दस-ग्यारह साल का रहा होऊँगा… माँ खाना खाने के लिए ओसारे से आवाज़ लगाती और मैं कहता कि होम वर्क पूरा करके खाऊँगा. “जल्दी करो, थीसिस लिख रहे हो क्या?” माँ कहा करती थी.
ग्रेजुएशन के ठीक दस साल बाद जब पीएचडी थीसिस की लिखाई पूरी कर रहा हूँ माँ की कही ये बात पिछले कई दिनों से बरबस याद आ रही है. पिछले कुछ महीनों से रोज़ माँ फ़ोन पर पूछती है कि घर कब आओगे. क़रीब 15 वर्षों से घर से दूर हूँ लेकिन पहली बार ऐसा हुआ कि डेढ़ साल से उनसे मिल नहीं पाया हूँ...
पापा कहते थे कि ‘स्कॉलर बनो’. मिथिला के उस कूपमंडूक समाज में पता नहीं उनके दिमाग़ में यह बात कैसे आई. मैथिलों ने ‘पोथी-पतरा-पाग’ में से पोथी को बोझ समझ कर बहुत पहले ही त्याग दिया लेकिन पतरा और पाग से वे चिपके रहे. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “पंडिताई भी एक बोझ है-जितनी ही भारी होती है उतनी ही तेजी से डुबाती भी है. जब वह जीवन का अंग बन जाती है तो सहज हो जाती है।” पर क्या जीवन में सहजता आसानी से मिल पाती है. शायद शोध आत्मपरिष्कार का भी एक माध्यम है.
लेकिन इस शोध का, इस ‘अनामदास के पोथे’ का मोल क्या है? जब मैं अपने इस शोध का निष्कर्ष लिख रहा हूँ, लैपटॉप पर मेरी अंगुलियाँ बार-बार रुक जा रही है...कुछ काम का लिखा भी या सिर्फ़ कागद ही कारे किए..
मेरे शोध निर्देशक प्रोफेसर वीर भारत तलवार एक ख़्यात शोध अध्येता (रिसर्च स्कॉलर) हैं. वे कहा करते हैं कि ‘शोध वही कर सकता है जो शोध किए बिना नहीं रह सकता है।’
पता नहीं आज के दौर में इस जुनून के क्या मानी है? तथ्य और सत्य की खोज क्या आप अपने समय और समाज के यथार्थ से बेख़बर होकर कर सकते हैं? बाहर बाज़ार में तो हाय-तौबा मची है. शार्ट कट के रास्ते सब कुछ संभव है, शोध नहीं. ऐसा नहीं कि हिंदी समाज के पास सांस्कृतिक पूँजी का अभाव है, फिर शोध के प्रति यह उदासीनता क्यों?
(चित्र में, माँ के साथ शोधार्थी)