Tuesday, December 12, 2006
'विर्ड, दे वेयर वंस इन लव'
Norman Lindsay's etching |
Friday, December 08, 2006
Globalisation and Hindi Media
If we compare today’s any Hindi newspaper with that of, say fifteen or twenty years ago, we can conclusively say that it is more market oriented. In other words Hindi journalism is an industry now. What media analyst and critic Adorno and Horkhemier had said of culture industry is becoming true for Hindi journalism today, which had played a leading role in India’s independence struggle. Contents are being determined by the prevailing forces of market and advertising departments. Relationship between production departments and editorial board is fast changing.
This paper will analyse the impact of global technologies on Hindi journalism in India, taking Nav Bharat Times, Delhi a prominent Hindi daily, as a case study.
( Abstract of the paper titled"Impact of Global Technologies on Hindi Journalism: A Case Study of Navbharat Times, New Delhi" presented at Media: Policies, Cultures and Futures in the Asia Pacific Region Conference organised by MARG at Curtin University of Technology, Perth, Western Australia on 27-29 November 2006)
Wednesday, October 18, 2006
गरीबी को सम्मान
गरीबी का सवाल हर सभ्यताओं के अनुभवों का अहम हिस्सा रही है। टॉलस्टाय से लेकर गाँधी तक ने इसे बखूबी पहचाना। गाँधी ने संपन्नता की बजाय सादगी की तरफ ले जाने वाली नीतियों, मूल्यों पर जोर दिया। धर्म और राजनीति के साझे सरोकार से गरीबी को चुनौती देने की वकालत उन्होंने की।
मोहम्मद यूनुस ने समाज के सबसे बुनियादी सवाल गरीबी के सवाल को अपनी नीतियों का हिस्सा बनाया है। इससे पहले गुर्याड मेंडल और अर्मत्य सेन जैसे अर्थशास्त्रियों ने इस सवाल को सामाजिक संपन्नता के लिए जरूरी बताया था पर हमारे राजनेताओं की आँखे नहीं खुली। संपन्नता के सतही सपने- बड़े बाँध, बड़े हवाई अड्डे, महानगर आदि – वे दशकों से लोगों को दिखाते रहे हैं। साथ ही गरीबी में निहित असहायता, आक्रोश की वे अनदेखी करते रहे हैं ।
यूनुस के ग्रामीण बैंक में स्त्रियों की केंद्रीय भूमिका है। वर्तमान में बाजार को असीमित महत्व देकर समाज की असली शक्ति समुदाय को पंगु बना दिया गया है । स्त्री का सशक्तीकरण कर ही समुदाय की आधारशिला परिवार को मजबूत बनाया जा सकता है । राष्ट्र के सम्यक् और सम्रग नवनिर्माण के लिए जरूरी है कि इस तरफ ध्यान दिया जाए।
भारत और बांग्लादेश कि साझी संस्कृति और तकरीबन एक से सामाजिक और आर्थिक स्थिति के कारण युनूस की अवधारणा भारत के लिए सही बैठती है। भारत में पिछले दो दशकों से यह प्रयोग चल रहा है। भारतीय ग्रामीण बैंक, सेवा( सेल्फ इम्पलॉयड वीमेंस एसोशिऐसन) और परिवर्तन जैसे संगठन इसमें अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं ।
