रीब हैं.

बड़े भाई (Navin Das) कहते हैं कि एक बार पापा ने उनसे पूछा था कि तुम बड़े होकर घूस कमाओगे? बचपने में बड़े भाई ने कहा था-हां. पापा का जवाब था कि 'फिर मैं तुम्हारे यहाँ पानी भी नहीं पीऊंगा'.

साहित्य वगैरह नहीं लिखा, पर वे हमेशा रचनात्मक रहे. वे अपनी आत्मकथा लिखना चाहते थे. बचपन में मैं बेहद recalcitrant (हठी और जिद्दी) था. वे माँ से कहते थे कि-इसमें जो destructive urge है उसे constructive urge की तरफ मोड़ दीजिए.

वे अति संवेदनशील और आदर्शवादी थे. इतने कि मनोविज्ञान जिसे मनोविकार कहता है. हमारे लिए वे 'स्पेशल फादर' थे. 23 नवंबर को जब वे अस्पताल में भर्ती थे, तब खाना नहीं खा रहे थे. लाख कोशिश के बावजूद उन्होंने नहीं खाया. रात के तीन बजे मुझे आवाज़ देते हुए पूछा- बेटा, तू खेलैं (तुमने खाया)? मैं रो पड़ा था.

काफी संघर्ष में वे पले-बढ़े थे. बचपन में खाने-पीने की भी दिक्कत रही थी उन्हें. वे कहते थे-खाए-खर्चे जो बचे, सो धन रखिए जोड़.

वे दिल्ली में मेरे खर्च से परेशान रहते थे. मुझे और मेरे मित्रों से बार-बार कहते थे कि इसे बोलिए एक मकान ख़रीदेगा. मैं उन्हें टीज करता था कि स्कॉलर के पास पैसा नहीं रहता मकान के लिए. उन्होंने मुझे जाते-जाते एक मकान खरीद दिया. पर वे उस मकान में रहे नहीं.

वे आध्यात्मिक व्यक्ति थे. ऋत्विक थे. सबसे प्रेम करते थे, पर उनमें मोह नहीं था.

उन्हें विनय पत्रिका का यह पद-मन पछितैहै अवसर बीते, काफी पसंद था, जो उन्होंने अपने पिता से सुना-सीखा था. वे अक्सर गाते थे-सुत-बनितादि जानि स्वारथरत न करु नेह सबहीते/ अंतहु तोहिं तजेंगे पामर! तू न तजै अबहीते.

.............

In June evening this year papa was reciting a poem (requiem) . He read it in his school, taught by a teacher named Latif master saheb. I recorded it on my phone. Then I asked him why (?). Now I understand what he was saying:
Under the wide and starry sky/ dig the grave and let me lie/ glad did I live and gladly die/And I laid me down with a will

This be the verse you grave for me: Here he lies where he longed to be;/Home is the sailor, home from sea, / And the hunter home from the hill

Monday, December 21, 2020

नए साल में डिजिटल प्लेटफॉर्म से उम्मीदें

 


बॉलीवुड के लिए यह साल चतुर्दिक निराशा का रहा. बॉक्स ऑफिस पर मंदी छाई रही. अनेक कलाकारों की असामयिक मौत का सदमा रहा. ड्रग्स लेने के आरोपों की वजह से कई सितारे सुर्खियों में रहे. चारों तरफ फैली मायूसी के बीच जाहिर है नए साल से काफी उम्मीदें हैं.

केपीएमजी की एक रिपोर्ट के मुताबिक मौजूदा वित्त वर्ष में मीडिया और मनोरंजन उद्योग के कुल राजस्व में करीब बीस प्रतिशत की गिरावट की संभावना है. हालांकि 1.8 ट्रिलियन रुपए के इस उद्योग में प्रिंट, टेलीविजन और फिल्म उद्योग के मुकाबले डिजिटल और ऑन लाइन प्लेटफार्म में वृद्धि देखी गई है. टीकाकरण की वजह से कोरोना महामारी का भय भले ही नए साल में कम होगा, पर लोगों की कुछ आदतें जारी रहेंगी. इनमें डिजिटल मीडिया का उपभोग भी शामिल है.

नए साल में एक बड़ा दर्शक वर्ग सिनेमा हॉल के बरक्स डिजिटल प्लेटफार्म पर रिलीज होने वाली फिल्मों और वेब सीरिज की ओर नजरे टिकाए हुए मिलेंगे. उम्मीद की जानी चाहिए कि विविध विषयों की ओर निर्माता-निर्देशकों का ध्यान जाएगा. हालांकि वेब सीरिज से जुड़े कलाकारों और निर्माताओं-निर्देशकों की चिंता के केंद्र में केंद्र सरकार की वह अधिसूचना रहेगी जिसके तहत ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल और ऑनलाइन कंटेंट प्रोग्राम को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत लाया गया है. देश में प्रिंट मीडिया के नियमन के लिए प्रेस आयोग और समाचार चैनलों के लिए न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन और विज्ञापन के नियमन के लिए एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड्स काउंसिल ऑफ इंडिया है. इसी तरह  फिल्मों के लिए सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन है, पर डिजिटल प्लेटफॉर्म के नियमन के लिए देश में कोई कानून या स्वायत्त संस्था नहीं है.  इस अधिसूचना की जद में नेटफ्लिक्स, हॉटस्टार, अमेजन प्राइम आदि आएँगे. नियमन का स्वरूप क्या होगा इस बारे में अभी स्पष्टता नहीं है.

पिछले दशक में ऑनलाइन मीडिया का अप्रत्याशित विस्तार देखा गया है. यह सच है कि डिजिटल प्लेटफॉर्म पर दिखाए गए कुछ वेब सीरीज में जिस तरह हिंसा का चित्रण या गाली गलौज का इस्तेमाल हुआ उसे लेकर नागरिक समाज और सामान्य दर्शकों में रोष है. सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में ऑनलाइन माध्यमों के नियमन की जरूरत पर जोर दिया था. पर रचनात्मक स्वतंत्रता के लिए नियंत्रण या नियमन की कार्रवाई अवरोध ही साबित होंगे. पिछले कुछ वर्षों में जिस तरह से मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर हमले हुए हैं इससे बहस-मुबाहिसा और रचनात्मकता का दायरा सिकुड़ा है. ऑनलाइन न्यूज़ पोर्टल और डिजिटल प्लेटफॉर्म से जुड़े लोग इसे सेंसरशिप की ओर बढ़ते कदम के रूप में देख रहे हैं.

पिछले महीने इन सबके बीच वर्ष 2019 में नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई रिची मेहता की वेब सीरीज दिल्ली क्राइम को बेस्ट ड्रामा सीरिज में प्रतिष्ठित एमी पुरस्कार से नवाजा गया. दिल्ली में वर्ष 2012 में चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार की घटना पर यह वेब सीरीज आधारित है. जघन्य अपराध के बाद संवेदनशीलता के साथ पुलिस की कार्रवाई को यह हमारे सामने लाती है. इस अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार से वेब सीरिज निर्माताओं-निर्देशकों की हौसला अफजाई हुई है. उम्मीद है कि नियमन/नियंत्रण की कोई कार्रवाई करने से पहले सरकार डिजिटल प्लेटफार्म की संभावना और सफलता को भी ध्यान में रखेगी.

(प्रभात खबर 20.12.2020) 

Saturday, December 05, 2020

Maithili Cinema: In search of a home

Pahari Sanyal in Vidyapati (1937). Courtesy National Film Archive of India.

