Monday, March 16, 2020

समंदर किनारे संस्कृतियों का संगम: पांडिचेरी


पुडुचेरी (पांडिचेरी) में 'ऑरविले बीच पर घूमते हुए अनायास मन में प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक अल्बेयर कामू के उपन्यास द आउटसाइडरका ध्यान आया. आगे-पीछे देखा, कहीं कोई नहीं था. तट पर दूर कुछ मछुआरे जाल को मिल-जुल कर सुलझा रहे थे. कुछ अपनी डोंगियों को लेकर समंदर में उतर चुके थे. सूर्योदय हो रहा था. लकड़ियों के कॉटेज और खर-पतवार से छाए घरों के बीच से गुजरते हुए मुझे लगा कि समुद्र तट पर कहीं कोई गोली चलेगी या चाकू. जैसा कि उपन्यास में होता है. यह मेरे मन का वहम था.

ऐसा लगता है कि कोरोना विषाणु से संक्रमण को लेकर असुरक्षा और भय शहर में हर जगह मौजूद है. कामू के उपन्यासों मसलन, ‘प्लेगमें भी यह बेतुकापन और असुरक्षा अस्तित्ववादी विमर्श की शक्ल में आता है. पूरे देश-दुनिया से पांडिचेरी में साल भर पर्यटक आते रहते हैं. सड़कों पर, मोटर साइकिल से घूमते, होटलों में मौज मनाते वे बेफ्रिक से दिख रहे हैं. असल में पांडिचेरी का मिजाज ही बेफ्रिकी का है. समंदर के किनारे बसे इस शहर सबसे का बड़ा आकर्षण पूरे शहर में फैले साफ-सुथरे समुद्र तट हैं. हर तट ही अपनी खासियत हैं. जैसे सेरेनिटी बीचपर सूर्योदय देखने पर्यटक जाते हैं, वहीं पैराडाइज बीचपर सर्फिंग का लुत्फ लेने.

यह शहर पहले मछुआरों का छोटा सा गाँव हुआ करता था, जिसे औपनिवेशिक शासकों ने कारोबार के लिए एक सफल बंदरगाह में तब्दील किया. यह शहर कई बार बना-बिगड़ा है पर कहते हैं कि इसके मूल स्वभाव में बदलाव नहीं आया. बंगाल की खाड़ी पर 1674 में फ्रांसीसी ने इसे बसाया, जिसे डच ने उजाड़ दिया. फिर फ्रांसीसी ने कब्जे में लिया जिसे अंग्रेजों ने उजाड़ दिया. वर्ष 1954 में भारत में विलय के बाद इसे केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिया गया, जिसकी एक वजह इसकी सांस्कृतिक विशिष्टता है. हालांकि पांडिचेरी भारत का अभिन्न अंग तब बना जब वर्ष 1963 में फ्रांस की सरकार और भारत सरकार के बीच औपचारिक संधि अनुबंध पर हस्ताक्षर हुए.

बहरहाल, पांडिचेरी में जितना फ्रांस का रंग गहरा है, उतनी ही तमिल संस्कृति रची-बसी है. घर के बाहर बने कोलम हो, फूल बेचती महिलाएं हों या तमिल गीत-संगीत. यह मेल खान-पान में भी दिखता हैं. फ्रेंच और इटालियन क्यूजिन के साथ इडली, डोसा और पारंपरिक दक्षिण भारतीय व्यंजन हर नुक्कड़, चौराहे पर मिलता है.
Serenity Beach

व्हाइट टाउनमें सफेद और सरसों के पीले रंग में सजे मकानों में फ्रांसीसी वास्तुकला का अनुपम सौंदर्य अभी भी मौजूद है. हरी-भरी गलियों में घूमते हुए ऐसा लगता है कि हम पेरिस पहुँच गए हैं. आज भी कई परिवार ऐसे है जिनकी जड़ें फ्रांस से जुड़ी हैं. जिस होटल में मैं रुका था उसका वास्तुशिल्प भी एक फ्रांसीसी ने ही डिजाइन किया था. लॉबी में फ्रेंच फिल्मों के पोस्टर इसकी गवाही देते थे. साथ ही एक छोटी लाइब्रेरी भी फ्रांसीसी साहित्य से सजी मिली. प्रसंगवश, महात्मा गांधी के करीबी और फ्रांसीसी विद्वान रोम्या रोलां के नाम पर बना पुस्तकालय देश के सबसे पुराने पब्लिक लाइब्रेरी में से एक है. वर्ष 1827 में इसकी स्थापना हुई. पिछले साल जनवरी में जब मैं यहाँ आया था तब पुनर्निमार्ण का काम पूरा हो रहा था. आधुनिक साजो-सज्जा से लैस इस पुस्तकालय में आज विभिन्न भाषाओं में चार लाख से ज्यादा किताबें हैं. चूंकि शहर में एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है, इस वजह से देश के अन्य हिस्सों से छात्रों की आवाजाही यहाँ दिखती है.

एक पुरसकून धीमी लय में शहर चलता है और रात में भी सड़क पर लोग दिखते हैं. 'रॉक बीच' पर स्थित रंगीन रोशनियों में नहाए चर्चित रेस्तरां 'ल कैफे' में देर रात भी गहमागहमी रहती है. यह चौबीसों घंटे खुला रहता है.