भूमंडलीकरण के इस दौर में गरीबी उन्मूलन तीसरी दुनिया और नवस्वाधीन राष्ट्रों के नीति निर्माताओं और सरकारों के लिए बड़ी चुनौती है। मोहम्मद यूनुस को सम्मानित करना गाँधी के उस तावीज को दुनिया के सामने लटकाने जैसा है जिसमें उन्होंने स्पष्ट कहा है कि जब भी तुम्हारे मन में अगले कदम के बारे में दुविधा हो उस अंतिम व्यक्ति को याद करो जो अपनी असहायता और अभाव से जुझ रहा है और खुद से सवाल करो कि तुम्हारा यह कदम उसकी सहायता कर पायेगा कि नहीं ? यदि सहायता कर पायेगा तो निस्संदेह आगे बढ़ो।
( जेएनयू में समाजविज्ञान के प्रोफेसर आनंद कुमार से अरविंद दास की बातचीत पर आधारित )
Sunday, September 24, 2006
Saturday, September 23, 2006
ये क्या जगह है दोस्तो
नवल – नवेलियों का
उन्मुक्त लीला-प्रांगण
यह जेएनयू
असल में कहा जाए तो कह ही डालूं
बड़ी अच्छी है यह जगह
बहुत ही अच्छी
और क्या कहूँ ।
बाबा नागार्जुन ने यह बात बजरिए कविता सन 1978 में कही थी । ‘यह जेएनयू ’शीर्षक से लिखी इस कविता में आगे वे इस विश्वविद्यालय में दाखिला लेने की अपनी इच्छा जाहिर करते हैं। नागार्जुन की यह तमन्ना असल में देश के उन युवाओं की हसरत व्यक्त करती हैं जो मानसून के आते ही हर साल इस विश्वविद्यालय के दरवाजे पर दस्तक देने आ जाते हैं ।
वैसा ही मंजर है आजकल जेएनयू में । अपने जीवन का सबसे पुरउम्मीद दौर गुजारने के लिए छात्र- छात्राएँ परिसर को गुलजार करने में लगे हैं । एक खुली दुनिया में कदम रखने का अहसास उनके साथ है । इस सत्र में नामांकन शुरू हो चुका है । अकादमिक स्थलों , विभिन्न स्कूलों ,कैंटीन की दीवारों पर चिपके पोस्टरों , इबारतों में नए रंग की खुशबू महसूस की जा सकती है । पुराने छात्र , कामरेड नए छात्र- छात्रओं की नामांकन प्रकिया में बढ़ – चढ़कर सहयोग दे रहे हैं । हां ! जेएनयू में रैगिंग के लिए कोई जगह नहीं। आप बतौर मेहमान यहाँ स्वीकार किए जाते हैं । जेएनयू का यह खास रिवाज पीढ़ी-दर-पीढ़ी कायम है । शायद यहीं से इस संस्थान की विशिष्टता शुरू हो जाती है ।
अरावली की पहाड़ियों पर पुराने बरगद, नीम, और पीपल के पेड़ों के बीच बोगनबेलिया, अमलतास और गुलमोहर से सजे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अगर आप पहली बार पधारे हैं तो इस बात से शायद ही इंकार करें कि यहाँ की फिजा दिल्ली में हो कर भी ‘दिल्ली में नहीं’ का अहसास कराती है । असल में जेएनयू की एक अलग ही तहजीब है जो इसे अन्य विश्वविद्यालयों से अलग बनाती है । लगता है, यह पंडित नेहरू ख्वाब की वह ताबीर है जिससे जुड़ने का सपना देश के हर कोने का युवा करता है ।
भले ही यह संस्थान एक खास खयाल का पोषक कहलाए और इस पर मास्को- बीजिंग की घुट्टी पिलाने का तोहमत लगे, मगर एक जनतांत्रिक माहौल सभी को प्रभावित करता है । पूरी तरह आवासीय इस विश्वविद्यालय में छात्र-छात्राओं और शिक्षकों के रिश्ते भी एक खुलेपने को दर्शाते हैं । इनके आवास को एक –दूसरे के करीब बनाया गया है ताकि एक स्वस्थ, सामुदायिक नाता विकसित हो । यहां का जनतांत्रिक माहौल बनाने में वाद-विवाद और बहस-मुबाहिसों का बड़ा योगदान है । प्रश्न करने की प्रवृति और वाद-विवाद की संस्कृति यहाँ महज कक्षा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि देर तक होने वाली पब्लिक मीटिगों और ढाबा तक फैली हुई है ।
