Wednesday, October 30, 2019

हारिल हैं हम तो

स्मृतियां अक्सर अनकहे दस्तक देती हैं. कभी किसी बातचीत के बीच या कभी किसी सिनेमा, संगीत के माध्यम से या कई बार बिना किसी आश्रय के. करीब 23 वर्षीय युवा अचल मिश्र की मैथिली फिल्म-गामक घर (गांव का घर)की इन दिनों मीडिया में खूब चर्चा है. इस फिल्म में मिथिला में बसे एक गांव की यादें हैं, जहां से निर्देशक का जुड़ाव है. इस फिल्म का ट्रेलर देखने के बाद मेरा भी मन बचपन के दिनों में लौट आया.
पिछले कुछ वर्षों में बिहार के बाहर मीडिया में लोक पर्व छठ की खूब चर्चा होती रही है. वहीं छठ के इर्द-गिर्द ही मिथिला में एक और लोक पर्व- सामा-चकेवाभी मनाया जाता रहा है, लेकिन वह अनदेखा रह जाता है. कार्तिक महीने में छठ के अगले दिन सामा-चकेवाकी शुरुआत होती है, जो आठ दिनों तक चलती है.
यह लोक पर्व भाई-बहन के आपसी प्रेम को दिखाता है. इसी मौसम में हिमालय से मैदान की ओर पक्षियां प्रवास के लिए आते हैं. युवतियां मिट्टी की आकृतियों में विभिन्न पक्षियों को अपने रंग में रंगती हैं. सामा-चकेवा पक्षियों का स्वागत इस पर्व से जुड़ा है. लोक गीतों के साथ सामा की विदाई होती है, इस आग्रह के साथ कि वे फिर से लौट कर मिथिला की धरती पर आयें.
मिथिला की चर्चित सिक्की कला भी सामा की पौतीके रूप में दिखायी पड़ती है. मेरे लिए सामा-चकेवा मिथिला की संस्कृति का एक अहम हिस्सा है, जिसमें मिथिला पेंटिंग, सिक्की कला, लोक गीतों की झलक है. दूसरे स्तर पर देखें, तो प्रकृति के साथ मनुष्य के सहज संबंधों की अभिव्यक्ति भी इस लोक पर्व में मिलती है.
जब से गांव-घर छूटा है, मैंने इस पर्व को मनाते हुए नहीं देखा. दिल्ली-एनसीआरमें तो इसकी चर्चा भी नहीं होती, जहां मिथिला समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग रहता है. बहरहाल, मेरा एक दोस्त कहता है, ‘यार, शाम होते ही आजकल तुमपे उदासी क्यों छाने लगती है.मैं उसके जवाब में नहीं तोकह कर उसकी बात को टालने की कोशिश करता हूं. मैं होमसिककभी नहीं रहा, लेकिन अक्सर इस मौसम में शाम ढलते-ढलते एक अजीब सी नॉस्टेल्जियामेरे अंदर घर करने लगती है.
जेएनयू के दिनों में मेरे हॉस्टल के कमरे की बालकनी में ठीक सामने एक बरगद का पेड़ था और टेरेस पर एक झुरमुट पीपल. इन पेड़ों पर हर साल प्रवासी पक्षियों के झुंड आते थे. नवंबर आते ही मैं इनका इंतजार करता था. मुझे नहीं पता होता कि ये किस देश से आते थे.
वियोग में होते थे या प्रेम में? निर्वासन की पीड़ा झेल रहे थे या सैर-सपाटे के मूड में. या किसी सहचर की खोज में भटक रहे थे? कवि उदय प्रकाश ने नींव की ईंट हो तुम दीदीशीर्षक कविता में लिखा है- हमारा क्या है दिदिया री!/ हारिल हैं हम तो/ आयेंगे बरस दो बरस में कभी/ दो-चार दिन मेहमान-सा ठहर कर/ फिर उड़ लेंगे. गामक घरएक रूपक है, हम जैसे हारिलोंके लिए.

