हम जिन्हें नहीं जानते या जिनसे हमारा परिचय नहीं होता है उनके बारे में हम तरह-तरह के ख़्याल बुनते हैं. ये ख़्याल आम तौर पर नकारात्मक ही होते हैं. और यदि वह शख़्स पाकिस्तान से ताल्लुक़ रखता हो तो हमारा पूर्वाग्रह अपने चरम पर होता है.
पाकिस्तान के बारे में सामान्य ज्ञान को छोड़ कर जो कुछ भी जानकारी हमें भारतीय पॉपुलर मीडिया से मिलती है वह आधी-अधूरी होती है. पाकिस्तान की वही ख़बरें हमारे अख़बारों की सुर्खियाँ बनती हैं जो अमूमन ‘मौत की ख़बरों’ से वाबस्ता होती है या जिससे हमारे राष्ट्र और राष्ट्रीयता को प्रत्यक्षतः किसी तरह का नुकसान पहुँचने की संभावना नहीं रहती है.
पाकिस्तान के मामले में भारतीय मीडिया राज्य और सत्ता के नज़रिए से ही ख़बरों को देखने और उन्हें विश्लेषित करने को अभिशप्त लगता है. किसी भी महीने यदि आप भारतीय अख़बारों पर नज़र डालें तो इस तरह की सुर्खियाँ जो दिसंबर, 2007 में नवभारत टाइम्स, दिल्ली में छपी हैं- पाकिस्तानी क्रूज मिसाइलों का जवाब है हमारे पास , एफएम मौलाना बोला- खून बहाने को तैयार, पाक ने टेस्ट की एटमी मिसाइल आदि, आदि देखने को मिल जाएँगी. और ख़बरिया चैनलों की बात जितनी कम की जाए उतना बेहतर. वर्ष 2001 में भारत के संसद भवन पर हुए आतंकवादी हमले के बाद ‘आजतक’ जैसे चैनलों ने युद्ध का समां बाँधने और युयुत्सु मानसिकता तैयार करने में जो भूमिका अदा कि थी वह जगज़ाहिर है.
पिछले महीने दक्षिण एशिया के क्षेत्र में संघर्ष निवारण और शांति स्थापना के लिए काम कर रही दिल्ली स्थित एक संस्था विसकाम्प (Women in Security Conflict Management and Peace) के हफ़्ते भर के एक वर्कशाप में जब तक़रीबन 25 युवा पाकिस्तानी शोधार्थियों, ऐक्टिविस्टों से बात-चीत करने और उनके संग उठने-बैठने का मौक़ा मिला तो मीडिया की वज़ह से जो ‘स्टरियोटाइप’ छवि मन में बैठी हुई थी उसमें ज़बरदस्त मोड़ आया.
गुल, नज़ूरा और फ़ैजा की चितांएँ हमसे अलग कहाँ थी. सरमद और गुलाम भाई तो हमारी तरह ही यारबाश हैं. कैसे अर्शी और नाबिआ रात के 10-11 बजे जेएनयू की फिजाओं में इस्लामाबाद के क़ायदे आज़म यूनिवर्सिटी की खुशबू ढूँढ रहीं थी. गुल दिल्ली हाट और ख़ान मार्केट में तो ऐसे तफ़रीह कर रहीं थी जैसे वो कराची या लाहौर में हो. संभव है कि यदि मैं भी लाहौर के बाज़ार में घूमूँ तो मुझे भी कुछ ऐसा ही लगे. कब से सुनता-पढ़ता आ रहा हूँ कि ‘जिन ने लाहौर नहीं वेख्या, वो जमया ही नहीं.’ पर यह कब संभव होगा?
इससे पहले नवंबर 2006 में एक सेमिनार में पाकिस्तान के एक शोधार्थी जवाद सैयद से आस्ट्रेलिया में मुलाक़ात हुई थी. साहित्य-संगीत में रूचि होने के नाते फ़ैज़ की शायरी और फ़रीदा ख़ानम की ग़ज़लों से इश्क तो पुराना था लेकिन किसी पाकिस्तानी नागरिक से पहली बार मेरा मुखामुखम इस तरह हुआ.
मिलते ही ऐसा लगा कि जैसे हम एक-दूसरे को वर्षों से जान रहे हो. उनकी दिलचस्पी मीर, ग़ालिब और फ़ैज में काफ़ी थी. वे कहने लगे कि मेरी उर्दू काफ़ी अच्छी है और मैं कहता रहा कि आपकी हिन्दी. बहरहाल उनसे हुई दोस्ती का सिलसिला जारी है. आजकल वे लंदन में हैं. अपनी ख़तो-किताबत उनसे होते रहती है.
सवाल है कि हम अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के बारे में कितना जानते हैं? या जो जानते हैं वो कितना सच है, कितना झूठ. ठीक इसी तरह एक आम पाकिस्तानी भारत के बारे में कितना कुछ जानता है जिसमें झूठ-सच दूध-पानी की तरह मिला होता है, जिसे अलगाना मुश्किल है.
राजनीति के अलावे सामाजिक-साँस्कृतिक एक-सी ज़मीन जो दोनों देशों के बीच है उस पर कितनी दूर हम इन साठ सालों में चल पाएँ हैं? दो देशों के बीच चली आ रही राजनीतिक लड़ाई में सबसे ज़्यादा साझी संस्कृति की जो बुनियाद है वही प्रभावित हुई है. क्योंकि राजनीतिक लड़ाई इन्हीं साँस्कृतिक हथियारों से लड़ी जाती रही है.