The New Theatres classic Vidyapati, directed by Devaki Bose and exploring the life and times of the fourteenth-century court poet Vidyapati, is remembered even today for its sonorous songs and melodious music. Surprisingly, the song lyrics draw no inspiration from the renowned poet’s words. Nor is the film in Maithili, the language in which he communicated. Rather, the 1937 film is in Hindi and Bengali.

Maithili cinema had to wait until the 1960s to begin its journey in Indian cinema. Kanyadan from 1965 is credited as the first movie in Maithili. Phani Mazumdar’s film is based on Harimohan Jha’s novel of the same name. The theme of a mismatched married couple is depicted through a difference in language – the characters speak Maithili and Hindi, respectively. Noted Hindi writer Phanishwar Nath “Renu” wrote the dialogue for Kanyadan.

Naihar Bhel Mor Sasur, directed by C Parmanand, might have been released earlier than Kanyadan had it not faced production obstacles. Ultimately released in the mid-1980s under the title Mamta Gabay Geet, the movie is still remembered for its dialogue and songs, by such leading playback singers as Geeta Dutt, Mahendra Kapoor and Suman Kalyanpur.

The list of Maithili-language movies is sparse. It includes Jai Baba Vaidyanath (Madhusravani), Sasta Jingi Mahg SenurKakhan Harb Dukh Mor and Ghogh Me Chand. These productions revolved around social themes and used the narrative idioms of mainstream Hindi cinema.

Maithili was included in the Eighth Schedule of the Indian Constitution in 2004. The Mithila region, which encompasses parts of present-day Bihar and Nepal, is known for its language, literature and culture. And yet, it is Bhojpuri, the language spoken in Uttar Pradesh, Bihar and Jharkhand, that has produced a more vibrant and sustainable cinema. Any discussion of the cinema of Bihar begins and ends with Bhojpuri films.

Production on the first Bhojpuri film Ganga Maiya Tohe Piyari Chadhaibo began at around the same time as Mamta Gabay Geet (which was delayed by at least two decades). Kedarnath Chaudhary, one of the producers of Mamta Gabay Geet, said, “Bhojpuri films reached their zenith while Maithili remains at the bottom.” 

The 1966 Hindi-language film Teesri Kasam, directed by Basu Bhattacharya and produced by the lyricist Shailendra, was based on the short story Mare Gaye Gulfam by Phanishwar Nath ‘Renu’. Could Teesri Kasam have been made in Maithili? The movie, starring Waheeda Rehman and Raj Kapoor, depicts Mithila’s culture and has scenes containing Maithili dialogue. Kedarnath Chaudhary said, “If Teesri Kasam had been made in Maithili, the trajectory of Maithili films would have been very different.”

A strong culture ofmovie-watching existed in Bihar right from the earliest years of cinema. Patna still has Elphinstone Theatre, which came up in 1919 and started off by screening silent films. And yet, not only have there been relatively fewer films in the local languages, but also the existing productions are poorly preserved. Prints of the first Maithili film Kanyadan are unavailable today – even the National Film Archive of India in Pune doesn’t have a copy.

Regional cinema has managed to conquer new territories in the past two decades. Films made in Marathi, Punjabi and Malayalam films have been popular beyond their language markets. There is a glimmer of hope for Maithili films, represented by Nitin Chandra’s Mithila Makhan (2015), Roopak Sharar’s Premak Basat (2018) and Achal Mishra’s Gamak Ghar (2019).

Mithila Makhan is the only film to have won a National Award for Best Film in the Maithili language. Gamak Ghar has received widespread critical acclaim and has travelled to several film festivals. Yet, distributors have been largely unenthusiastic about backing Maithili films. Director Nitin Chandra said, “Distributors do not even know that there is a language called Maithili in which films are made.” After streaming services rejected Mithila Makhan, he released the film this year on his own online platform, Bejod.in. Clearly, the story hasn’t changed too much since Mamta Gabay Geet. It appears that all these years later, Maithili cinema is wandering in search of a home.

 (Scroll.in, 5th December 2020)

(All these years later, Maithili cinema is still in search of a home)

Sunday, November 29, 2020

छोटे मुंह बड़ी बात करती फिल्में


छोटी फिल्में ‘छोटे मुंह बड़ी बात’ करती है. फीचर फिल्मों की तरह इनके पास दो-ढाई घंटे का समय नहीं होता. बमुश्किल पच्चीस-तीस मिनट में लेखक-निर्देशक को अपनी बात कहनी होती है, अभिनेता को अपनी कला का प्रदर्शन करना होता है. जाहिर है, शार्ट फिल्म फिल्मकारों के लिए एक चुनौती है. आम तौर पर फिल्म स्कूल के छात्र ‘डिप्लोमा फिल्मों’ में इस विधा का इस्तेमाल करते रहे हैं. विधु विनोद चोपड़ा, श्रीराम राघवन जैसे चर्चित फिल्म निर्देशकों की शार्ट डिप्लोमा फिल्मों को लोग आज भी याद करते हैं. पिछले दशक में इंटरनेट और यू- ट्यूब जैसे डिजिटल प्लेटफॉर्म के उभार ने शार्ट फिल्म को एक अलग मंच दिया है, जहाँ कई पुराने और नए फिल्मकार अपनी फिल्मों को प्रदर्शित कर रहे हैं. कई प्रयोगशील फिल्मकारों की फिल्में भी यहाँ दिख जाती है.

पिछले दिनों ‘धर्मशाला इंटरनेशल फिल्म फेस्टविल’ का ऑनलाइन आयोजन हुआ, जिसमें देश-विदेश की फीचर फिल्मों के साथ डॉक्यूमेंट्री और शार्ट फिल्मों का भी प्रदर्शन किया गया. ख़ास कर दो शार्ट फिल्म ‘बिट्टू’ और ‘लाली’ की चर्चा हुई. प्रसंगवश, अभिरूप बसु के निर्देशन में बनी ‘लाली’ का प्रीमियर इसी फिल्म समारोह में किया गया. करीब 35 मिनट की यह फिल्म पंकज त्रिपाठी के एकल अभिनय के लिए विशेष रूप से उल्लेखनीय है. उन्होंने अपनी अभिनय क्षमता को एक बार फिर से साबित किया है. बिना किसी संकोच के कहा जा सकता है कि पंकज त्रिपाठी हमारे समय के एक ऐसे फिल्म अभिनेता हैं जिनसे आने वाले वर्षों में काफी उम्मीदें हैं.

इस्त्री करने वाले एक प्रवासी कामगार के अकेलेपन और प्रेम से बिछुड़ने की पीड़ा बिना किसी शोर-शराबे के इस फिल्म में अभिव्यक्त हुई है. बहिर्मन के शोर और अंतर्मन के मौन को पंकज त्रिपाठी ने अपने हाव-भाव से बखूबी पकड़ा है. त्रिपाठी के सधे अंदाज में स्मृतियों का गंध साथ-साथ लिपटा हुआ चला आता है. ‘तीसरी कसम’ फिल्म के हीरामन गाड़ी वाले और हीराबाई के बीच पनपे प्रेम की एक झलक इस फिल्म में दिखती है, हालांकि शार्ट फिल्म होने की वजह से फिल्म विस्तार में नहीं जाती. यहाँ दर्शकों को अपनी कल्पना से बिंदुओं को जोड़ना पड़ता है, खाली जगहों को भरना होता है.

