Thursday, February 20, 2020

परजीवी कौन: पैरासाइट


समकालीन पूंजीवादी समाज में नेटवर्क संबंधों के मूल में है. यह भूमंडलीकरण के मूल में भी है. नेटवर्क, मसलन इंटरनेट, के सहारे भूमंडलीकरण की भाषा और संस्कृति बाजार के माध्यम से फैलती है. पर इस भूमंडलीकृत बाजार में अंग्रेजी का ही दबदबा रहा है. हालांकि समाजशास्त्रियों, भूमंडलीकरण के अध्येताओं का मानना है कि भूमंडलीकरण की इस संस्कृति को स्थानीय संस्कृतियों से प्रतिरोध का सामना करना पड़ता  है.  स्थानीय संस्कृति और भूमंडलीय संस्कृति के बीच आवाजाही, लेन-देन चलती रहती है, इसलिए इसे ग्लोकोलाइजेशन भी कहा गया.  सिनेमा की बात करें वैश्विक स्तर पर हॉलीवुड में बनने वाली फिल्में ही पुरस्कार समारोह में छाई रहती हैं.

बहरहाल, प्रतिष्ठित ऑस्कर पुरस्कार के 92 साल के इतिहास में दक्षिण कोरियाई फिल्म पैरासाइट पहली गैर-अंग्रेजी फिल्म है जिसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिला है. इससे पहले अब तक सिर्फ दस गैर-अंग्रेजी फिल्में ही ऐसी थी जिसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में नामांकित किया गया था. पिछले साल विदेशी फिल्मों की श्रेणी में ऑस्कर पुरस्कार जितने वाली मैक्सिको के चर्चित निर्माता-निर्देशक अल्फोंसो कुरों की रोमा भी सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए नामांकित थी, पर पुरस्कार ग्रीन बुक को मिला. प्रतिष्ठित स्वीडिश फिल्म निर्देशक इंगमार बर्गमैन की क्राइज एंड व्हीसपर्स’, ग्रीक मूल के फ्रेंच निर्देशक कोस्ता गावरास की ज़ेड  आदि फिल्में भी नामांकित की गई थी. इन्हें विदेशी भाषा में बनने वाली फिल्म के लिए ऑस्कर से नवाजा जाता रहा. पैरासाइट को सर्वश्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय फीचर फ़िल्म का खिताब भी मिला है.

पैरासाइट के शुरुआती दृश्य में एक पूरा परिवार सियोल स्थित एक स्लम के सेमी-बेसमेंट के कमरे में मोबाइल नेटवर्क की तलाश करता दिखता है. पड़ोसी के फ्री वाई-फाई के नेटवर्क की तलाश एक रूपक है, जो फिल्म के नाम को चरितार्थ करता है. पर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, परजीवी की कई अर्थच्छवियाँ हमारे सामने आती है.

पैरासाइट कोरियाई समाज की स्थानीय जमीन पर रची गई है, पर अपनी पहुँच में वैश्विक है. राजधानी सियोल के स्लम में रहने वाले किम का परिवार और पॉश कॉलोनी में रहने वाले पार्क के परिवार के संबंधों के माध्यम से आर्थिक और सामाजिक विषमता को कुशलता से फिल्म उजागर करती है. धनाढ्य पार्क का परिवार खानसामा, ड्राइवर, टयूटर आदि के लिए समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों पर निर्भर है. वहीं गरीबी और अमानवीय परिस्थितियों में रहने वाले किम के पूरे परिवार को नौकरी की तलाश है, ताकि भरण-पोषण हो सके. छल और कौशल से किम परिवार धीरे-धीरे पार्क परिवार में घुसपैठ कर जाता है. पार्क परिवार में उनका सामना अपने ही जैसे एक और परिवार से होता है जो कि बेसमेंट मे ही रहता है.

फिल्म में बेरोजगारी और कर्ज का सवाल गहरे उजागर होता है. एक जगह  किम का परिवार कहता है जहाँ एक सुरक्षा गार्ड के लिए विश्वविद्यालय से पढ़े पाँच सौ नौजवान लाइन में खड़ें मिलते हैं, वहाँ हमारे पूरे परिवार को नौकरी मिल गई.यह संवाद भारत में बेरोजगारी की समस्या पर भी टिप्पणी करती हुई प्रतीत होती है.