अमरीकी पत्रिका न्यूज़वीक कहती है कि ‘पाकिस्तान धरती पर सबसे ख़तरनाक जगह है’ और भारतीय मीडिया इस ख़बर को लपक कर कहती है कि हम तो यह कबसे कह रहे थे.
लेकिन ख़बरें और भी हैं, जो पाकिस्तानी लेखक मोहसिन हामिद की ‘रिलकटेंट फंडामेंटलिस्ट’ जैसी किताबें पढ़ने पर हमें झकझोरती हैं या पाकिस्तानी नागरिकों से रू-ब-रू होने पर हमें पता चलता है.
वर्कशाप में ही प्रसिद्ध पाकिस्तानी फिल्म निर्देशक जावेद जब्बार की अगले महीने रिलीज़ होने वाली फ़िल्म 'रामचंद पाकिस्तानी' की कुछ झलकियाँ देखने को मिली. यह अपने आप में पहली पाकिस्तानी फ़िल्म है जो पाकिस्तान में रहने वाले अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है. इस फ़िल्म में अभिनेत्री नंदिता दास समेत कई भारतीय कलाकारों का योगदान है. जावेद कहते हैं कि यह फ़िल्म भारत-पाकिस्तान के लोगों में मन में जो 'स्टरियोटाइप' छवियाँ बैठी हुई है उन्हें तोड़ने की एक कोशिश है. साथ ही वे कहते हैं- Unfamiliarity breeds contempt. यानि यदि मेल-जोल न हो तो एक-दूसरे के प्रति तिरस्कार या अवज्ञा का भाव ही मन में जन्म लेता है.
इससे पहले नवंबर 2006 में एक सेमिनार में पाकिस्तान के एक शोधार्थी जवाद सैयद से आस्ट्रेलिया में मुलाक़ात हुई थी. साहित्य-संगीत में रूचि होने के नाते फ़ैज़ की शायरी और फ़रीदा ख़ानम की ग़ज़लों से इश्क तो पुराना था लेकिन किसी पाकिस्तानी नागरिक से पहली बार मेरा मुखामुखम इस तरह हुआ.
मिलते ही ऐसा लगा कि जैसे हम एक-दूसरे को वर्षों से जान रहे हो. उनकी दिलचस्पी मीर, ग़ालिब और फ़ैज में काफ़ी थी. वे कहने लगे कि मेरी उर्दू काफ़ी अच्छी है और मैं कहता रहा कि आपकी हिन्दी. बहरहाल उनसे हुई दोस्ती का सिलसिला जारी है. आजकल वे लंदन में हैं. अपनी ख़तो-किताबत उनसे होते रहती है.
सवाल है कि हम अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान के बारे में कितना जानते हैं? या जो जानते हैं वो कितना सच है, कितना झूठ. ठीक इसी तरह एक आम पाकिस्तानी भारत के बारे में कितना कुछ जानता है जिसमें झूठ-सच दूध-पानी की तरह मिला होता है, जिसे अलगाना मुश्किल है.
राजनीति के अलावे सामाजिक-साँस्कृतिक एक-सी ज़मीन जो दोनों देशों के बीच है उस पर कितनी दूर हम इन साठ सालों में चल पाएँ हैं? दो देशों के बीच चली आ रही राजनीतिक लड़ाई में सबसे ज़्यादा साझी संस्कृति की जो बुनियाद है वही प्रभावित हुई है. क्योंकि राजनीतिक लड़ाई इन्हीं साँस्कृतिक हथियारों से लड़ी जाती रही है.
अमरीकी पत्रिका न्यूज़वीक कहती है कि ‘पाकिस्तान धरती पर सबसे ख़तरनाक जगह है’ और भारतीय मीडिया इस ख़बर को लपक कर कहती है कि हम तो यह कबसे कह रहे थे.
लेकिन ख़बरें और भी हैं, जो पाकिस्तानी लेखक मोहसिन हामिद की ‘रिलकटेंट फंडामेंटलिस्ट’ जैसी किताबें पढ़ने पर हमें झकझोरती हैं या पाकिस्तानी नागरिकों से रू-ब-रू होने पर हमें पता चलता है.
वर्कशाप में ही प्रसिद्ध पाकिस्तानी फिल्म निर्देशक जावेद जब्बार की अगले महीने रिलीज़ होने वाली फ़िल्म 'रामचंद पाकिस्तानी' की कुछ झलकियाँ देखने को मिली. यह अपने आप में पहली पाकिस्तानी फ़िल्म है जो पाकिस्तान में रहने वाले अल्पसंख्यक हिन्दू समुदाय के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है. इस फ़िल्म में अभिनेत्री नंदिता दास समेत कई भारतीय कलाकारों का योगदान है. जावेद कहते हैं कि यह फ़िल्म भारत-पाकिस्तान के लोगों में मन में जो 'स्टरियोटाइप' छवियाँ बैठी हुई है उन्हें तोड़ने की एक कोशिश है. साथ ही वे कहते हैं- Unfamiliarity breeds contempt. यानि यदि मेल-जोल न हो तो एक-दूसरे के प्रति तिरस्कार या अवज्ञा का भाव ही मन में जन्म लेता है.
(पहली तस्वीर में बाएँ से नूरअली, सरमद, अर्शी, आमिर, तारिक, फैज़ा, सहर और हूमेरा. दूसरी तस्वीर में गुलरुख़ के साथ लेखक.जनसत्ता, नई दिल्ली से 15 फरवरी 2008 को दुनिया मेरे आगे कॉलम के तहत प्रकाशित)