छोटे शहरों –गाँवों से आने युवाओं के लिए विश्वविद्यालय के शुरूआती दिन तरह-तरह के अनुभव वाले होते हैं । किसी को अंग्रेजीदां, बिंदास लड़कियों की माया भरमाती है तो किसी को यहाँ का इंकलाबी माहौल। कहते हैं यह वह जगह है जहाँ हर साल कई ‘ रामसजीवन ’ बनते हैं। आज यहाँ जिस ‘ अफलातूनी मोहब्बत ’ की बात होने लगी है उनका विकास यों ही चंद दिनों में नहीं हो गया । कई पुराने बताते हैं : ‘हम तो हंसी तो फंसी के फलफसे वाले समाज से आए थे। बड़ा वक्त जाया होने के बाद जाना कि वह हंसी तो और ही कुछ कहती थी। अक्सर ही यह हंसी दोस्ती का आमंत्रण थी। लेकिन आज वक्त बदल चुका है। दूर से आने वाले युवा भी इतनी उम्मीद का भार लेकर नहीं आते कि भरभरा कर गिरने की नौबत आ जाए।
हिंदी में पीएचडी कर रही निधि अपना तजुर्बा बताती हैं: ‘शुरू शुरू में जब मैं अपने सहपाठी से बातचीत करती थी तो आभास नहीं था कि वह दोस्ताना संबंध को प्रेम मानने लगेगा। उसे समझाना मेरे वश में नहीं था। आखिर में मुझे दोस्ती तोड़नी पड़ी। ’ हालांकि बिहार-यूपी या सुदूर इलाकों से आने वाले नए छात्र इस बात को मानने को तैयार नहीं कि यहाँ कि चमकीली दुनिया में वे प्रेम और दोस्ती का फर्क ही भूल जाएं। आज के युवा करियर को लेकर ज्यादा खबरदार हैं।
बात मजाक में कही गई है, लेकिन सच है कि जेएनयू बंगाल, त्रिपुरा और केरल के बाद भारत का एक ऐसा राज्य है जहाँ पर मार्क्सवादी व्यवस्था और विचार हावी रहे हैं। शुरूआती दिनों से लेकर अब तक कैंपस के औसत छात्र-छात्राओं और अध्यापकों का रूझान वामपंथी विचारधारा की तरफ दिखता है। यहाँ की दाखिला नीति ही ऐसी है कि जिसमें गरीब, पिछड़े इलाकों से आने से आने वाले छात्रों का प्रवेश आसान हो सके । इसके लिए उन्हें अतरिक्त ‘डेप्रिवेशन पांइट्स ’ दिए जाते हैं। हालांकि 1984 में इस नीति को रद्द कर दिया गया। दस साल बाद 1994 में छात्रों के आंदोलन के बाद यह दाखिला नीति फिर लागू की गई। 2003-2004 के आकादमिक सत्र में 1318 छात्रों का नामांकन हुआ जिसमें से 594 छात्र निम्न तथा मध्य आय वर्ग से थे। 724 छात्र उच्च आय वर्ग से थे। साथ ही 354 छात्र ऐसे थे जिनकी शिक्षा पब्लिक स्कूलों में हुई थी जबकी 964 छात्र ऐसे थे जिनकी शिक्षा म्यूनिसिपल एवं गैर-पब्लिक स्कूलों में हुई।
जेएनयू में भले ही खास विचारधारा का फरहरा लहराता रहा, पर बदलाव की हवा यहाँ भी पुरअसर रही। दो दशक पहले यहाँ हिन्दी एक सहमी हुई भाषा थी। आज वह एक ताकत है। कैंपस में व्यवहार की भाषा के रूप में हिन्दी की स्वीकार्यता अंग्रेजी से कम नहीं है। हिन्दी भाषियों के दबदबे के अलावा टीवी चैनलों ने हिंन्दुस्तानी को यहाँ कि सहज भाषा बना दिया है। एक पुराने कामरेड हंसकर कहते हैं कि हमारे वक्त में ‘प्रेम’ करने के लिए अंग्रेजी के शब्दकोश चाटे जाते थे। अब लगता है हिन्दी में भी प्यार किया जा सकता है । यह बात भले ही हल्केपन में कही गई है, पर आमिताभ बच्चन से लेकर टीवी के नामी प्रस्तोताओं, फिल्मी सितारों की हिन्दी ने अपनी भाषा के हक में माहौल तो बना ही दिया है। जेएनयू में हिन्दी को लेकर हीनभावना के दिन लद गए लगते हैं।