गौरतलब  है कि फिल्म के निर्देशक बोंग जून हो को सर्वश्रेष्ठ पटकथा और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी मिला है. फिल्म की पटकथा में रोचकता, रहस्यात्मकता और ड्रामा के तत्व है जो दर्शकों को पूरे सिनेमा के दौरान बांधे रखता है. सिनेमा के आलोचकों ने इसे कॉमेडी  ड्रामा कहा है. पर दर्शकों के लिए इस सिनेमा की दृश्य योजना और भाषा व्यंजना कई स्तरों पर उजागर होती है. पूंजीवादी समाज में भौतिक सुख-सुविधा की आकाँक्षा और स्वप्न, उस स्वप्न को पाने के लिए मानवीय संबंधों के बीच संघर्ष  और हिंसा को संवेदनशीलता के साथ फिल्म चित्रित किया गया है. 

सवाल है कि वर्ग विभेद वाले पूंजीवादी समाज में परजीवी कौन है? कवि नागार्जुन ने कलकत्ते के ट्राम में श्रमजीवियों के पसीने से लथपथ शरीर से आने वाली बू को लेकर अपनी एक कविता में कभी पूछा था- सच, सच बताओ, घिन तो नहीं आती है?’  इस फिल्म में पार्क परिवार का मुखिया सब वेसे सफर करने वाले लोगों के शरीर से आने वाली एक तरह की गंध की बात करता है. पैरासाइट में निर्देशक ने गंध-भेद को लेकर, इस घिन को लेकर बेहतर दृश्य रचे हैं. प्रसंगवश, वॉकिन फीनिक्स को 'जोकर'  फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ऑस्कर पुरस्कार मिला है. यह फिल्म भी वर्ग विभेद और प्रतिरोध की संस्कृति के इर्द-गिर्द बुनी गई है.

बोंग जून हो की कई अन्य फिल्में भी काफी चर्चित रही हैं. वर्ष 2003 में रिलीज हुई मेमोरीज ऑफ मर्डर से उनकी ख्याति दूर तक फैली. इससे पहले वर्ष 2019 में फ्रांस के कान फिल्म समारोह में पैरासाइट को प्रतिष्ठित पाम द ओर पुरस्कार से भी नवाजा गया.

पुराने दौर के सिनेमाप्रेमी किम कि यंग की द हाउसमेडजैसी क्लासिक फिल्मों का जिक्र करते हैं. हालांकि कोरियाई सिनेमा को लेकर भारत में ज्यादा उत्साह नहीं है, जबकि हाल के वर्षों में कोरियन पॉपुलर म्यूजिक (के-पॉप) का शहरी युवाओं में चलन बढ़ा है. 

पिछले महीने जब दिल्ली के सिनेमाघरों में यह फिल्म रिलीज हुई तब एक सिनेमाघर में बमुश्किल बीस लोग सिनेमा देख रहे थे. हालांकि पैरासाइट को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिलने पर भारतीय सिनेमा से भी उम्मीद बंधी है. कई युवा प्रयोगधर्मी फिल्मकार भारतीय भाषाओं में पिछले दशकों में अच्छी फिल्में बना रहे हैं. पिछले साल ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अखबार द गार्डियनके लिए फिल्म समीक्षकों ने इस सदी की विश्व की बेहतरीन सौ फिल्मों की एक सूची बनायी थी, जिसमें भारत से अनुराग कश्यप निर्देशित गैंग्स ऑफ वासेपुरको भी जगह मिली थी. तथ्य यह है कि भारत में प्रति वर्ष सबसे ज्यादा फीचर फिल्मों का निर्माण होता है. यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आर्थिक और तकनीक रूप से सक्षम भारतीय सिनेमा विश्व सिनेमा की ऊंचाई छूने में क्यों नाकाम है!