जहाँ ‘लाली’ एक काल्पनिक कथा को अपना आधार बनाती है, वहीं ‘बिट्टू’ एक यर्थाथ घटना पर आधारित है. युवा निर्देशिका करिश्मा देव दुबे ने इस फिल्म में स्कूलों में दोपहर के समय दिए जाने वाले भोजन के माध्यम से एक त्रासदी को दिखाया है. वर्ष 2013 में बिहार के छपरा ज़िले में मध्याह्न भोजन योजना कार्यक्रम के तहत जहरीले खाना खाने से 23 बच्चों की मौत हो गई थी. अलग-अलग स्वभाव के आठ वर्षीय बिट्टू और चांद के बीच दोस्ती और बाल-सुलभ नोक-झोंक को सहज भाव से फिल्म सामने लाती है. शिक्षक और बच्चों के आपसी संबंधों के कुछ दृश्य मर्म को छूते हैं.

इस फिल्म में भी अकस्मात बिछुड़ने की पीड़ा है. यह पीड़ा त्रासदी के बाद बिट्टू के मौन के रूप में हमारे सामने आती है. बिना कुछ कहे यह फिल्म सरकारी काम-काज के तरीकों, समाज में हाशिए पर रहने वाले बच्चों और उनके भविष्य का सवाल हमारे सामने छोड़ जाती है. साथ ही यह सवाल मन में उठता है इन त्रासदियों के लिए कौन जिम्मेदार है? 

(प्रभात खबर, 29 नवंबर 2020)

Sunday, November 15, 2020

'देस' की तलाश में मैथिली सिनेमा

वर्ष 1937 में ‘न्यू थिएटर्स’ स्टूडियो की ‘विद्यापति’ फिल्म खूब सफल रही थी. देवकी बोस के निर्देशन में बनी यह फिल्म खास तौर से गीत-संगीत के लिए आज भी याद की जाती है. मैथिली के आदि कवि विद्यापति (1350-1450) के गीतों की संगीतात्मकता प्रसिद्ध है. आश्चर्य की बात यह है कि इस फिल्म में गीत विद्यापति के नहीं थे, न हीं फिल्म की भाषा ही मैथिली थी. यह फिल्म हिंदी-बांग्ला में बनी थी. मिथिला अपनी भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए पूरी दुनिया में जाना जाता है, पर आधुनिक समय में फिल्मों में इस समाज की लगभग अनुपस्थिति एक प्रश्नचिह्न बनकर खड़ी है.

जहाँ बोलती हिंदी फिल्मों के साथ-साथ ही बांग्ला और असमिया सिनेमा विकसित होनी शुरू हुई, वहीं मैथिली में सिनेमा का इतिहास आजादी के बाद 60 के दशक में शुरु होता है. ‘नैहर भेल मोर सासुर’ नाम से पहली मैथिली फिल्म वर्ष 1963-64 में बननी शुरु हुई, जिसके निर्देशक सी परमानंद थे. बाद में यह फिल्म काफी कठिनाइयों को झेलती हुई ‘ममता गाबय गीत’ नाम से 80 के दशक के मध्य में रिलीज हुई थी, जिसे लोग गीत-संगीत और मैथिली संवाद के लिए आज भी याद करते हैं. इस फ़िल्म में महेंद्र कपूर, गीता दत्त और सुमन कल्याणपुर जैसे हिंदी फ़िल्म के शीर्ष गायकों ने आवाज़ दी थी और मैथिली के रचनाकार रविंद्र ने गीत लिखे थे. ‘अर्र बकरी घास खो, छोड़ गठुल्ला बाहर जो’, ‘भरि नगरी मे शोर, बौआ मामी तोहर गोर’ के अलावे विद्यापति का लिखा-‘माधव तोहे जनु जाह विदेस’ भी इस फिल्म भी शामिल था.

मैथिली में पहली फिल्म होने का श्रेय ‘कन्यादान’ फिल्म को है. वर्ष 1965 में फणी मजूमदार ने इस फिल्म का निर्देशन किया था. हरिमोहन झा के चर्चित उपन्यास ‘कन्यादान’, जिस पर यह फिल्म आधारित है, का रचनाकाल वर्ष 1933 का है. इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को भाषा समस्या के माध्यम से चित्रित किया गया है. चर्चित लेखक फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ इस फिल्म से संवाद लेखक के रूप में जुड़े थे. फिल्म में मैथिली के साथ हिंदी का भी प्रयोग था. इस फिल्म के गीत-संगीत में प्रसिद्ध लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी का भी योगदान था. इसके बाद ‘जय बाबा वैद्यनाथ (मधुश्रावणी)’ फिल्म 70 के दशक के आखिर में प्रदर्शित हुई लेकिन इस फिल्म में भी मैथिली के साथ हिंदी का प्रयोग मिलता है.

इन दो फिल्मों के अलावे ‘सस्ता जिनगी महग सेनूर’, 'कहन हरब दुख मोर' ‘घोघ में चाँद’ आदि इक्का-दुक्का फिल्में प्रदर्शित हुई, जिसकी छिटपुट चर्चा की जाती रही है. हालांकि इनमें कोई आलाोचनात्मक दृष्टि या सिनेमाई भाषा नहीं मिलती है, जो मिथिला के समाज, संस्कृति को संपूर्णता में कलात्मक रूप से रच सके. इनमें से ज्यादातर फिल्में सामाजिक विषयों के इर्द-गिर्द ही रही, एक-दो फिल्में धार्मिक-पौराणिक महत्व के रहे.  

जब भी बिहार के फिल्मों की बात होती है, भोजपुरी सिनेमा का ही जिक्र किया जाता है. मैथिली फिल्मों की चलते-चलते चर्चा कर दी जाती है. जबकि पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मइया तोहे पिअरी चढैबो’ और ‘ममता गाबए गीत’ का रजिस्ट्रेशन ‘बाम्बे लैब’ में वर्ष 1963 में ही हुआ और फिल्म का निर्माण कार्य भी आस-पास ही शुरू किया गया था. इस फिल्म में निर्माताओं में शामिल रहे केदारनाथ चौधरी बातचीत के दौरान हताश स्वर में कहते हैं-‘भोजपुरी फिल्में कहां से कहां पहुँच गई और मैथिली फिल्में कहां रह गई!’ लेकिन, यहां इस बात का उल्लेख जरूरी है कि भोजपुरी और मैथिली फिल्मों के अतिरिक्त साठ के दशक में फणी मजूमदार के निर्देशन में ही ‘भईया’ नाम से एक मगही फिल्म का भी निर्माण किया गया था. पचास-साठ साल के बाद भी मैथिली और मगही फिल्में विशिष्ट सिनेमाई भाषा और देस की तलाश में भटक रही है.

केदार नाथ चौधरी ‘ममता गाबय गीत’ फ़िल्म के मुहूर्त से जुड़े एक प्रंसग का उल्लेख करते हुए अपनी किताब ‘आबारा नहितन’ में लिखते हैं कि जब वे फणीश्वर नाथ ‘रेणु’ से मिले (1964) तो उन्होंने मैथिली फ़िल्म के निर्माण की बात सुन कर भाव विह्वल होकर कहा था-‘अइ फिल्म केँ बन दिऔ. जे अहाँ मैथिली भाषाक दोसर फिल्म बनेबाक योजना बनायब त’ हमरा लग अबस्से आयब. राजकपूरक फिल्मक गीतकार शैलेंद्र हमर मित्र छथि (इस फ़िल्म को बनने दीजिए. यदि आप मैथिली भाषा में दूसरी फ़िल्म बनाने की योजना बनाए तो मेरे पास जरूर आइएगा. राजकपूर की फ़िल्मों के गीतकार शैलेंद्र मेरे मित्र हैं)’. 