पहरावे के जिक्र के बिना यहाँ की बात अधूरी ही रहेगी। जिस जींस-कुर्ते और झोले की शोहरत पूरे देश के रोशनख्याल परिसर में रही, उसका जनक जेएनयू ही है। कभी यहाँ पैंट-कोट पहन कर चलने वाला असहज हो जाता था, क्योंकि जेएनयू की फक्कड़ी का श्रृंगार जींस-कुर्ते से ही संभव था। अब बाजारवादी रूझान ने माहौल बदला है। पहरावे चाल-चलन में रंगीनी यहाँ भी आई है। लंबी कारें, मोबाइल एक नया समाज साफ दिखाने लगे हैं। ठाठ का मजाक उड़ाने वाले भी गाड़ियों के मॉडल और माइलेज पर मुबाहिसा करते दिख जाऐंगे। उदारीकरण के जीत का एक नमूना यहाँ भी देखा जा सकता है। हालांकि अभिनव कामरेड सफाई में कहते हैं कि उपभोक्तावादी दौर में हम डिब्बाबंद नहीं रह सकते।
बहरहाल जेएनयू के छात्र-छात्राओं की वर्ग चेतना किसी भी संस्थान को पाठ पढ़ा सकती है। ये चेतना उन्हें जाति, धर्म, आय-भेद से ऊपर बौद्धिक स्तर पर एक-दूसरे से जुड़ने को प्रेरित करती है। समाजशास्त्र में एमए कर रहे राजस्थान के बाबूलाल भील बताते हैं: ‘मेरे मन में अपनी आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि का ख्याल हर वक्त रहता है, पर सहपाठी, मित्रों, और शिक्षकों ने किसी भी तरह की हीनमन्यता को मेरे अंदर घर नहीं करने दिया।
सेंट स्टीफेंस कॉलेज से स्नातक, इतिहास में शोधरत सरोज झा कहते हैं : ‘वहाँ मैं खुद को मिसफिट पाता रहा। एक तरह का ‘स्नाबिश एटीट्यूड’ वहाँ मिलता है। जेएनयू आकर आप अपने समय और समाज से साक्षात्कार करते हैं।’
निजी आजादी की भी बड़ी नजीर आपको यहीं मिलेगी। इसका उदाहरण लैंगिक जागरूकता को लेकर बनाया गया फोरम ‘अंजुमन’ है। इसके सदस्य मारियो कहते हैं:मुबंई के जिस कॉलेज से मैंने स्नातक किया था वहाँ ऐसी किसी संस्था के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। यहाँ हर किसी को अपना स्पेस मिला है। मैं अगर समलैंगिक हूँ, इससे दूसरों को क्या परेशानी है ?’
लेकिन ऐसा नहीं है कि यह स्पेस मुँहमांगे मिल गया हो। इसके लिए छात्रों ने काफी संघर्ष किया है। कैंपस के अंदर यौन-उत्पीड़न को रोकने के लिए बना संगठन जीएसकैश जिसका उदाहरण है। इसका गठन आठ मार्च 1999 को किया गया। अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान से पीएचडी कर रही ग्रेसी सिंह कहती हैं: यहाँ के छात्रों की बौद्धिक जागरूकता उन्हें पूर्वग्रह से मुक्त करती है। लिंग, जाति,धर्म या क्षेत्र के प्रति किसी भी तरह का भेदभाव छात्रों के मन में नहीं दिखता है।’ इसी प्रकार जाति के आद्हार पर किसी भी तरह के भेदभाव को रोकने के लिए कैंपस में समान अवसर कार्यालय का गठन किया गया है।
विश्वविद्यालय सही मायनों में अखिल भारतीय स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। केरल से लेकर कश्मीर तक और उत्तर-पूर्व राज्यों से लेकर मध्य भारत के कोने-कोने से यहाँ छात्र शुरूआती दिनों से आते रहे हैं। यह आवासीय परिसर छात्र – छात्राओं को एक-दूसरे को नजदीक से जानने का अवसर देता है। जो कुछ भी भ्रांतियाँ या पूर्वग्रह अन्य जाति या धर्म के प्रति रहते हैं, धीरे-धीरे खत्म होने लगते हैं। अरबी भाषा और साहित्य में शोधरत अताउर रहमान कहते हैं:‘मदरसा से पढ़ने के बाद जामिया मिलिया इस्लामिया में जब मैंने दाखिला लिया, वहाँ अपनों के बीच ही सिमटा रहा। यहाँ आकर पहली बार दुनिया को दूसरों की नजर से देखा।’
