बैद्यनाथ मिश्र 'यात्री' उर्फ़ नागार्जुन यायावर थे. कभी कलकत्ता, तो कभी सहारनपुर, पटियाला, लाहौर, फ़िरोजपुर, अबोहर तो कभी सारनाथ, लंका या तिब्बत. उनकी यात्रा जीवन पर्यंत थमी नहीं.
अपनी इस यायावरी प्रवृत्ति के चलते वे अपने गाँव तरौनी में भी कभी जतन से टिके नहीं, पर तरौनी उनसे ताउम्र नहीं छूटा. साहित्य में भी नहीं, जीवन में भी नहीं.
उनके साहित्य संसार पर यदि हम गौर करें तो मिथिला का समाज प्रमुखता से चित्रित हुआ है.
पर साहित्य की भावभूमि भले मिथिला का गाँव-समाज हो, पर वह अपनी संवेदना में अखिल भारतीय है. इस तरह कविता में कबीर से और उपन्यासों में वे प्रेमचंद की परंपरा से जुड़ते हैं.
एक प्रवासी की पीड़ा व्यक्त करते हुए नागार्जुन ने अपनी एक कविता में लिखा है:
“याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते धान याद आते कमल, कुमुदनी और ताल मखान
याद आते शस्य श्यामल जनपदों के रूप-गुण अनुसार ही
रखे गए वे नाम”
मिथिला अपनी प्राकृतिक छटा के लिए विख्यात है. मैं आषाढ़ के महीने में दरभंगा ज़िले में स्थित उनके गाँव तरौनी गया. डबरे में मखान के पत्तों पर पानी की बूँदें अठखेलियाँ कर रही थीं. आम के बगीचों से ‘कलकतिया’ और ‘सरही’ आमों की खुशबू चारों ओर फैल रही थी.
खेतिहर किसान धान की रोपनी करते मिले. पगडंडियों के किनारे कीचड़ में गाय-भैंस-सूअर एक साथ लोटते दिखे.
एक ओर खपरैल और दूसरी ओर ईंट से बने घरों के बीचों-बीच नागार्जुन के आंगन में फूस से छाया हुआ मड़वा और घर की दीवारों पर मिथिला पेंटिंग की महक थी. आंगन में आम से लदे पेड़ की डाल लटक रही थी. घर के ठीक सामने पोखर के महार पर कनेल और मौलश्री के फूल अपनी सुगंधि बिखेर रहे थे.
बच्चों को हांकते ‘दुखरन मास्टर’, ‘तालाब की मछलियाँ’ रूपक में बंधी स्त्री और अपने हक की लड़ाई लड़ता ‘बलचनमा’. नागार्जुन के साहित्य का लोक अपनी संपूर्णता में मेरी आँखों के सामने था.
लोक के रचनाकार
नागार्जुन इस लोक से अपनी शक्ति ग्रहण करते हैं.
लोक जीवन, लोक संस्कृति और लोक चेतना उनके साहित्य की विशिष्टता है. क्या यह आश्चर्य नहीं कि कवि विद्यापति के क़रीब 500 वर्ष बाद मिथिला से कोई कवि अखिल भारतीय स्तर पर अपने स्वर को बुलंद करता है.
नागार्जुन हिंदी साहित्य की एक बिखरती परंपरा को फिर से जोड़ते हैं. उन्होंने मैथिली से अपने साहित्य जीवन की शुरूआत की और हिंदी के जनकवि के रूप में चर्चित हुए. मैथिली में रचित कविता संग्रह 'पत्रहीन नग्न गाछ' और उपन्यास ‘पारो’ आधुनिक मैथिली साहित्य की एक थाती है.
मिथिला में पंडितों की लंबी परंपरा रही है.
लेकिन वे ‘पोथी-पतरा-पाग’ में ही ज़्यादातर सिमटे रहे. अपनी विद्वता की बोझ से दबे रहे. लोक की परंपरा उनके लिए कोई मानी नहीं रखा. विद्यापति जैसे रचनाकर अपवाद हैं.
संस्कृत के पंडित होने के बावजूद नागार्जुन ने पंडिताई को बोझ नहीं बनने दिया. उन्होंने जन जीवन से जुड़कर साहित्य में और जीवन में सहजता पाई. उनका पूरा साहित्य जन के जीवट रस से सिक्त है.
उन्होंने अपनी एक कविता में लिखा है: कवि ! मैं रूपक हूँ दबी हुई दूब का...’ समाज के बहुसंख्यक जन के प्रति उनकी संवेदना, प्रतिबद्धता का स्रोत इस रूपक में निहित है.