इस फ़िल्म के निर्माण के आस-पास ही रेणु की चर्चित कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ नाम से फ़िल्म बनी. इस फ़िल्म में मिथिला का लोक प्रमुखता से चित्रित है और फ़िल्म में एक जगह तो संवाद भी मैथिली में सुनाई पड़ता है. क्या ‘तीसरी कसम’ मैथिली में बन सकती थी? केदारनाथ चौधरी कहते हैं कि ‘निश्चित रूप से. यदि ‘तीसरी कसम’ फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्म का स्वरूप  बहुत अलग होता.’ यह सवाल भी सहज रूप से मन में उठता है कि यदि ‘विद्यापति’ फिल्म मैथिली में बनी होती तो मैथिली फिल्मों का इतिहास कैसा होता?

फिल्म नगरी बंबई में शुरुआती दौर से बिहार के कलाकार मौजूद रहे हैं और विभिन्न रूपों में अपना योगदान देते रहे हैं. प्रसंगवश, ‘ममता गाबय गीत’ के निर्देशक सी परमानंद की एक छोटी सी भूमिका ‘तीसरी कसम’ फिल्म में थी. साथ ही बिहार में भी सिनेमा देखने की संस्कृति शुरुआती दौर से रही है. भारतीय सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में जब भी पुरोधाओं का जिक्र किया जाता है, तब दादा साहब फाल्के के साथ हीरा लाल सेन, एसएन पाटनकर और मदन थिएटर्स की चर्चा होती है. मदन थिएटर्स के मालिक थे जेएफ मदन. एल्फिंस्टन बायस्कोप कंपनी इन्हीं की थी. पटना स्थित एल्फिंस्टन थिएटर (1919), जो बाद में एल्फिंस्टन सिनेमा हॉल के नाम से मशहूर हुआ, में पिछली सदी के दूसरे-तीसरे दशक में मूक फिल्में दिखायी जाती थीं. आज भी यह सिनेमा हॉल नये रूप में मौजूद है.

पर जहां तक सिनेमा के सरंक्षण और पोषण का सवाल है, बिहार का वृहद समाज और सरकार उदासीन ही रहा है. एक उदाहरण यहाँ पर देना प्रासंगिक होगा. पहली फिल्म ‘कन्यादान’ के प्रिंट आज अनुपलब्ध हैं. इस सिलसिले में जब मैंने पुणे स्थित ‘नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया’ से संपर्क साधा तो उनका कहना था कि उनके डेटा बैंक में ऐसी कोई फिल्म नहीं है. मनोरंजन के साथ-साथ फिल्म का सामाजिक और ऐतिहासिक महत्व होता है. सिनेमा समाज की स्मृतियों को सुरक्षित रखने का भी एक माध्यम है. फिल्मों के खोने से आने वाली पीढ़ियाँ उन संचित स्मृतियों से वंचित हो जाती है. 


पिछले दो दशकों में भारतीय सिनेमा में क्षेत्रीय फ़िल्मों की धमक बढ़ी है. भूमंडलीकरण के साथ आई नई तकनीकी, मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर और कला से जुड़े नवतुरिया लेखक-निर्देशकों ने सिनेमा निर्माण-वितरण को पुनर्परिभाषित किया है. जहाँ कम लागत, अपने कथ्य और सिनेमाई भाषा की विशिष्टता की वजह से मराठी, पंजाबी, मलयालम फ़िल्में राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय जगत में अपनी एक अलग पहचान बनाने में सफल रही है, वहीं भारतीय सिनेमा के इतिहास में फुटनोट में भी मैथिली फ़िल्मों की चर्चा नहीं मिलती.  यहाँ तक कि पापुलर फ़िल्मों में भी भोजपुरी फ़िल्मों की ही चर्चा होती है.

हाल के वर्षों में नितिन चंद्रा निर्देशित ‘मिथिला मखान’ (2015), रूपक शरर निर्देशित ‘प्रेमक बसात’ (2018), और अचल मिश्र निर्देशित ‘गामक घर’ (2019) की मीडिया में चर्चा हुई है. ‘मिथिला मखान’ मैथिली में बनी एक मात्र ऐसी फ़िल्म है जिसे मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है. साथ ही ‘गामक घर’ फिल्म को भी फिल्म समारोहों में सराहा गया और यह भी पुरस्कृत हुई. ‘गामक घर’ एक आत्म-कथात्मक फिल्म है, जिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है. यह फिल्म एक लंबी उदास कविता की तरह है. मैथिली सिनेमा में ‘गामक घर’ जैसी फिल्मों की परंपरा नहीं मिलती. निर्देशक ने घर के कोनों को इतने अलग-अलग ढंग से अंकित किया है कि वह महज ईंट और खपरैल से बना मकान नहीं रह जाता. वह हमारे सामने सजीव हो उठता है. डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की शैली एक साथ यहां मिलती है. इस तरह की फिल्में मैथिली सिनेमा को कला प्रेमियों और देश-विदेश के समीक्षकों की नजर में लाने में कामयाब है.

हालांकि इन फिल्मों को लेकर वितरकों में कोई  उत्साह नहीं है. नितिन चंद्रा कहते हैं कि ‘वितरक यह भी नहीं जानते कि मैथिली नाम से कोई भाषा है जिसमें फिल्में बनती हैं. हमने इस भाषा में अब तक कुछ खास बनाया ही नहीं!’ वे कहते हैं कि यहाँ तक कि ऑनलाइन प्लेटफार्म (हॉटस्टार, नेटफ्लिक्स, अमेजन प्राइम, जी 5 आदि) पर भी मिथिला मखान को कोई प्रदर्शित करने को राजी नहीं हुआ तब उन्होंने खुद इसे एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर रिलीज करने का फैसला किया. नितिन चंद्रा इस फिल्म के प्रचार-प्रसार के लिए लोगों से चंदा (क्राउड फंडिंग) भी मांग रहे हैं, पर परिणाम उत्साहजनक नहीं रहा है. ‘ममता गाबय गीत’ को भी अपने जमाने में वितरक नहीं मिल पाया था. ऐसा लगता  है मैथिली सिनेमा इन दशकों में एक बाजार विकसित करने में नाकाम रहा है. मिथिला में कोई माहौल नहीं दिखता. 

दरभंगा-मधुबनी जैसी जगहों पर दो दशक पहले तक सिनेमा प्रदर्शन के लिए जो सिनेमाघर थे वे भी लगातार कम होते गए. जो भी सिनेमाघर बचे हैं वहाँ भोजपुरी फिल्मों का प्रदर्शन ही होता है. मिथिला से बाहर देश-विदेश में जो मैथिली भाषा-भाषी हैं वे अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर उत्साही नहीं हैं, भले ही वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में इसे शामिल कर लिया गया हो. हिंदी के वर्चस्व को लोगों ने बिना किसी दुविधा के स्वीकार कर लिया है. मनोरंजन के लिए ये बॉलीवुड की ओर ही देखते रहते हैं और इनमें मैथिली सिनेमा को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखती हैं. साथ ही मैथिली भाषा पर एक जाति विशेष की भाषा होने का आरोप लगता रहा है. क्या मैथिली सिनेमा का विकास नहीं होने की एक वजह यह भी तो नहीं?

(प्रभात खबर, दीपावली विशेषांक 2020 में प्रकाशित)

Sunday, November 08, 2020

अदाकारों के लिए स्पेस रचता वेब सीरीज

कोविड के दौरान इस साल बड़े परदे पर सन्नाटा रहा और डिजिटल प्लेटफार्म पर वेब सीरीज मनोरंजन का मुख्य जरिया बनकर उभरे हैं. अपने घरों में कैद लोगों ने वेब सीरीज को हाथों हाथ लिया. पिछले दिनों अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई ‘मिर्जापुर’ सीजन दो की खूब चर्चा हो रही है. उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में अवस्थित यह सीरीज बाहुबली, अवैध धंधे में लिप्त कारोबारी और राजनेताओं के आपसी गठजोड़ को यर्थाथपरक ढंग से सामने लेकर आती है. आर्थिक पिछड़ेपन और अपराध को अनुराग कश्यप ने भी अपनी चर्चित फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ में खूबसूरती से चित्रण किया था. हालांकि वेब सीरीज होने की वजह से मिर्जापुर का कैनवास बड़ा है, जिससे देश-काल और परिवेश उभर कर सामने आया है.

‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ फिल्म की तरह ही मिर्जापुर में हिंसा के चित्रण और गाली-गलौज से भरी भाषा को लेकर दर्शकों ने सोशल मीडिया पर अपना रोष व्यक्त किया है. ‘मिर्जापुर’ सीजन एक (2018) में भी हिंसा का अतिरंजित चित्रण था. सीजन दो के एक एपिसोड में आपसी संवाद में एक पात्र टिप्पणी करते हुए कहती है- ‘तुम्हारी भाषा बहुत गंदी है’. इस तरह की भाषा की शुरुआत नेटफ्लिक्स की पहली वेब सीरीज ‘सेक्रेड गेम्स’ से ही हो गई थी. सिनेमा में हिंसा के चित्रण, पात्रों की ‘अश्लील भाषा’ को लेकर वाद-विवाद पुराना है और पक्ष-विपक्ष में लोग बहस करते रहे हैं. इस बात से इंकार नहीं कि समकालीन समाज और राजनीति के केंद्र में हिंसा का सवाल है, जिससे वेब सीरिज अछूती नहीं है. पर ‘मिर्जापुर’ के कुछ एपिसोड में हिंसा के दृश्य आरोपित हैं. बिना इन दृश्यों के भी इस वेब सीरीज को पूरा किया जा सकता था.

बॉलीवुड में लंबे समय तक कुछ ‘फॉर्मूले’ के तहत ही फिल्में बनती रही हैं. डर इस बात का है कि आने वाले समय में वेब सीरीज कहीं ‘हिंसा-अपराध-चटपटे संवाद’ के ‘फार्मूले’ में फंस कर नहीं रह जाए. ऐसा भी नहीं कि वेब सीरीज में विषयों की विविधता नहीं है. इस साल आए वेब सीरिज ‘बंदिश बैंडिट्स’ में जहाँ संगीत केंद्र में है, वहीं ‘पंचायत’ में ग्रामीण जीवन.

भारत में वेब सीरीज की शुरुआत वर्ष 2014 से कही जाती है. नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई ‘सेक्रेड गेम्स (2018)’ से आम दर्शकों के बीच वेब सीरीज की पहुँच बढ़ी और फिर देखा-देखी विभिन्न प्लेटफॉर्म पर तेजी से फैली. बहरहाल, वेब सीरीज अदाकारों के लिए मुफीद रहे हैं. एक नया स्पेस उन्हें मिला है और आने वाले समय में नए कलाकारों से उम्मीदें भी बंधी है. एक तरफ नसीरुद्दीन शाह, कुलभूषण खरबंदा, रघुवीर यादव, नीना गुप्ता, पंकज त्रिपाठी आदि जैसे मंजे कलाकार वेब सीरीज में इस साल नजर आए, वहीं ‘मिर्जापुर’ में दिव्येंदु शर्मा, श्वेता त्रिपाठी, प्रियांशु पेनयुली, ‘पाताल लोक’ में जयदीप अहलावत, ‘पंचायत’ में जितेंद्र कुमार, ‘शी’ में विजय वर्मा जैसे कलाकारों को आम दर्शकों ने अलग ने नोटिस किया है. जयदीप अहलावत और विजय वर्मा जैसे कलाकार आठ-दस वर्षों से बॉलीवुड में संघर्ष करते रहे हैं.

इन वेब सीरीज की पटकथा में कई ‘सबप्लॉट’ रचे होते हैं. मुख्य अभिनेताओं के अतिरिक्त छोटी भूमिकाओं में आए अदाकारों को भी अपनी प्रतिभा दिखाने का भरपूर मौका मिला है. वेब सीरिज की चर्चा इन अदाकारों के लिए खास तौर पर की जानी चाहिए.

(प्रभात खबर, 8 नवंबर 2020)

Wednesday, October 28, 2020

सिनेमा हॉल खुले, पर दर्शक कहां हैं


करीब सात महीने के बाद देश में सिनेमाघर खुले हैं, लेकिन बॉक्स ऑफिस पर ‘वीरानी सी वीरानी’ है. बॉक्स ऑफिस के लिहाज से दो प्रमुख राज्य महाराष्ट्र और तमिलनाडु में सिनेमाघर अभी भी नहीं खुले हैं.


दिल्ली-एनसीआर के सिनेमाघरों में ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ और नए ‘गाइडलाइंस’ का पालन किया जा रहा है, पर दर्शक नज़र नहीं आ रहे. पीवीआर जैसे मल्टीप्लेक्स दर्शकों के लिए तरह-तरह के ऑफर लेकर आए हैं. यहाँ तक कि आप चाहें तो पूरा हॉल बुक करवा कर ‘प्राइवेट व्यूइंग’ का लुत्फ उठा सकते हैं.

मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों में पुरानी फिल्में मसलन ‘कबीर सिंह’, ‘पैरासाइट’ आदि ही दिखाई जा रही हैं, नई फिल्मों को लेकर निर्माताओं और वितरकों के बीच कोई योजना नहीं दिखती है. कोरोना की वजह से हुए लॉकडाउन से पहले मैंने ये फिल्में देखी थी. सवाल है कि नई फिल्में यदि रिलीज नहीं होंगी तो कोई दर्शक सिनेमाघर क्यों जाएगा? असल में दर्शकों के बीच अनिश्चितता की वजह से निर्माता-वितरक भी बड़ी फिल्मों को रिलीज कर कोई जोखिम मोल नहीं लेना चाहते. ऐसा नहीं है कि लोग घरों से बाहर नहीं निकल रहे. पिछले दिनों जब मैं दिल्ली के एक मॉल में गया, जहाँ कई मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर भी स्थित हैं, तब वहां भीड़ कम थी. हालांकि ‘फूड प्लाजा’ में लोग खा-पी रहे थे, खरीददारी भी कर रहे थे. पर सिनेमाघरों के बाहर कोई गहमागहमी नहीं थी.

दशहरा, दीवाली, ईद, क्रिसमस बड़े स्टारों की फिल्मों के रिलीज के लिए मुफीद माना जाता रहा है. ईद के दौरान सलमान खान की फिल्मों को लेकर उनके फैन्स में हमेशा एक दीवानगी रहती है. आश्चर्य नहीं कि सलमान खान की आने वाली एक फिल्म का नाम ‘कभी ईद, कभी दीवाली’ है. फिल्म समीक्षक नम्रता जोशी ने पिछले साल प्रकाशित हुई अपनी किताब ‘रील इंडिया’ में सलमान खान के एक फैन के हवाले से लिखा है- ‘उनकी फिल्में ईद पर थिएटर में आती है. रमजान के दौरान लंबे रोजा के बाद यह महाभोज की तरह आता है.’ भारत में सबसे ज्यादा फिल्में बनती हैं और मनोरंजन के लिए सिनेमा हर आयुवर्ग के दर्शकों को लुभाता रहा है.

हर स्टार के अपने ‘फैन्स’ हैं. सिनेमा के कारोबार से जुड़े लोगों को इन्हीं फैन्स से उम्मीदें है कि वे फिर से सिनेमाघरों में लौटेंगे. पर सलमान, शाहरूख या आमिर खान की किसी फिल्म के रिलीज होने को लेकर कोई चर्चा नहीं है. प्रसंगवश, 25 साल पहले शाहरुख खान और काजोल की बहुचर्चित फिल्म ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ दीवाली के आस-पास ही रिलीज हुई थी.

