Sunday, March 30, 2025

पूंजीवादी आलजाल को रचती फिल्में: अनोरा और द ब्रूटलिस्ट

 

ऑस्कर पुरस्कार समारोह में अनोरा और द ब्रूटलिस्ट फिल्म की चर्चा रही. इंडी फिल्मकार सीन बेकर की फिल्म अनोरा को बेहतरीन फिल्म, निर्देशन, संपादन और बेस्ट एक्ट्रेस समेत सबसे ज्यादा पुरस्कार मिले. वहीं द ब्रूटलिस्ट को बेस्ट एक्टरबेस्ट सिनेमेटोग्राफी, ओरिजिनल स्कोर के लिए चुना गया.

पूंजीवादी समाज में वर्गीय विभेद, प्रेम और सेक्स के इर्द-गिर्द यह फिल्म घूमती है. असल में इसे एक कॉमेडी फिल्म कहा गया है, जिसके केंद्र में अमेरिका के स्ट्रीप क्लब में काम करने वाली एनी (अनोरा) है. रूस के एक धनाढ्य युवा के साथ उसके संबंध बनते हैं, जैसा कि हमने सिंड्रेला की कहानी में पढ़ा है. पर कहानी तो कहानी है, वह जीवन नहीं हो सकती!

सीन बेकर हमेशा दर्शकों के मन में यह भाव जगाए रखते हैं कि आप महज एक फंतासी देख रहे हैं. यथार्थ की पुनर्रचना के क्रम में पूंजीवादी आलजाल से हमारा साक्षात्कार होता है.

अनोरा (मिकी मैडिसन) की स्वप्निल आँखों में प्रेम का भाव है, पर उसके हाव-भाव में लोभ. रूसी युवा के साथ वह शादी रचाती है. इस उम्मीद में कि उसकी जिंदगी परियों सी हो जाएगी.  कहानी-सिनेमा से चमत्कार की उम्मीद तो हम रख ही सकते हैं! सीन बेकर हालांकि ऐसी कोई उम्मीद नहीं जागते हैं.

सीन बेकर बिना किसी फलसफे  के, बड़ी सहजता से, आधुनिक मानवीय त्रासदी को दो युवाओं के संबंधों के माध्यम से सामने लाते हैं. इस उत्तर आधुनिक युग में सवाल प्रेम’ की अवधारणा पर भी है. मिकी मैडिसन एनी के किरदार में कुशलता से रची-बसी है. महज 25 वर्ष की उम्र में ऑस्कर अपने नाम कर उन्होंने इतिहास रचा है. भले ही कहानी अमेरिका की हो इसे हम इस भूमंडलीकृत पूंजीवादी ग्राम में कहीं पर अवस्थित कर सकते हैं.

वहीं ब्रैडी कॉब्रेट की फिल्म द ब्रूटलिस्ट’ के केंद्र में कुशल अभिनेता एड्रीन ब्रॉडी हैं. नाजी यूरोप में नरसंहार के दौरान हंग्री के यहूदी मूल के लास्ज़लो टोथ (ब्रॉडी) अमेरिका आते हैं. एक कुशल वास्तुशिल्पी (ऑर्किटेक्ट) की जीवन यात्रा के माध्यम से हम सपनों के पीछे भागते ब्रॉडी को देखते हैं. साथ ही अमेरीकी पूंजीवादी सभ्यता के वीभत्स रूप से भी रू-ब-रू होते हैं, जो स्व को छीन लेता है.  

अनोरा फिल्म परदे पर तेज रफ्तार से भागती है. फिल्म का टाइम-स्पेस समकालीन है, जबकि द ब्रूटलिस्ट को एक उपन्यास की तरह विभिन्न खंडों में बुना गया है. करीब साढ़े तीन घंटे की यह फिल्म लंबी जरूर है, पर बोझिल नहीं. फिल्म बेहद खूबसूरत छवियों के माध्यम से सफेद और स्याह को सामने लाती है. ऐतिहासिक ताने-बाने के सहारे रची इस फिल्म को हम वर्तमान समय की राजनीति से भी जोड़ कर देख सकते हैं. एक माइग्रेंट के रूप में लास्जलो अपने स्व की तलाश में जिंदगी भर भटकते हैं.  उन्हें पहचान मिलती है, जिसकी कीमत उन्हें अपने को देकर चुकानी पड़ती है.  