जनसत्ता, 20 फरवरी 2020

Sunday, February 16, 2020

लंबी उदास कविता को रचती फिल्म: गामक घर

युवा निर्देशक अचल मिश्र की मैथिली फिल्म ‘गामक घर' (गांव का घर) को देश के विभिन्न फिल्म समारोहों में खूब सराहना मिली है. यह फिल्म एक लंबी उदास कविता की तरह है, जिसे हम सिनेमा की भाषा में ठहर कर पढ़ना भूल गये हैं. मैथिली सिनेमा में भी ऐसी परंपरा नहीं मिलती. इस सिनेमा का इतिहास है, लेकिन पिछले पचास वर्षों में ऐसी कोई खास फिल्म नहीं बनी है, जिसे अलग से रेखांकित किया जाए. बहुचर्चित ‘ममता गाबय गीत’ एक अपवाद है.
घर एक सपना है, जिसके पीछे हम ताउम्र भागते रहते हैं- इस शहर से उस शहर. इस लिहाज से गांव के घर का स्थानीय रूपक राष्ट्रीय-भूमंडलीय हो उठता है. पिछले दशकों में मिथिला के गांवों से शहर की ओर पलायन हुआ है, हालांकि विस्थापित बार-बार घर लौटते रहे हैं. कभी मुंडन-शादी के बहाने, कभी दीवाली-छठ के मौके पर, तो कभी पीछे छूट गये परिजनों से मिलने. शहरों का मकान उनके लिए ‘डेरा’ ही रहता है.
‘गामक घर’ एक आत्म-कथात्मक फिल्म है, जिसके केंद्र में दरभंगा जिले में स्थित निर्देशक का पैतृक घर है, जहां पेड़, खेत व खलिहान हैं. मैथिली के कवि जीवकांत की एक कविता के सहारे कहूं, 'गाछ मे पात/ पात मे बसात/ पात मे फूल/ गाछ मे आम/ गमकैए गाम/ गाछ मे मेघ/ भीजैए खेत.' तीन भागों में बंटी यह फिल्म 1998, 2010 और 2019 के कालखंड को समेटे हुए है. पहले हिस्से में गांव में परिवार के पुरुष ताश की चौकड़ी जमाये, भोज खाते और स्त्रियां छठी का गीत गाते मिलती हैं. एक उत्सव है यहां, सामूहिकता है.
दूसरे खंड में पलायन है, लोगों की अनुपस्थिति है, हालांकि घर की उपस्थिति तब भी रहती है, विभिन्न रूपों में. निर्देशक ने घर के कोनों को इतने अलग-अलग ढंग से अंकित किया है कि वह महज ईंट और खपरैल से बना मकान नहीं रह जाता. वह हमारे सामने सजीव हो उठता है. डॉक्यूमेंट्री और फीचर फिल्म की शैली एक साथ यहां मिलती है.
सिनेमैटोग्राफर ने ‘क्लोज अप’ से परहेज किया है. स्टिल फोटोग्राफ और लांग शॉट के माध्यम से खालीपन और अलगाव को बेहतरीन ढंग से उकेरा गया है. इससे घर के बाशिंदों के बीच की दूरी भी मुखर हो उठती है. फिल्म में ज्यादातर कलाकार गैर-पेशेवर है. संवाद और अदाकारी में एक स्वभाविकता है. फिल्म एक धीमी लय में चलती है, पर हमें नॉस्टेलजिक नहीं बनाती है.
आखिरी खंड में पुराने घर के टूटने का दृश्य है और नये के बनने की चर्चा है. यह ध्वंस जितना भौतिक है, उतना ही आध्यात्मिक स्तर पर हमें प्रभावित करता है. पुराने घर के टूटने के साथ हमारी स्मृतियां जमींदोज नहीं होती है. किसी आश्रय के सहारे वे जी उठती हैं.
(प्रभात खबर, 16 फरवरी 2020)

Saturday, February 01, 2020

शाहीन बाग़ की औरतें


मशहूर शायर निदा फाजली का एक शेर है-हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना. ठीक इसी तरह एक शहर में कई शहर बसते हैं और कई बार शहर हमारे सामने ऐसी रूप में उपस्थित होता है, जिसे देख कर हम खुद चकित हो उठते हैं. दिल्ली में भले ही मैं वर्षों से रह रहा हूँ पर निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि मैं शहर को ठीक से जानता हूँ.

पिछले दिनों दक्षिण दिल्ली में स्थित शाहीन बाग इलाका गया तो कुछ ऐसा ही एहसास हुआ. शाहीन बाग में सैकड़ों महिलाएं नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का विरोध करने के लिए पिछले डेढ़ महीने से प्रदर्शन कर रही है. उल्लेखनीय है कि नागरिकता संशोधन कानून के तहत पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी और ईसाई समुदाय के लोगों को भारतीय नागरिकता देने का प्रावधान है. सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी के नेता बार बार यह कह रहे हैं कि इस कानून से किसी भी भारतीय की नागरिकता नहीं जाएगी, वहीं प्रदर्शनकारियों का कहना है कि धर्म आधारित नागरिकता का यह प्रावधान विभेदकारी और संविधान की मूल भावना के खिलाफ है.