बॉलीवुड को एक ‘ब्लॉकबस्टर’ फिल्म का बेसब्री से इंतजार है. अक्षय कुमार की एक्शन फिल्म ‘सूर्यवंशी’ और भारतीय क्रिकेट टीम के विश्व कप की रोमाचंक जीत पर आधारित रणवीर सिंह की फिल्म ‘83’ दशहरा-दीवाली के दौरान रिलीज करने की बात की जा रही थी, पर त्योहारों के इस मौसम में इन फिल्मों के रिलीज होने को लेकर कोई स्पष्टता नहीं है. जबकि अक्षय कुमार की ‘लक्ष्मी बॉम्ब’ ऑनलाइन प्लेटफार्म पर अगले महीने रिलीज हो रही है. सिनेमाघरों के बंद होने से इंटरनेट के माध्यम से ‘ओवर द टॉप’ ऑनलाइन प्लेटफॉर्म को फायदा पहुँचा, वहीं सिनेमाघरों से जुडे लोगों के रोजगार और व्यवसाय को भारी नुकसान हुआ है. लॉकडाउन के दौरान कारोबार के जो क्षेत्र सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं उसमें सिनेमा उद्योग भी शामिल है.

(प्रभात खबर 25 अक्टूबर 2020)

Thursday, October 15, 2020

टीआरपी घोटाले से टीवी चैनलों पर संकट

 https://youtu.be/kKqBA10ldWI

मुंबई पुलिस और आर्थिक अपराध शाखा (EOW) टीवी चैनलों की TRP में हुए कथित घोटालों की जाँच कर रहे हैं। इस मामले में अभी तक मुंबई पुलिस Republic TV के CEO और COO से पूछताछ कर चुकी है। Republic TV के प्रधान संपादक Arnab Goswami को सोशल मीडिया पर ट्रॉल किया जा रहा है। मुंबई पुलिस ने अब तक इस मामले में चार लोगों को गिरफ्तार किया है। पुलिस के अनुसार रिपब्लिक टीवी और दो अन्य चैनलों ने अपनी टीआरपी बेहतर करने के लिए हेरफेर की। TRP क्या है और इसमें घोटाला कर के किसी टीवी चैनल को क्या फायदा हो सकता है? इन्हीं सवालों के जवाब देने के लिए आज हमने बात की मीडिया विशेषज्ञ अरविंद दास से। (साभार, लोकमत हिंदी)

Sunday, October 11, 2020

उदारीकरण, राष्ट्रवाद और टीवी न्यूज़

                     

भारत में उदारीकरण की नीतियों के फलस्वरूप निजी टेलीविजन समाचार चैनलों का अभूतपूर्व प्रसार हुआ. जनसंचार, विचार-विमर्श, छवियों के निर्माण और संसदीय चुनावों के दौरान राजनीतिक लामबंदी में टेलीविजन समाचार चैनल एक प्रमुख माध्यम बनके उभरे हैं. इन्हीं दशकों में पूरी दुनिया में बाजार और संचार तकनीक के माफर्त भूमंडलीकरण के आने से राष्ट्र-राज्य के स्वरूप में परिवर्तन भी आया है. जहाँ कुछ राष्ट्र्-राज्य की शक्ति बढ़ी, वहीं कुछ राष्ट्र-राज्य की शक्ति में  कमी आई. साथ ही दक्षिणपंथी ताकतों और उग्र-राष्ट्रवाद  का उभार भी हुआ है. 21वीं सदी के दूसरे दशक के आखिर में यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के अलग होने (ब्रेगिजट) को हम दक्षिणपंथी ताकतों की मजबूती और राष्ट्र-राज्य की कमजोर होती शक्ति को फिर से पाने के प्रयास में रूप में पाते हैं.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप, इंग्लैंड में बोरिस जानसन, ब्राजील में जेयर बोलसोनारो, तुर्की में रेसेप तैयप एर्दोगान और भारत में नरेंद्र मोदी जैसे पापुलिस्ट नेताओं के उभार ने राष्ट्रवाद और मीडिया के आपसी संबंध को बहस के घेरे में ला दिया है. टेलीविजन समाचार माध्यम में राष्ट्रवादी विमर्श एक प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में उभरा है. हालांकि जैसा कि अरविंद राजगोपाल ने अपने चर्चित अध्ययन ॉलिटिक्स आफ्टर टेलीविजनमें विस्तार से दिखाया है कि भारत में उदारीकरण के बाद (80 के दशक के आखिरी और 90 के दशक के शुरुआती सालों में) उभरे नव मध्यवर्ग के बीच रामायण जैसे महाकाव्यों का सिरीयल के रूप में हफ्ते दर हफ्ते दूरदर्शन पर प्रसारण ने राम जन्मभूमि आंदोलन को मजबूती दिया और भारतीय जनता पार्टी के हिंदुत्व विचारधारा के प्रसार लिए जमीन तैयार किया था.[i] संक्षेप में, उदारीकरण एक विस्तृत संकल्पना है जिसमें निजीकरण और बाजारीकरण की अवधारणा भी शामिल है. भारतीय परिप्रेक्ष्य में, इसके तहत भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने में राज्य की भूमिका को कम करने, निजीकरण को बल प्रदान करने तथा निवेश तथा निर्यात की नीति में आमूलचूल परिवर्तन कर भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की अन्य अर्थव्यवस्थाओं की नीतियों को लागू करना शामिल था. इसे वर्ष 1991 में नई आर्थिक नीति के माध्यम से लागू किया गया. हालांकि इसकी शुरुआत राजीव गांधी के नेतृत्व में (1985-86) राज्य प्रेरित आयात प्रतिस्थापन की नीति को बदल कर निर्यातोन्मुख विकास की नीति को लागू करने के साथ हो गया था.[ii] सवाल है कि उदारीकरण के बाद  राष्ट्रवाद और टेलीविजन समाचार चैनलों के बीच उभरे संबंध को हम किस रूप में देखें? क्या यह उदारीकरण-भूमंडलीकरण के साथ ही सहज रुप से विकसित हुए हैं? या भारतीय संदर्भ में इसकी कोई ख़ास विशेषता है? इस लेख में सेटेलाइट, निजी हिंदी टेलीविजन समाचार चैनलों के हवाले से इन सवालों की पड़ताल की गई है.

(संवाद पथ, जनसंचार और पत्रकारिता केंद्रित पत्रिका, खंड-2, अंक-3, जुलाई-सितबंर 2019, पेज 38-46)

दर्शकों की तलाश में 'मिथिला मखान'

मैथिली सिनेमा के इतिहास में ‘मिथिला मखान’ एक मात्र ऐसी फिल्म है, जिसे वर्ष 2016 में मैथिली भाषा में सर्वश्रेष्ठ फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला. पर चार साल के बाद भी इस फिल्म को कोई सिनेमा हॉल प्रदर्शन के लिए नहीं मिला. यहाँ तक कि कोरोना काल में कोई ऑनलाइन प्लेटफॉर्म भी इसे प्रदर्शित करने के लिए राजी नहीं हुआ. अंततः पिछले हफ्ते फिल्म के निर्देशक नितिन चंद्रा ने इसे अपने ऑनलाइन पोर्टल (बेजोड़ डॉट इन) पर रिलीज किया है.