प्रकृति के बीच ऑरविले में स्थित अरविंदो आश्रम में दुनिया भर के पर्यटकों का जमघट लगा रहता है. वर्ष 2018 में इसने पचास साल पूरे किए. यह आश्रम एक बीते दौर और उस दौर के सपनों को प्रतिबिंबित करता है. भय और असुरक्षा के बीच मानवीय एकजुटता और विश्व शांति इसके मूल में है.

(प्रभात खबर, 15 मार्च 2020)

Sunday, March 01, 2020

भारतीय संगीत के विश्वदूत : पंडित रवि शंकर

पंडित रवि शंकर (1920-2012) को जिसने भी देखा-सुना है, उसकी अपनी मोहक स्मृतियाँ है. हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में वे जीते जी किंवदंती बन गए थे. सिरीफोर्ट आडिटोरियम, दिल्ली में जब उन्हें मैंने पहली बार सुना तब था, वे अस्सी वर्ष के थे. उस जादुई शाम का रोमांच अभी भी मेरे मन में है.
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को दुनिया के नक्शे पर स्थापित करने में पंडित रवि शंकर की महती भूमिका थी. दिल्ली, लंदन, अमेरिका के शहरों में हो रहे विभिन्न संगीत समारोहों के माध्यम से यह पूरा साल ‘रवि शंकर जन्मशती वर्ष’ के रूप में मनाया जा रहा है. इसी सिलसिले में दिल्ली के नेहरू पार्क में दो दिन के ‘स्मरण’ संगीत समारोह में पंडित हरि प्रसाद चौरसिया, जाकिर हुसैन, विश्वमोहन भट्ट, अश्विनी देशपांडे, बेगम परवीन सुल्ताना जैसे दिग्गज उन्हें अपनी श्रद्धांजलि देने जुटे.
बनारस में एक बंगाली परिवार में उनका जन्म हुआ. घर में उन्हें रवींद्र शंकर नाम दिया गया था. बाद में रवि शंकर नाम उन्होंने खुद चुना. बचपन में उन्हें गुरु के रूप में प्रसिद्ध नर्तक उदय शंकर मिले, जो उनके बड़े भाई थे. शुरुआती दीक्षा उनकी नृत्य में ही हुई, लेकिन जब वे करीब अठारह वर्ष के थे तब बाबा अलाउद्दीन खाँ के शागिर्द बने, जिन्हें वे पिता तुल्य मानते थे. उनके संगीत पर ध्रुपद शैली का जो प्रभाव है वह उस्ताद अलाउद्दीन खाँ की देन है. संगीत के अध्येता पद्मश्री गजेंद्र नारायण सिंह ने दरभंगा घराने के ध्रुपद के प्रसिद्ध गायक पद्मश्री रामचतुर मल्लिक के हवाले से लिखा है कि ‘अलाउद्दीन खाँ अपने लाडले जमाता-शिष्य रवि शंकर को गंडाबद्ध शागिर्द बनवाने के लिए दरभंगा रामेश्वर पाठक के पास ले गए थे. पाठक जी ने गंडा बाँधने से तो इनकार कर दिया, लेकिन सितार के कुछ रहस्य उन्होंने रविजी को बताये.’ पंडित रवि शंकर ने अपनी आत्मकथा ‘राग-अनुराग’ में उन्हें अपना ‘आदर्श पुरुष’ बताया है.
पंडित रवि शंकर के सितार पर राग तिलक कामोद में आलाप, जोड़, झाला और धमार को सुनना अह्लादकारी है. स्त्री सौंदर्य के प्रति रवि शंकर में सहज आकर्षण था. उन्होंने माना था कि ‘सुर बहार’ की सिद्धहस्त कलाकार अन्नपूर्णा देवी से उनकी शादी ‘मैरिज ऑफ कन्वीनियंस’ थी.
स्मरण, नेहरू पार्क
पश्चिमी दुनिया के श्रोता उनकी विशिष्ट शैली और प्रयोग के दीवाने थे. ‘वेस्ट मीट्स ईस्ट’ (1967) के लिए उन्हें पहला प्रतिष्ठित ग्रैमी पुरस्कार मिला था. जहाँ जुबिन मेहता, येहूदी मेनुहिन और जार्ज हैरिसन के साथ उनकी जुगलबंदी या साठ के दशक में बीटल्स के साथ उनके संगीत सफर को लोग आज भी याद करते हैं, वहीं प्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजीत रे के साथ उनके रिश्ते की चर्चा कम होती है. पाथेर पांचाली, अपराजितो और अपूर संसार (अपू त्रयी) का पार्श्व संगीत उन्होंने दिया था. रवि शंकर का सिनेमा के साथ भी गहरा रिश्ता था. चेतन आनंद की ‘नीचा नगर’ और रिचर्ड एटेनबरो की बहुचर्चित फिल्म ‘गाँधी’ के संगीत का श्रेय उन्हें ही है.
‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्ता हमारा’ को नई धुन में पिरोने वाले भारत रत्न रवि शंकर आधुनिक भारत की पहचान हैं. घर-बाहर, आत्म-अन्य के विभेद को मिटाते उनके संगीत की जरूरत पहले से आज कहीं ज्यादा है.

(प्रभात खबर, 1 मार्च 2020)