प्रभात खबर, 30 अक्टूबर 2019

Sunday, October 20, 2019

हिंदी सिनेमा का चमकता सितारा: अमिताभ बच्चन

पिछले साल अमिताभ बच्चन ने ट्विटर पर लिखा था कि भारतीय फिल्म उद्योग का इतिहास हमेशा ‘दिलीप कुमार से पहले और दिलीप कुमार के बाद’ के रूप में लिखा जायेगा. भारतीय सिनेमा के इतिहास में युगों और उनकी प्रवृत्तियों की ठीक ढंग शिनाख्त अभी नहीं हुई है. भले अमिताभ की पीढ़ी के पंसदीदा अभिनेता दिलीप कुमार हैं, लेकिन भारतीय सिनेमा के सबसे चर्चित और लोकप्रिय सितारे की जब बात होगी, तब बिना किसी दुविधा के अमिताभ बच्चन का ही नाम लिया जायेगा. पिछले पचास वर्षों से बॉलीवुड के आकाश में उनकी चमक बरकरार है. यह भी महज एक संयोग ही है कि दादा साहब फाल्के पुरस्कार के 50वें वर्ष में उन्हें यह सम्मान दिया गया.
पचास और साठ के दशक की रोमांटिक फिल्मों में नेहरूयुगीन आधुनिकता, राष्ट्र-निर्माण के सपनों की अभिव्यक्ति मिलती है. अमिताभ की सिनेमा-यात्रा का वितान नक्सलबाड़ी आंदोलन की पृष्ठभूमि से होते हुए आपातकाल, उदारीकरण-भूमंडलीकरण और नयी सदी में बदलते भारत तक फैला हुआ है. ‘सात हिंदुस्तानी’ (1969) फिल्म से जारी इस सफर में उन्होंने परदे पर विभिन्न किरदारों को जिया और किसी एक छवि में कैद नहीं हुए.
हालांकि, ‘एंग्री यंग मैन’ छवि की चर्चा आज भी होती है. सलीम-जावेद की जोड़ी ने अमिताभ के इस रूप को परदे पर मूर्त किया. ‘दीवार’ (1975) फिल्म का विजय व्यवस्था से विद्रोह करता हुआ, हाशिये पर पड़ा एक आम आदमी है. इस आम आदमी के असंतोष, क्षोभ, हताशा, सपने और मोहभंग को अमिताभ ने स्वर दिया. एक बातचीत में जावेद अख्तर ने कहा है, ‘इसमें आश्चर्य नहीं कि उस समय की नैतिकता यह थी कि यदि आप न्याय की चाहत रखते हैं, तो उसके लिए आपको खुद लड़ाई लड़नी होगी.
फिल्म ‘जंजीर’ का पुलिस इंस्पेक्टर ‘दीवार’ में एक स्मगलर बन जाता है. अमिताभ की इस छवि के निर्माण में तत्कालीन राजनीति, सामाजिक व्यवस्था और शहरी मध्यमवर्ग की बड़ी भूमिका थी. विजय ‘एंटी होरी’ बनकर आजादी, न्याय और समानता की अवधारणा को परदे पर पुनर्परिभाषित करता है.
इसी दौर में हिंदी के कवि धूमिल ने अपनी कविता में पूछा था- ‘क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है/ जिन्हें एक पहिया ढोता है/ या इसका कोई खास मतलब होता है?’
हालांकि, अमिताभ की फिल्में जब ‘मेलोड्रामा’ और ‘फैंटेसी’ के सहारे यथार्थ को परदे पर रच रही थीं, ठीक उसी समय बांग्ला, मलयालम और हिंदी के समांतर सिनेमा में राजनीतिक सवालों, सत्ता के दमन और आम आदमी के ‘आक्रोश’ की कलात्मक अभिव्यक्ति भी हुई. लेकिन यह सच है कि पॉपुलर और व्यावसायिक सिनेमा का अपना अर्थशास्त्र है, जिसे समांतर सिनेमा के मानकों से नहीं समझा जा सकता.
पूंजीवादी समाज की सांस्कृतिक जरूरतों को बॉलीवुड पूरा करता रहा है, अमिताभ इसके प्रतिनिधि कलाकार हैं. सिनेमा के अध्येताओं ने अमिताभ के 80 के दशक की फिल्मों के प्रसंग में परदे पर ‘दर्शन’ के तत्व को रेखांकित किया है, जैसा कि भगवद् भक्ति में होता है. ‘मैं आजाद हूं’ (1989) फिल्म में यह मसीहाई अंदाज स्पष्ट है. इसी दशक में अमिताभ का ‘स्टारडम’ ढलान पर था और कई फिल्में बॉक्स ऑफिस पर पिट गयीं.
नयी आर्थिक नीतियों के बाद समृद्ध हो रहे भारत में सैटेलाइट और केबल टीवी के माध्यम से टीवी और सिनेमा के बीच एक एक नया संबंध उभरा. ‘कंप्यूटर जी’ से संवाद करते अमिताभ बच्चन रुपहले परदे से उतर कर आम दर्शकों के ड्राइंग रूम में पहुंच गये.
साथ ही पिछले दशकों में व्यावसायिक और समांतर सिनेमा की रेखा भी कुछ धुंधली हुई है. फिल्म ‘ब्लैक’, ‘पा’, ‘पीकू’, ‘पिंक’ आदि फिल्मों में उन्होंने जिस किरदार को जिया है, वह समकालीन समय और संवेदना के बहुत करीब है, जिसकी व्याख्या सत्तर के दशक के परिवेश के परिप्रेक्ष्य में नहीं की जा सकती. ‘मिलेनियल पब्लिक’ और ‘मेलोड्रामैटिक पब्लिक’ दोनों से उनका राब्ता कायम है.

