पुराने घर में एक टीन का बक्सा था जिसमें कुछ किताबें भरी थी. उन किताबों को टटोलना, बक्से से बाहर-भीतर करना बचपन में हम भाई-बहनों के खेल का हिस्सा था. उनमें एक पतली सी किताब ‘गीतांजलि’ भी थी. हिंद पॉकेट बुक्स की हिंदी में. बक्से में विद्यापति, प्रेमचंद, नागार्जुन, हरिमोहन झा और शरतचंद्र की किताबें भी रखी थी.
मिथिला के एक अनाम गाँव में यह हमें बचपन में ही बता दिया गया था कि रवींद्रनाथ ठाकुर हिंदी के नहीं, बांग्ला के लेखक-कवि हैं. जबकि हमें यह बात बहुत बाद में समझ आई कि शरतचंद्र हिंदी के नहीं, बांग्ला के लेखक हैं!
बहरहाल, कुछ वर्ष पहले एक बातचीत के दौरान समाजशास्त्री आशीष नंदी ने यह जानने के बाद कि मैं दरभंगा-मधुबनी जिले से ताल्लुक रखता हूँ, कहा कि कभी बंगाल की संस्कृति दरभंगा के रास्ते ही फली-फूली. उन्होंने बताया था कि ‘दरभंगा असल में 'द्वार बंग' का ही परिष्कृत रूप है और मध्यकाल में मध्य एशिया से आने वाले व्यापारी दरभंगा के रास्ते ही बंगाल जाते थे.’
एक जमाने मे इस बात पर खूब बहस हुई थी कि विद्यापति मैथिली के नहीं बांग्ला के रचनाकार हैं. खुद रवींद्रनाथ की आरंभिक कविताओं में विद्यापति के कोमलकांत पदावली की छाप है. उनकी कविताओं में मनुष्य प्रेम और भक्ति की अनुगूँज जो एक साथ है उसका उत्प्रेरक कहीं ना कहीं विद्यापति की कविताएँ हैं. लेकिन इस बात की चर्चा शायद ही कहीं मिलती है कि मैथिली साहित्य या समाज पर रवींद्रनाथ का क्या प्रभाव रहा है.
नागार्जुन जैसे रचनाकार अपवाद हैं जिन्होंने ‘रविबाबू’ जैसी कविता ही नहीं लिखी बल्कि बांग्ला में भी कविताएँ रची.
पिछले कुछ दिनों से मेरे मन में यह बात बार बार उठ रही है कि रवींद्रनाथ ठाकुर मैथिली समाज के लिए क्यों बाहरी रहे. जबकि मैथिली और बांग्ला समाज के भद्रलोक और मध्य वर्ग के खान-पान, पहनावे, चित्रकारी, भाषा में काफी समानता है. बात मछली-भात खाने की हो, भाषा की मधुरता की, धोती-कुर्ता पहनावे की हो या मिथिला पेंटिंग या पट चित्रकारी की!
कुछ वर्ष पहले हिंदी के एक वरिष्ठ आलोचक ने भारतीय उपन्यासों को लेकर हो रही चर्चा के दौरान टैगोर रचित ''गोरा' को 20वीं सदी का सबसे बेहतरीन उपन्यास कहा तो मुझे आश्चर्य हुआ. संभव है कि इसमें अतिशोयक्ति हो लेकिन रवींद्रनाथ के साहित्य को लेकर हमारा हिंदी समाज एक तरह से उदासीन रहा है. बल्कि यों कहें कि उन्हें लेकर लेकर हिंदी के साहित्यक हलकों में एक तरह का दुचित्तापन रहा है. प्रश्न है कि क्या रवींद्रनाथ ठाकुर के साहित्य के बारे में विचार-विमर्श करने के लिए बांग्ला भाषा-भाषी होना जरूरी है?
रवींद्रनाथ विश्व कवि है. उन्हें इस बात का गौरव प्राप्त है कि भारत और बांग्लादेश का राष्ट्रगान उनके नाम है. उनके जन्म के डेढ़ सौ वर्ष पूरे होने पर दोनों देशों में रवींद्रनाथ के सम्मान में कई आयोजन एक साथ किए जा रहे हैं.
दक्षिण एशिया में राजनीतिक कटुता और द्वेष के माहौल के बीच रवींद्रनाथ के साहित्य, संगीत और शिक्षा के क्षेत्र में योगदान को याद करने के लिए दो पड़ोसी देशों का एक मंच पर साथ आना सुखद और स्वागत योग्य है.
पर सवाल है कि बांग्ला समाज के बाहर रवींद्रनाथ के प्रति बेरुखी क्यो दिखाई देती है? क्यों रवींद्रनाथ अभी भी हिंदी प्रदेश के पाठकों के लिए एक बाहरी रचनाकार बने हुए हैं?
इस वर्ष जहाँ रवींद्रनाथ की डेढ़ सौंवीं जयंती मनाई जा रही है, वहीं हिंदी-मैथिली के कवि नागार्जुन की भी भी सौंवीं वर्षगांठ इसी साल चल रही है. साथ ही अज्ञेय, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल की भी जन्मशती हिंदी प्रदेश में मनाई जा रही है. इसका विश्लेषण करने की जरुरत है कि हिंदी के कवियों पर क्या रवींद्रनाथ का कोई प्रभाव रहा है.
दुर्भाग्यवश भारत के विश्वविद्यालयों में भाषा और साहित्य के केंद्रों में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन और शोध पर कोई जोर नहीं है.
अगर विश्वविद्यालयों में तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन, अध्यापन, शोध को बढ़ावा दिया जाए तो विश्व कवि के साहित्य के दायरे का काफी विस्तार हो सकेगा. हम उनके कृतित्व और व्यक्तित्व के पहलूओं पर खुल कर विचार कर सकेंगे.
हाल ही में देश में दक्षिण एशिया विश्वविद्यालय समेत कई नए केंद्रीय विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई है. तुलनात्मक साहित्य के अध्ययन-अध्यापन की दिशा में ये विश्वविद्यालय अगर कदम बढाएँ तो सही मायनों में रवींद्रनाथ के प्रति यह सच्ची श्रद्धांजलि होगी.