वे कहते हैं कि ‘मैथिली फिल्मों को लेकर वितरकों में कोई उत्साह नहीं है. हम सौभाग्यशाली थे जो हमें एक एनआरआई निवेशक मिले.’ नितिन चंद्रा बिहार की भाषाओं में फिल्म बनाने वाले एक उत्साही युवा फिल्मकार हैं. इससे पहले उन्होंने भोजपुरी में ‘देसवा’ फिल्म बनाई थी. 'मिथिला मखान' मिथिला में रोजगार की समस्या, पलायन और एक शिक्षित युवा की उद्यमशीलता को दिखाती है. अभिनय और गीत-संगीत मोहक है. ‘मखान’ संघर्ष और संभावनाओं का एक रूपक है. साथ ही ‘मखान’ मिथिला की सांस्कृतिक पहचान भी है.
जहां मिथिला की साहित्यिक और सांस्कृतिक विशिष्टता आधुनिक समय में भी कायम रही, सिनेमा के क्षेत्र में उसे एक मुकाम हासिल नहीं हो पाया है. नितिन चंद्रा कहते हैं कि अश्लीलता को अपना कर ही सही, भोजपुरी सिनेमा ने एक मुकाम बना लिया है, पर ‘वितरक यह भी नहीं जानते कि मैथिली नाम से कोई भाषा है जिसमें फिल्में बनती हैं. हमने इस भाषा में अबतक कुछ खास बनाया ही नहीं!’ यूँ तो फणि मजूमदार निर्देशित ‘कन्यादान’ (1965) फिल्म को पहली मैथिली फिल्म होने का दर्जा मिला है, इस फिल्म की भाषा हिंदी और मैथिली थी. चर्चित रचनाकार हरिमोहन झा की प्रसिद्ध रचना ‘कन्यादान’ पर आधारित इस फिल्म में बेमेल विवाह की समस्या को भाषा समस्या के माध्यम से चित्रित किया गया है.

इससे पहले वर्ष 1963-1964 में ‘नैहर भेल मोर सासुर’ नाम से एक मैथिली फिल्म का निर्माण शुरू किया गया, पर लंबे समय के बाद यह फिल्म पूरी होकर 80 के दशक के मध्य में ‘ममता गाबय गीत’ नाम से रिलीज हुई. इस फिल्म से निर्माता के रूप में जुड़े रहे 84 वर्षीय केदारनाथ चौधरी बताते हैं कि उस जमाने में इस फिल्म को भी वितरक नहीं मिला था. ऐसा लगता है कि इन दशकों में मैथिली सिनेमा एक अपना दर्शक वर्ग तैयार नहीं कर पाया है, एक बाजार विकसित करने में नाकाम रहा है. भोजपुरी और मैथिली में फिल्म बनाने की शुरुआत एक साथ हुई. पर जैसा कि केदारनाथ चौधरी हताश स्वर में कहते हैं कि ‘भोजपुरी फिल्में कहां से कहां पहुँच गई और मैथिली फिल्में कहां रह गई!’
बीते दशकों में मिथिला में सिनेमा प्रदर्शन को लेकर कोई माहौल नहीं दिखता है. दरभंगा-मधुबनी जैसी जगहों पर जो सिनेमाघर थे, वे भी लगातार कम होते गए और जो सिनेमाघर बचे हैं, वहाँ भोजपुरी फिल्मों का ही प्रदर्शन होता है. वर्ष 2004 में संविधान की आठवीं अनुसूची में मैथिली भाषा को शामिल किए जाने के बावजूद लोगों में इस भाषा को लेकर कोई खास उत्साह देखने को नहीं मिला है. मिथिला से बाहर देश-विदेश में जो मैथिली भाषी हैं, वे भी अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर खास उत्साही नहीं हैं.

(प्रभात खबर, 11 अक्टूबर 2020)

Sunday, September 27, 2020

निगरानी पूंजीवाद के दौर में सोशल मीडिया

मास मीडिया के लिए इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक दुनिया भर में संभावनाओं और चुनौतियों से भरा रहा है. इसी दशक में सोशल मीडिया, मसलन- फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम आदि, का अप्रत्याशित रूप से विस्तार हुआ है. पर, हाल के वर्षों में पश्चिमी देशों, खास कर अमेरिकी नागरिक समाज और अकादमिक दुनिया में, काफी चिंता जताई जा रही है कि डिजिटल मीडिया कंपनियों से लोकतंत्र को खतरा है. इन्हीं दुश्चिंताओं के मद्देनजर डिजिटल मीडिया पर नियंत्रण को लेकर भारत सरकार भी तत्पर दिख रही है. हालांकि नियंत्रण को लेकर विमर्शकारों के बीच दुविधा है.

यह दुविधा न सिर्फ राजनीतिक क्षेत्र में दिखती है, बल्कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल करने वालों में भी मौजूद है. हाल ही में ‘नेटफ्लिक्स’ वेबसाइट पर रिलीज हुई डाक्यूमेंट्री ‘द सोशल डिलेमा’ इन्हीं सवालों से रू-ब-रू है. इसमें सोशल मीडिया के दुष्प्रभावों की चर्चा है. जेफ ओरलोवस्की निर्देशित इस डॉक्यूमेंट्री में एक अमेरिकी परिवार के माध्यम से ड्रामा के तत्वों का कुशलता से समावेश किया गया है.
इसमें गूगल, यूट्यूब और सोशल मीडिया से जुड़े रहे आला अधिकारियों के छोटे-छोटे इंटरव्यू शामिल हैं. साथ ही, चर्चित किताब ‘द एज ऑफ सर्विलांस कैपिटलिज्म’ की लेखिका शोशाना जुबॉफ जैसे विशेषज्ञों से बातचीत भी है. जुबॉफ ने अपनी किताब में नोट किया है कि किस तरह मुनाफे के लिए तकनीकी कंपनियाँ हमारे जीवन को अपने नियंत्रण में ले रही है. चाहे-अनचाहे हम इन कंपनियों से उन जानकारियों को साझा कर रहे हैं जो बेहद निजी हैं. ये सूचनाएँ कंपनियों के लिए ‘डेटा’ हैं, जिसकी ताक में विज्ञापनदाता लगे रहते हैं. डॉक्यूमेंट्री में एक जगह कहा गया है ‘यदि हम किसी उत्पाद के लिए मोल नहीं चुकाते हैं तो फिर हम खुद एक उत्पाद हैं.’ पूंजीवाद के इस नए रूप में निजता/गोपनीयता (प्राइवेसी) का कोई मतलब नहीं रह जाता है.
यह डॉक्यूमेंट्री ‘निगरानी पूंजीवाद’ के हवाले से दिखाती है कि किस तरह सोशल मीडिया हमारे आचार-व्यवहार को प्रभावित कर रहा है. किस तरह घर-परिवार के सदस्यों के आपसी रिश्ते, युवाओं के मनोभाव और प्रेम संबंध प्रभावित होने लगे हैं. किसी नशे की लत की तरह हम खुद पर नियंत्रण नहीं रख पाते हैं. हालांकि डॉक्यूमेंट्री में सोशल मीडिया के पूर्व अधिकारी बताते हैं कि इसका ‘डिजाइन ही ऐसा है कि आप चाह कर भी इससे अलग नहीं रह पाते’. मिर्जा गालिब के शब्दों में कहें, तो ‘उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफिर पर दम निकले.’
निस्संदेह, पारंपरिक मीडिया के बरक्स सोशल मीडिया ने सार्वजनिक दुनिया में बहस-मुबाहिसा को एक गति दी है और नेटवर्किंग के माध्यम से एक नए लोकतांत्रिक समाज का सपना भी बुना है. लेकिन सच यह भी है कि सोशल मीडिया के रास्ते ‘फेक न्यूज’ का तंत्र विस्तार पाता है. इन्हीं वर्षों में ‘फेक न्यूज’ और दुष्प्रचार का एक ऐसा तंत्र खड़ा हुआ है जिसकी चपेट में डिजिटल मीडिया के साथ-साथ पारंपरिक मीडिया भी आ गया. ट्विटर के सीईओ जैक डोरसे ने अपनी भारत यात्रा के दौरान कहा था कि ‘फेक न्यूज और दुष्प्रचार की समस्याओं से निपटने के लिए कोई भी समाधान समुचित नहीं है.’ फिर सवाल है कि रास्ता किधर है? यह डॉक्यूमेंट्री सोशल मीडिया के खतरों से आगाह करने के साथ ही सधे अंदाज में उन रास्तों के बारे में हमें बताती है, जिस पर चल कर हम सुरक्षित घेरे का विकास कर सकते हैं.