दोनों ही फिल्मों का निर्माण और निर्देशन साफ अलग है, पर एक स्तर पर पूंजीवादी संस्कृति की आलोचना है. सीन बेकर प्रयोगात्मक फिल्मों के लिए जाने जाते हैं.  इन्होंने इस फिल्म को महज छह मिलियन डॉलर में बनाया है.  इस बात पर बहस की जा सकती है कि क्या वास्तव में अनोरा’ इतने ऑस्कर की हकदार थी, लेकिन एक बात तय है कि ऑस्कर ने इंडिपेंडेंट सिनेमा को केंद्र में ला दिया है. चुनौती बड़े बजट की फिल्मों को इन्हीं फिल्मों से मिल रही है. क्या बॉलीवुड  इससे कोई सबक लेगा?


Sunday, March 09, 2025

पांच साल बाद फिर पाताल लोक


पांच साल के बाद पाताल लोक वेब सीरीज अमेजन प्राइम पर स्ट्रीम हो रही है. अविनाश अरुण के निर्देशन में इसे सुदीप शर्मा ने रचा है. इस सीरीज में चर्चित असमिया फिल्म निर्देशक जानू बरुआ को देखना सुखद है. हालांकि इस बार भी वेब सीरीज के केंद्र में पुलिस इंस्पेक्टर हाथी राम चौधरी (जयदीप अहलावत) हैं, जो हत्या और नशे के अपराधियों की खोजबीन, धरपकड़ में दिल्ली से उत्तर-पूर्व नागालैंड की यात्रा करते हैं. नागालैंड की राजनीति, विकास और शांति के द्वंद्व को पकड़ने की यह सीरीज कोशिश करता है, लेकिन आखिर एपिसोड तक तक आते-आते सिरा छूटने लगता है. इस लिहाज से यह सीरीज पहले सीजन की तरह बांध कर नहीं रख पाती है. साथ ही नागालैंड समाज को लेकर एक तरह का रूढ़िबद्ध अवधारणा भी यहां दिखाई देता है, खास कर हिंसा को लेकर.

हिंदी फिल्मों, वेब सीरीज में उत्तर-पूर्वी राज्यों की संस्कृति का चित्रण गायब रहा. अगर कोई किरदार नजर आता भी हैतो वह अमूमन स्टीरियोटाइप ही होता है. वर्ष 2020 में निकोलस खारगोंकोर की अखोनी फिल्म इस मामले में अलग थी, जहां हम नस्लवाद जैसे संवेदनशील मुद्दे से रू-ब-रू होते हैं. बहरहाल,  पिछले साल जिस तरह से यथार्थपरक सिनेमा और वेब सीरीज का सूखा रहा, ऐसे में पाताल लोक से साल की शुरुआत में ही दर्शकों को उम्मीद बंधी है.

वेब सीरीज ने निस्संदेह भारतीय सिनेमा उद्योग को कुछ अच्छे कलाकार दिए हैं. जयदीप अहलावत उनमें से एक हैं. उनके अभिनय के रेंज के लिए यह सीरीज देखी जानी चाहिए. ऐसा लगता है कि पहले सीजन में जिस भूमि पे वे खड़े थे, वही से उन्होंने फिर से अपने किरदार को आत्मसात किया है. एक कलाकार के लिए पाँच साल का समय कम नहीं होता. इन वर्षों में उनकी अभिनय प्रतिभा और निखरी है.

ऐसा नहीं है कि पाताल लोक से पहले उन्हें पहचान नहीं मिली थी. वर्ष 2018 में मेघना गुलजार की राजी फिल्म में उन्होंने एक खुफिया अधिकारी की भूमिका निभाई थी, जहां लोगों ने नोटिस किया था, पर वे कहते रहे हैं कि इसके बावजूद  उन्हें काम मिलने में परेशानी हुई. कोरोना के दौरान पाताल लोक सीजन-एक के स्ट्रीम होने के बाद दर्शकों के बीच उनके अभिनय की खूब चर्चा हुई और पहचान मिली. उसके बाद थ्री ऑफ अस’ और महाराज’ जैसी फिल्मों में भी उनके अभिनय की प्रशंसा हुई.

पैंतालीस वर्ष के जयदीप ने थिएटर से जुड़ने के बाद पुणे स्थित फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान से वर्ष 2008 में अभिनय का प्रशिक्षण लिया है. हाथी राम चौधरी का किरदार उन्हीं के लिए लिखा गया  लगता है. हरियाणवी बोली-बानी वाले एक ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और साफ-शफ्फाक इंसान जो एक पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका में एक साथ कड़क और भावुक है. उसे सामाजिक बीमारियों का इलाज करना है, पर अपने परिवार और बेटे की चिंता भी है. जो सहजता से रो सकता है और एंग्री यंग मैन की तरह अपराधियों से दो-दो हाथ कर सकता है. हाथी राम चौधरी के किरदार में एक साथ विभिन्न भावों को जयदीप अहलावत ने जिस कुशलता निभाया है, उसकी तारीफ की जानी चाहिए.