इसके बावजूद विदेशी छात्रों को अपनी ओर आकर्षित करने में विश्वविद्यालय अभी तक सफल नहीं हो पाया है। एक सत्र में बमुश्किल 50-60 विदेशी छात्र नामांकन लेते हैं। दो साल पहले समाजशास्त्र विभाग ने ग्लोबल स्टडीज प्रोग्राम शुरू किया था जिससे विदेशी छात्रों का आना बढ़ा है। कहना होगा कि विदेशी छात्रों को कैंपस की आबो-हवा में ढलते देर नहीं लगती है। हिन्दी में एमए कर रहे अमेरिका के विलियम टायलर ने पिछले साल ‘आईसा’ की ओर से भारतीय भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान में ‘काउंसिलर’ के पद के लिए चुनाव लड़कर सबको चौंका दिया था। अंतरराष्ट्रीय अध्ययन संस्थान में एमए कर रहे वियतनाम के फांग सिर्फ हिंदी गाने सुनते हैं बल्कि टूटी-फूटी हिंदी बोलने भी लगे हैं।
जेएनयू में पढ़ाना किसके लिए फख्र की बात नहीं है। कुछेक अपवादों को छोड़ कर शिक्षकों की नई पीढ़ी ने देश-विदेश के अकादमिक क्षेत्र में अपनी दक्षता साबित की है। लेकिन जैसा कि समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष प्रो आनंद कुमार कहते हैं, कार्य के प्रति आत्मविश्वास और गरिमा का भाव नई पीढ़ी के शिक्षकों में घटता दिख रहा है। वे शिक्षकों के बीच आपसी संवादहीनता और उनकी राग दरबारी प्रवृति के बढ़ने का भी जिक्र करते हैं।
कैंपस के छात्र भले ही इंकार करें, पर कई अध्यापक इस बात को स्वीकारते हैं कि 70 के दशक के मुकाबले वर्तमान में शोध का स्तर इस संस्थान में भी गिरा हैं। प्रो रोमिला थापर कहती हैं पहले छात्र-छात्राओं में शोध को लेकर जो उत्साह था वह कम हुआ है। इस उदासीनता के लिए प्रो आनंद कुमार सामाजिक व्यवस्था को ज्यादा जिम्मेदार मानते हैं। वे कहते हैं कि आज इसकी कोई गारंटी नहीं कि यदि आपने एक अच्छी थीसिस लिख दी तो सम्मानजनक नौकरी किसी कॉलेज या विश्वविद्यालय में पा ही जाएंगे।
सत्तर के दशक में जेएनयू छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके देवीप्रसाद त्रिपाठी बताते हैं कि उनके समय में आईएएस जैसी परीक्षा की तैयारी दोयम दर्जे का काम माना जाता था। छात्र इसे स्वीकार करने में शरमाते थे। जेएनयू के छात्र रह चुके वर्तमान में प्रोबेशनरी (प्रशिक्षु) आईएएस प्रणव ज्योतिनाथ कहते हैं, ‘जेएनयू के शिक्षित, जागरूक छात्र अगर आईएएस ज्वायन करते हैं तो निस्संदेह नौकरशाही के लिए अच्छी बात है। योजना बनाने, उनके क्रियान्वयन में छात्रों का अनुभव लाभदायक ही होगा।’
उदारीकरण के बाद उच्च शिक्षा के क्षेत्र में राज्य की घटती भूमिका तथा बेरूखी छात्र-छात्राओं के बीच निराशा का वातावरण तैयार कर रही है। भारतीय भाषा केंद्र में इसी महाने अपनी थीसिस जमा कर रहे फैजान अहमद कहते हैं ‘मेरे सामने बड़ा सवाल है कि इसके बाद क्या ?’ यहीं चिंता अर्थशास्त्र में पीएचडी कर रहे रामानंद राम की भी है। वे पूछते हैं कि अगर अवसर बहुराष्ट्रीय कंपनियों या प्रशासनिक सेवाओं में हो तो कोई क्यों नहीं उधर जाए ? आखिरकार नौकरी तो सबको करनी है।
यह मानना होगा कि वाम के इस गढ़ में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दखल बढ़ा है। स्कूल ऑफ आट्स एंड एस्थेटिक्स और ला एंड गवर्नेंस जैसे स्कूलों में फोर्ड फाउंडेशन का पैसा लगाया जा रहा है। अर्थशास्त्र, विदेशी भाषा के छात्रों को बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ ऊँची तनख्वाह देकर ले जा रही हैं। छात्र शोध को अधबीच छोड़कर नौकरी करने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहे हैं। प्रश्न उठता है कि ऐसे में इस उच्च अध्ययन संस्थान में शोध का भविष्य क्या होगा?