देश में स्त्रियों के संघर्ष का सौ साल से पुराना इतिहास रहा है. कई राजनीतिक और सामाजिक आंदोलनों में स्त्रियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया है और नेतृत्व प्रदान किया है. इस विरोध प्रदर्शन को इसी कड़ी में देखा जा सकता है. हालांकि यह प्रदर्शन कई मायनों में देश में पहले हुए विरोध प्रदर्शनों से अलग है. हाल के दशकों में ऐसा प्रदर्शन देश में नहीं देखा गया है जो आइडिया ऑफ इंडियाकी भावना को शब्द और कर्म के जरिए मूर्त करता हो. छिटपुट हुए हिंसा को छोड़ दिया जाए तो सीएए के खिलाफ ज्यादातर प्रदर्शन शांतिपूर्ण रहे हैं. असल में स्वत: स्फूर्त यह प्रदर्शन गाँधी के सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा से प्रेरित है. इसके पीछे कोई राजनीतिक नेतृत्व नहीं है. इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन से प्रेरित हो कर दिल्ली में अन्य जगहों और देश के अन्य शहरों-कोलकाता, मुंबई, बैंग्लौर, पटना, गया आदि में भी विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. गाँधी, नेहरू, आंबेडकर की तस्वीरें बैनरों और पोस्टरों में हर कहीं नजर आती है. इंकलाबी गीत और नारे देशप्रेम से लबरेज हैं. जहाँ राजनीति की भाषा में एक कटुता है वहीं पोस्टरों और गीतों की भाषा एक नई रचनात्मकता लिए हुए हैं जिसे सोशल और पापुलर मीडिया में नोटिस किया जा सकता है.

हालांकि दिल्ली में होने वाले चुनाव के मद्देनजर शाहीन बाग को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों में टीका-टिप्पणी शुरु हो गई है. पर हाल ही में पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने सड़कों पर हो रहे शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन में युवाओं की भागेदारी की प्रशंसा की. साथ ही उन्होंने कहा कि खास तौर पर जिस तरह से संविधान पर जोर और उसके प्रति आस्था व्यक्त की जा रही है वह सुकून देने वाला है.


यह प्रदर्शन लोकतंत्र और नागरिक समाज की मजबूती को दिखाता है. उस देर रात शाहीन बाग में अद्भुत नजारा था. मंच से संविधान की प्रस्तावना पढ़ने का आह्वान किया जा रहा था और सैकड़ों लोग प्रस्तावना में लिखे स्वतंत्रता, समता, बंधुता को दुहरा रहे थे. मुस्लिम बहुल इलाके में हो रहे इस प्रदर्शन में विभिन्न धर्मों के लोग मौजूद थे. कॉलेज जाने वाले युवाओं की उपस्थिति खास तौर पर रेखांकित करने वाली थी. पंडाल और गलियों में राष्ट्रीय ध्वज लहरा रहे थे. भारतीय संविधान के लागू होने के 70 वर्ष पूरे होने पर संवैधानिक मूल्यों में आस्था दिखाते हुए नागरिकता संशोधन कानून के विरोध का यह तरीका मानीखेज है. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में शिक्षक, एक मित्र ने टिप्पणी की- मुस्लिम महिलाओं के सार्वजनिक प्रदर्शन से उनके निजी जीवन में भी बदलाव आएगा और राजनीतिक चेतना से संपन्न अगली पीढ़ी बदलाव का मशाल थामेगी.

शाहीन बाग के प्रदर्शन को लेकर मीडिया, खास कर टेलीविजन मीडिया में दो फांक है. पिछले वर्षों में टेलीविजन चैनलों का ध्यान ऐसे मुद्दों पर स्टूडियो में बहस करवाने पर ज्यादा रहता है जिसमें नाटकीयता और सनसनी का भाव हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में इजाफा करना नहीं होता, बल्कि मनोरंजन पैदा करना होता है. एक आक्रमता दिखाई देती है, जो सार्थक बहस-मुबाहिसा के अनुकूल नहीं कही जा सकती. सच तो यह है कि टेलीविजन स्टूडियो से ज्यादा नागरिकता और संविधान के प्रावधानों पर बहस इन्हीं प्रदर्शन स्थलों, सड़कों पर हो रही है.

असल में, कुछेक अपवाद को छोड़ कर मीडिया में वर्षों से स्टिरियोटाइप छवि मुसलमानों की पहचान को लेकर परोसी जाती रही है, प्रोपेगंडा फैलाया जाता है. शाहीन बाग जैसी जगह उसके विपरीत एक अलग विमर्श को जन्म देता है जो लोकतांत्रिक मूल्यों और भारतीयता के पक्ष में है.

(जानकी पुल, 1 फरवरी 2020)