Sunday, February 02, 2025

विभाजन का चितेरा: ऋत्विक घटक

 


महान फिल्मकार ऋत्विक घटक (1925-76) का यह जन्मशती वर्ष है, पर जिस रूप में भारतीय सिनेमा में उनके योगदान की चर्चा होनी चाहिए वह नहीं दिखती. अजांत्रिकमेघे ढाका ताराकोमल गांधारसुवर्ण रेखातिताश एकटी नदीर नाम जैसी उनकी फिल्में भारतीय सिनेमा की थाती है. 

घटक ढाका में जन्मे थे और विभाजन की त्रासदी को झेला था. बंगाल विभाजन ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को काफी प्रभावित किया था. आत्मानुभूति पर उनका काफी जोर था.


कुमार शहानी ने एक जगह लिखा है, ऋत्विक दा का काम हमारी पहचान की हिंसक अभिव्यक्ति है. यह मेघे ढाका तारा में मरणासन्न लड़की का रुदन  है जो पहाड़ियों से गूंजता है, हमारे जीने का अधिकार है. वर्षों पहले मणि कौल ने मुझे कहा था कि ‘ऋत्विक दा की फिल्मों से आज भी में बहुत कुछ सीखता हूँ. उन्होंने मुझे नव-यथार्थवादी धारा से बाहर निकाला.’ उन्होंने कहा था ‘उनकी फिल्मों की आलोचना मेलोड्रामा कह कर की जाती है. वे मेलोड्रामा का इस्तेमाल कर उससे आगे जा रहे थे. उस वक्त उन्हें लोग समझ नहीं पाए.’

 

घटक ने भारतीय फिल्मकारों की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित कियाजब वे वर्ष 1965-67 में भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (फटीआइआइ)पुणे से उप-प्राचार्य के रूप में जुड़े. पिछली सदी के 70-80 के दशक में व्यावसायिक फिल्मों से अलग समांतर सिनेमा की धारा को पुष्ट करने वाले फिल्मकार मणि कौलकुमार शहानीसईद मिर्जाजैसे फिल्मकार खुद को ‘घटक की संतान’ कहलाने में फख्र महसूस करते रहे हैं. मणि कौल और कुमार शहानी दोनों उनके एपिक फॉर्म से काफी प्रभावित थे.

 

कुमार शहानी ने मुझे कहा था कि ‘जब आप मेरी फिल्म चार अध्याय देखेंगेतो ऋत्विक दा आपको भरपूर नजर आएंगे’. शहानी ने बताया था कि एपिक फॉर्म से घटक ने ही फिल्म संस्थान में उनका परिचय करवाया था. इसी तरह पुणे फिल्म संस्थान के छात्र रहे फिल्मकार अनूप सिंह की फिल्मों में भी एपिक फॉर्म दिखाई देता है. सिंह की बेहतरीन फिल्म ‘एकटी नदीर नाम’ (2002) ऋत्विक घटक को ही समर्पित है.

 

असमिया फिल्मों के चर्चित निर्देशक जानू बरुआ बताते हैं, “मैं जिंदगी में पहली बार ऐसे आदमी (ऋत्विक घटक) से मिला जिसके लिए खाना-पीनासोनाउठना-बैठना सब कुछ सिनेमा था.” ऋत्विक घटक के बिना आज भी फिल्म संस्थान के बारे में कोई भी बात अधूरी रहती है.


उनकी फिल्में बंगाल विभाजनविस्थापन और शरणार्थी की समस्या का दस्तावेज है. ‘सुवर्णरेखा’ की कथा विभाजन की त्रासदी से शुरू होती है. फिल्म के आरंभ में ही एक पात्र कहता है ‘यहाँ कौन नही है रिफ्यूजी?’ ऋत्विक घटक निर्वासन और विस्थापन की समस्या को एक नया आयाम देते हैं. आज भूमंडलीय ग्राम में जब समय और स्थान के फासले कम से कमतर होते चले जा रहे हैं हमारी अस्मिता की तलाश बढ़ती ही जा रही है. ऋत्विक की फिल्में हमारे समय और समाज के ज्यादा करीब है. घटक अपनी कला यात्रा की शुरुआत में ‘इप्टा’ (इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन) से जुड़े थे. चर्चित निर्देशक अदूर गोपालकृष्णन घटक के इप्टा की पृष्ठभूमि और संगीत के कलात्मक इस्तेमाल की ओर बातचीत में इशारा करते हैं.