सूधो सनेह को मारग
पिछले साल जब अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र में शोधरत शबूरी सेन ने अंग्रेजी साहित्य के शोध छात्र तारा प्रकाश से शादी की तो जेएनयू परिसर के सामान्य-सी बात थी। पर कैंपस के बाहर यह एक खबर थी। जहाँ शबूरी सेन बेहद खूबसूरत हैं, तारा मेधावी किंतु दृष्टिहीन हैं। इस समय दोनों दिल्ली विश्वविद्यालय के कॉलेज में व्याख्याता है।
विभिन्न जाति और धर्म में बंटा भारतीय समाज जिसे ‘बेमेल’ विवाह कह कर विरोध करता रहा है वह जेएनयू को मान्य नहीं। जब से जेएनयू अस्तित्व में आया यहां विभिन्न जाति, समुदाय और धर्म की पृष्ठभूमि से आये छात्र – छात्राओं के बीच प्रेम संबंध बनते रहे हैं। यों तो युवाओं के बीच प्रेम संबंध का होना किसी भी विश्वविद्यालय के लिए सामान्य-सी बात है। जेएनयू की विशेषता यह है कि वर्षों साथ-साथ उठते-बैठते साहचर्य से विकसित प्रेम संबंधो की परिणति विवाह में होती है और काफी सफल रही है।
जेएनयू में पहले बैच के छात्र रहे, वर्तमान में विश्वविद्यालय में भूगोल के अध्यापक हरजीत सिंह बताते हैं ‘: तीस साल पहले जब हमने अपने धर्म के बाहर शादी की घरवालों ने काफी विरोध किया। पर हमें अपने गाइड प्रो मुनीस रजा और मित्रों का काफी सहयोग मिला था। ’ हरजीत सिंह कई ऐसे जोड़े के बारे में बताते हैं जिन्होनें अंतरजातीय विवाह किया है। इनमें कई आज जेएनयू के विभिन्न विभागों में अध्यापक हैं। यहाँ का पूरा समाजशास्त्र विभाग इसका प्रतीक है।
शादीशुदा शोधार्थियों के लिए बने छात्रावासों में कई ऐसी जोड़ियाँ हैं जिन्होनें समाज की प्रचलित मान्यताओं को खारिज कर शादी की है। ऐसी ही एक जोड़ी सुजान-राशिद की है। सुजान ईसाई हैं राशिद मुसलमान। सुजान कहती हैं: ‘धर्म हमारे प्रेम में कभी आड़े नहीं आया। धर्म व्यक्ति का निजी मामला है। ’ वे कहती हैं कि ऐसा नहीं कि हमारे बीच मतांतर नहीं है पर हम ध्यान रखते हैं कि मनांतर न हो।
पीएचडी अंतिम वर्ष के छात्र चंदन श्रीवास्तव कहते हैं : जिसे आप प्रेम कहते हैं असल में वह मैरिज ऑफ कनवीनियंस है, दो कैरियर ओरियेंटेड लोगों का आपसी मेल। पूँजीवादी समाज में प्रेम संभव नहीं है।’ सुजान इस बात से सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि मैरिज ऑफ कनवीनियंस तब कहा जायेगा जब आपके पास चुनाव न हो। यहाँ के पढ़े-लिखे, काबिल छात्र बाहर जा कर शादी करने के लिए स्वतंत्र हैं। कोई यहाँ प्रेम करने के लिए किसी को बाध्य नहीं करता।
नई पहचान देंगे
कुलपति प्रो बी बी भट्टाचार्य से बातचीत।
आप इलाहाबाद विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षा के अन्य संस्थानों से जुड़े रहे हैं। जेएनयू किन मायनों में इन संस्थानों से अलग है?
जेएनयू की दीखिला नीति ही ऐसी है कि वह अपने यहाँ पूरे भारत के छात्रों को नामांकन के लिए ‘इनसेंटिव’ देता है। दूसरे संस्थानों में जोर ‘कटऑफ’ पर दिया जाता है, हम सामाजिक-आर्थिक रूप से पिछड़े छात्र – छात्राओं के लिए डेप्रिवेशन पाइंट्स देते है। आध्यापकों, छात्र – छात्राओं की अकादमिक उत्कृष्टता और सामाजिक सरोकार जेएनयू को अन्य विश्वविद्यालय से विशिष्ट बनाता है। यहाँ के छात्र – छात्राओं की राजनीतिक चेतना काफी जागृत है।
बाजार का दबाव, नौकरी की चिंता अकादमिक उत्कृष्टता को प्रभावित नहीं कर रही है?मैं नहीं मानता कि बाजार का दबाव अकादमिक उत्कृष्टता को प्रभावित कर रहा है। आप केवल सामाजिक विज्ञान, कला जैसे विषयों की ओर ही ध्यान दे रहे हैं। बायोटेक्नालॉजी, लाइफ साइंस में हमारे यहाँ काफी अच्छा काम हो रहा है। नौकरी की चिंता कुछ विषयों में जरूर दिखाई पड़ती है। लेकिन अर्थशास्त्र, विदेशी भाषा जैसे विषयों में काफी संभावनाएं हैं। अच्छा शोध करने वाले संजीदा अध्यापकों, छात्र – छात्राओं की तादाद अन्य संस्थानों की तुलना में काफी है।
फेलोशिप वगैरह का उपयोग छात्र शोध में कम, प्रतियोगी परिक्षाओं की तैयारी में ज्यादा कर रहे है। आप की क्या प्रतिक्रिया है?