(प्रभात खबर, 27.09.2020)

Wednesday, September 16, 2020

हाशिए पर सरोकार: टीवी वायरस

करीब अठारह साल पहले जब मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था, तब कहा जा रहा था कि टेलीविजन मीडिया अभी शैशव अवस्था में है. यह संक्रमण काल है और कुछ वर्षों में ठीक हो जाएगा. लेकिन पिछले कई सालों की प्रवृत्ति पर गौर करें तो यही लगता है कि यह संक्रमण फैलता ही गया. पहले मुख्य रूप से हिंदी के समाचार चैनल इससे ग्रसित थे, अब अंग्रेजी के चैनलों में भी वायरस का प्रकोप बढ़ गया दिखता है. अंग्रेजी और हिंदी के चैनल एक खंडित लोकका निर्माण करते रहे हैं. उनके दर्शक वर्ग भी अलग रहे हैं. पर अब यह विभाजक रेखा तेजी से मिटती हुई दिख रही है.

लेकिन अखबारों की दुनिया में अब भी कई बार ऐसा कुछ दिख जाता है, जिससे सीमित  पैमाने पर ही सही कुछ बचे होने की उम्मीद हो जाती है.

पिछले दिनों एक अखबार ने अपने मुख्य पृष्ठ पर एक तस्वीर प्रकाशित किया और शीर्षक दिया- टीवायरस. यह तस्वीर टेलीविजन समाचार चैनलों के हाल के उस रवैये पर एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है, जिस पर काफी सवाल उठे है. इसके अलावा भी सरोकार के बचे होने के उदाहरण देखे गए और पत्रकारिता की दुनिया के भीतर से टीवी मीडिया के इस चेहरे,लोगों की निजता में जबरन घुसने की कोशिश पर चिंता जाहिर की गई. 

दरअसल, यह ‘वायरसजब से न्यूज चैनलों ने चौबीस घंटे का प्रसारण शुरु किया तब से मौजूद है और अभी तक इसका कोई इलाजउपलब्ध नहीं है. हालांकि दर्शकों में अब तक इसका सामना करने की सलाहियत विकसित हो जानी चाहिए थी (हर्ड इम्यूनिटी’)! गौरतलब है कि भारत में उदारीकरण की नीतियों के फलस्वरूप पिछले दो दशक में निजी टेलीविजन समाचार चैनलों का अभूतपूर्व प्रसार हुआ है, पर संवाद एकतरफा ही रहे. कह सकते हैं कि सोशल मीडिया या अखबार से इतर यह इस माध्यम की विशेषता है.  

असल में टेलीविजन मीडिया उद्योग में दर्शकों की उपस्थिति, उनकी केंद्रीय भूमिका को लेकर हमारे यहाँ कोई खास शोध नहीं है. कुछ छिटपुट शोध पत्र मौजूद हैं जो दर्शकों को केंद्र में रख टेलीविजन को परखने की कोशिश करता है. पर ये चौबीस घंटे समाचार चैनलों को अपनी जद में नहीं लेता, दूरदर्शन, सीरियलों के इर्द-गिर्द ही है. मीडिया शोध में इस बात का उल्लेख बार-बार होता है कि दर्शक किसी भी संदेश को अपने तयी देखता-परखता है, वह महज एक उपभोक्ता नहीं है. उनके पास संदेश और संवाद को नकारने की भी सहूलियत रहती है.  

मीडिया आलोचक रेमंड विलियम्स ने टेलीविजन माध्यम को तकनीक और विशिष्ट सांस्कृतिक रूप में परखा है.  चूँकि यह एक दृश्य माध्यम है इस लिहाज से टीवी पर प्रसारित होने वाली खबरों से दर्शकों के बीच सहभागिता, घटनास्थल पर होने का बोध होता है.  इन खबरों के साथ विज्ञापन भी लिपटा हुआ दर्शकों तक चला जाता है, जो इन कार्यक्रमों के लागत और चैनलों के मुनाफा का प्रमुख जरिया है. 

उदारीकरण के बाद खुली अर्थव्यस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है. उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर अब वह कारपोरेट जगत का हिस्सा है. जब भी हम मीडिया की कार्यशैली की विवेचना करेंगे तो हमें पूंजीवाद और मीडिया के रिश्तों की भी पड़ताल करनी होगी. निस्संदेह, हाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से मीडिया की सार्वजनिक दुनिया का विस्तार हुआ है, लेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही टीवी मीडिया उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है. ऐसे में लोक हित के विषय हाशिए पर ही रहते हैं.

भारत में चौबीसों घंटे चलने वाले इन समाचार चैनलों के प्रति मीडिया विमर्शकारों में दुचित्तापन है. खबरों की पहुँच गाँव-कस्बों तक हुई, एक नेटवर्क विकसित हुआ. इसने भारतीय लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत किया है. वहीं समाचार की एक ऐसी समझ इसने विकसित की जहाँ मनोरंजन पर जोर रहा है. 21वीं सदी का पहला दशक भारत में टेलीविजन समाचार चैनलों के विस्तार का दशक भले रहा है. पर इसके साथ ही इसी दशक में चैनलों की वैधता और विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे थे. जैसा कि आज तक न्यूज चैनल के न्यूज डायरेक्टर क़मर वहीद नक़वी ने वर्ष 2007 में लिखा था लोग आलोचना बहुत करते हैं कि न्यूज़ चैनल दिन भर कचरा परोसते रहते हैं, लेकिन सच यह है कि लोग कचरा ही देखना चाहते हैं.' सवाल दर्शकों का भी है, जिस पर हम आम तौर पर चर्चा नहीं करते.

हिंदी समाचार चैनलों की एक प्रमुख प्रवृत्ति स्टूडियो में होने वाले बहस-मुबाहिसा है, जिसका एक सेट पैटर्न है. एंकर और प्रोड्यूसर का ध्यान ऐसे मुद्दों पर बहस करवाना होता है जिससे कि स्टूडियो में एक नाटकीयता का संचार हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में इजाफा करना नहीं होता, बल्कि उनके चित-वृत्तियों के निम्नतम भावों को जागृत करना होता है. 

ऐसे में एंकरों-प्रोड्यूसरों की तलाश उन मुद्दों की तरफ ज्यादा रहती है जिसमें सनसनी का भाव हो. मीडिया आलोचक प्रोफेसर निल पोस्टमैन ने अमेरीकी टेलीविजन के प्रसंग में कहा था कि- सीरियस टेलीविजन अपने आप में विरोधाभास पद है और टेलीविजन सिर्फ एक जबान में लगातार बोलता है-मनोरंजन की जबान.’  यह शायद हमारे समाचार चैनलों के लिए भी सच है.  पोस्टमैन के मुताबिक एक न्यूज शो, सीधे शब्दों में, मनोरंजन का एक प्रारूप है न कि शिक्षा, गहन विवेचन या विरेचन का.

(जनसत्ता, 16.09.2020)