(प्रभात खबर, 20 अक्टूबर 2019)

Saturday, October 19, 2019

बहस-मुबाहिस के पक्ष में अभिजीत बनर्जी


इस बार अर्थशास्त्र के लिए नोबेल पुरस्कार अमेरिकी नागरिक अभिजीत बनर्जी, एस्थर डुफलो और माइकल क्रेमर को गरीबी उन्मूलन के लिए किए गए उनके शोध के लिए दिया गया है. प्रोफेसर अभिजीत बनर्जी की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा भारत में हुई और वह प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता से अर्थशास्त्र में ग्रेजुएशन के बाद एमए करने जेएनयू, दिल्ली आ गए थे. चूँकि बनर्जी की जड़ें भारत में है, इस वजह से उनकी उपलब्धियों पर गर्व स्वाभाविक है और मीडिया में जेएनयू की खास तौर पर चर्चा है.

वर्ष 2016 से जेएनयू की चर्चा में नकारात्मक तत्वों का बोलबाला रहा है. इसमें देश की वर्तमान राजनीति और सोशल मीडिया का भी योगदान है. उल्लेखनीय है कि वर्ष 1969 में जब जेएनयू की स्थापना हुई, देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन का दौर था. एक तरह से जेएनयू की जन्मकुंडली में ही राजनीतिक सरोकारों और हाशिए पर रहने वाले समाज के लोगों के प्रति संवेदना का भाव रहा है.

प्रतिष्ठित दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्सके बदले जेएनयू में नामांकन उन्होंने क्यों लिया इसे याद करते हुए अभिजीत बनर्जी ने खुद लिखा है कि जेएनयू की फिजा अलग थी. जेएनयू की ऊबड़-खाबड़, बेढ़ब खूबसूरती कुछ अलग थी जबकि डी-स्कूल (दिल्ली स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स) किसी भी दूसरे भारतीय संस्थान की तरह ही था. खादी कुर्ते में, पत्थरों पर बैठे बहस करते छात्रों में मैंने खुद को देखा था.

एक गर्बीली गरीबी और बहस-मुबाहिसा की परंपरा जेएनयू में आज भी कायम है. वामपंथी रुझान के बावजूद जेएनयू एक लोकतांत्रिक जगह है.
अभिजीत बनर्जी अपनी किताब के साथ

पिछले कुछ वर्षों में सार्वजनिक दुनिया में लोकतांत्रिक ढंग से बहस-मुबाहिसा के लिए जगह सिकुड़ी है. यह बात ना सिर्फ राजनीति बल्कि मीडिया के लिए भी सच है. प्रसंगवश, एस्थर डुफलो के साथ लिखी हाल ही में प्रकाशित उनकी किताब- गुड इकानामिक्स फॉर हार्ड टाइम्समें उन्होंने जिक्र किया है कि किस तरह लोकतंत्र के ऊपर सोशल मीडिया का नाकारात्मक प्रभाव पड़ा है. उन्होंने लिखा है: इंटरनेट का विस्तार और सोशल मीडिया के विस्फोट से पक्षपातपूर्ण रवैए में बढ़ोतरी हुई है.इस संदर्भ में वे फेक न्यूज और सोशल मीडिया में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा को भी रेखांकित करते हैं जिससे विचार-विमर्श प्रभावित हुआ है.

वर्ष 2016 में जब जेएनयू में तथाकथित देश विरोधी नारे लगाने की बात को लेकर सरकार ने छात्र नेताओं को जेल भेजा तब उन्होंने जोर देकर कहा था देश को जेएनयू जैसे सोचने-विचारने वाली जगह की ज़रूरत है और सरकार को निश्चित तौर पर दूर रहना चाहिए. प्रसंगवश, वर्ष 1983 में कुलपति प्रोफेसर पीएन श्रीवास्तव के कार्यकाल के दौरान जब जेएनयू में छात्र आंदोलन हुआ था तब सैकड़ों छात्रों को तिहाड़ जेल जाना पड़ा. अभिजीत बनर्जी भी उनमें शामिल थे. हालांकि बाद में सरकार ने सारे आरोप वापस ले लिए थे.

(राजस्थान पत्रिका, 19 अक्टूबर 2019)