हम इसे नहीं रोक पायेंगे। आईएएस जैसे करियर काफी सुरक्षित है, जबकि सामाजिक विज्ञान मानविकी में शोधकार्य अनिश्चितताएं लिए हुए है। इस क्षेत्र में सरकार पर्याप्त ध्यान नहीं दे रही है। अमेरिका जैसे विकसित देश में उच्च शिक्षा के अच्छे संस्थान गिने-चुने हैं। इससे शोधार्थी के सामने नौकरी की समस्या है। लेकिन कुछ ही शोधार्थीयों की सर्वोच्च प्राथमिकता आईएएस वगैरह होती है। जेएनयू से उच्च शिक्षा प्राप्त छात्र अपनी योग्यता का इस्तेमाल राष्ट्रीय योजनाओं को बनाने में करते हैं तो इसमें बुरा क्या है? देश को अच्छे डॉक्टर, इंजीनियर नौकरशाह सबकी जरूरत है।
नवनियुक्त कुलपति के रूप में आपकी प्राथमिकताएं क्या रहेंगी?आज देश के बाहर आईआटी, आईआएम जैसी संस्थाएँ ही जानी जाती है । हमारी कोशिश रहेगी कि आने वाले वर्षों में आक्सफोर्ड और कैंब्रिज विश्वविद्यालयों की तरह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जेएनयू की पहचान हो। मेरा जोर अकादमिक स्तर को और बेहतर बनाने पर रहेगा। यहां केवल भारतीय और पारंपरिक विषयों के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था नहीं होगी बल्कि नैनो टेक्नालॉजी,बायो टेक्नालॉजी,स्वास्थ्य और औषध विज्ञान आदि में शोध और विकास की व्यवस्था की जाएगी। साथ ही अर्थशास्त्र, विज्ञान और प्रौधोगिकी में इंटीग्रेटेड एप्रोच के तहत अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था होगी।
सरोकार और सक्रियता
विश्वविद्यालय में यह किस्सा आम है कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की सरकार ने वामपंथी विचारधारा वाले बुद्धिजीवियों को एक टापू पर बिठाए रखने के लिए 1969 में जेएनयू की स्थापना की ताकि वे एक ही जगह सिमटे रहें। लेकिन विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति कुछ अलग ही किस्सा बयां करती है। यह बात आपातकाल के दौरान ही साफ हो गई थी कि यहाँ के छात्रों के सामाजिक सरोकार और प्रखर राजनैतिक चेतना महज कैंपस तक ही सीमित नहीं है। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के महासचिव देवीप्रसाद त्रिपाठी (डीपीटी) आपातकाल के दौरान छात्र संघ के अध्यक्ष थे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, जो विश्वविद्यालय की कुलाधिपति थीं, को छात्रों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा था। उन दिनों को याद करते हुए डीपीटी भावुक हो उठते हैं। वे कहते हैं: ‘भुलाने पर जो और भी याद आए, भला कोई ऐसे को कैसे भुलाए।’ जेएनयू उस दौर में तानाशाही, अधिनायकवादी शासन के प्रतिरोध का केन्द्र था । सरकार की ज्यादतियों को झेलते हुए छात्र- छात्राओं ने संघर्ष जारी रखा। त्रिपाठी मीसा के तहत गिरफ्तार कर लिए गए। फिर भी छात्र भूमिगत रहकर लोकतांत्रिक अधिकारों की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए काम करता रहा।
जेएनयू छात्र संघ की स्थापना सितंबर 1971 में हुई। छात्र संघ का संविधान छात्र- छात्राओं ने मिलकर तैयार किया। इसे बनाने में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के वर्तमान महासचिव प्रकाश करात की प्रमुख भूमिका थी। वे 1973-74 में छात्र संघ के अध्यक्ष थे। छात्र संघ एक स्वतंत्र इकाई है जिसमें प्रशासन का कोई दखल नहीं होता। संविधान की इसी विशिष्टता के कारण ही आपातकाल के दौरान भी छात्र संघ को प्रतिबंधित नहीं किया जा सका।