अपनी इस यायावरी प्रवृत्ति के चलते वे अपने गाँव तरौनी में भी कभी जतन से टिके नहीं, पर तरौनी उनसे ताउम्र नहीं छूटा. साहित्य में भी नहीं, जीवन में भी नहीं.
उनके साहित्य संसार पर यदि हम गौर करें तो मिथिला का समाज प्रमुखता से चित्रित हुआ है.
पर साहित्य की भावभूमि भले मिथिला का गाँव-समाज हो, पर वह अपनी संवेदना में अखिल भारतीय है. इस तरह कविता में कबीर से और उपन्यासों में वे प्रेमचंद की परंपरा से जुड़ते हैं.
एक प्रवासी की पीड़ा व्यक्त करते हुए नागार्जुन ने अपनी एक कविता में लिखा है:
“याद आता मुझे अपना वह तरौनी ग्राम
याद आतीं लीचियां, वे आम
याद आते धान याद आते कमल, कुमुदनी और ताल मखान
याद आते शस्य श्यामल जनपदों के रूप-गुण अनुसार ही
रखे गए वे नाम”
मिथिला अपनी प्राकृतिक छटा के लिए विख्यात है. मैं आषाढ़ के महीने में दरभंगा ज़िले में स्थित उनके गाँव तरौनी गया. डबरे में मखान के पत्तों पर पानी की बूँदें अठखेलियाँ कर रही थीं. आम के बगीचों से ‘कलकतिया’ और ‘सरही’ आमों की खुशबू चारों ओर फैल रही थी.
खेतिहर किसान धान की रोपनी करते मिले. पगडंडियों के किनारे कीचड़ में गाय-भैंस-सूअर एक साथ लोटते दिखे.
एक ओर खपरैल और दूसरी ओर ईंट से बने घरों के बीचों-बीच नागार्जुन के आंगन में फूस से छाया हुआ मड़वा और घर की दीवारों पर मिथिला पेंटिंग की महक थी. आंगन में आम से लदे पेड़ की डाल लटक रही थी. घर के ठीक सामने पोखर के महार पर कनेल और मौलश्री के फूल अपनी सुगंधि बिखेर रहे थे.
बच्चों को हांकते ‘दुखरन मास्टर’, ‘तालाब की मछलियाँ’ रूपक में बंधी स्त्री और अपने हक की लड़ाई लड़ता ‘बलचनमा’. नागार्जुन के साहित्य का लोक अपनी संपूर्णता में मेरी आँखों के सामने था.
लोक के रचनाकार
नागार्जुन इस लोक से अपनी शक्ति ग्रहण करते हैं.
लोक जीवन, लोक संस्कृति और लोक चेतना उनके साहित्य की विशिष्टता है. क्या यह आश्चर्य नहीं कि कवि विद्यापति के क़रीब 500 वर्ष बाद मिथिला से कोई कवि अखिल भारतीय स्तर पर अपने स्वर को बुलंद करता है.
नागार्जुन हिंदी साहित्य की एक बिखरती परंपरा को फिर से जोड़ते हैं. उन्होंने मैथिली से अपने साहित्य जीवन की शुरूआत की और हिंदी के जनकवि के रूप में चर्चित हुए. मैथिली में रचित कविता संग्रह 'पत्रहीन नग्न गाछ' और उपन्यास ‘पारो’ आधुनिक मैथिली साहित्य की एक थाती है.
मिथिला में पंडितों की लंबी परंपरा रही है.
लेकिन वे ‘पोथी-पतरा-पाग’ में ही ज़्यादातर सिमटे रहे. अपनी विद्वता की बोझ से दबे रहे. लोक की परंपरा उनके लिए कोई मानी नहीं रखा. विद्यापति जैसे रचनाकर अपवाद हैं.
संस्कृत के पंडित होने के बावजूद नागार्जुन ने पंडिताई को बोझ नहीं बनने दिया. उन्होंने जन जीवन से जुड़कर साहित्य में और जीवन में सहजता पाई. उनका पूरा साहित्य जन के जीवट रस से सिक्त है.
उन्होंने अपनी एक कविता में लिखा है: कवि ! मैं रूपक हूँ दबी हुई दूब का...’ समाज के बहुसंख्यक जन के प्रति उनकी संवेदना, प्रतिबद्धता का स्रोत इस रूपक में निहित है.
(बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए, 6 मार्च 2011)