1983 में विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो पीएन श्रीवास्तव के कार्यकाल के दौरान छात्रों के एक वर्ग ने परिसर में तोड़फोड़ और हिंसा की। कुछ छात्रों को निष्काष्ति भी किया गया था। साथ ही प्रशासन ने छात्रों के लोकतांत्रिक हित और डेप्रिवेशन पांइट्स जैसे प्रावधानों पर अंकुश लगाया। इस एक घटना को छोड़कर कैंपस में आमतौर पर छात्रों की राजनैतिक गतिविधियां शांतिपूर्ण रहीं। हाल के कुछ वर्षों में जरूर फिर से छात्रों के कुछ संगठनों द्वारा हिंसा की छिटपुट घटनाएं सामने आई हैं।
जहां देश के अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र संघ गैर-राजनीतिक गतिविधियों का अड्डा बन चुके हैं। जेएनयू छात्र संघ एक मॉडल के रूप में उभरा है। यहां पर छात्र संघ चुनाव खास मुद्दों को लेकर विभिन्न छात्र संगठनों में वाद-विवाद के जरिए सादगी और शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न होता है। चुनाव एक त्योहार की तरह है जिसमें कैंपस के सभी छात्र- छात्राओं की भागीदारी होती है। अमूमन यहां का हर छात्र किसी न किसी छात्र संगठन का सदस्य होता है। एक आंकड़े के मुताबिक पहली सितम्बर, 2003 तक विश्वविद्यालय में छात्र – छात्राओं की कुल संख्या 4857 थी। छात्र संघ चुनाव के एक दिन पहले होने वाला अध्यक्षीय वाद-विवाद इस चुनाव का दिलचस्प पहलू है।
नब्बे के दशक से पहले यहां की छात्र राजनीति एसएफआई( स्टूडेंट फेडरेशन आफ इंडिया) विरूद्ध एफटी( फ्री थिंकर्स) के द्विध्रुवीय कोने तक ही सिमटी थी। नब्बे के बाद राष्ट्रीय स्तर पर देश में जो राजनीतिक परिदृश्य था वह यहां भी खुल कर उभरा। मंडल और मंदिर की राजनीति की अनुगुंज यहां भी सुनाई दी । इन्हीं वर्षों में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, नेशनल स्टूडेंट यूनियन् ऑफ इंडिया, और आल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन उभरा।
उन दिनों को याद करते हुए 1993-94 में छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके प्रणय कृष्ण कहते हैं: एसएफआई की वाम राजनीति से बेहतर विकल्प और दक्षिणपंथी छात्र राजनीति से आई चुनौती को आईसा ने बखूबी स्वीकार किया।’ दिवंगत छात्र नेता चंद्रेशखर, जिनकी 31मार्च 1997 को बिहार के सिवान में हत्या कर दी गई, के जुझारू व्यक्तित्व को उस दौर के छात्र आज भी याद करते हैं। चंद्रेशखर आईसा से दो बार छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए थे। वाम के इस गढ़ में एबीवीपी के संदीप महापात्रा 2000-2001 में अध्यक्ष चुने गए थे। यहां छात्र – छात्राओं का एक बड़ा वर्ग है जो राजनाति को आपदधर्म के रूप में लेता है। हालांकि हाल के सालों में राजनाति के प्रति एक किस्म की उदासीनता और करिअर के प्रति विशेष सक्रियता दिखाई देती है। पर वर्तमान छात्र संघ के अध्यक्ष मोना दास इससे इंकार करती हैं। वे छात्रों की राजनातिक जागरूकता के रूप में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी के कॉफी कार्नर के विरूद्ध इसी साल तैयार जनमत का उदाहरण देती हैं। पर जैसा कि छात्र संघ के अध्यक्ष रह चुके (1974-1975) प्रो आनंद कुमार कहते हैं: ‘राजनीति के प्रति निराशा और उदासीनता पूरे देश में हैं... फिर भी जेएनयू के छात्रों ने अपने परिसर की जरूरतों और देश, दुनिया के प्रति एक न्यूनतम सरोकार और सक्रियता की परंपरा को बनाए रखा है।’
( जनसत्ता रविवारी, 31 जुलाई 2005 को प्रकाशित, चित्र में ,गंगा ढाबा पर बैठे कुछ लोग)
Thursday, September 07, 2006
खेंचे है मुझे कुफ्र
बहरहाल, लंबे अर्से बाद एक मुकम्मल फिल्म देखने को मिली। शेक्सपीयर के नाटक ‘मैकबेथ’ से प्रेरित इस फिल्म की कहानी मुंबई के माफिया संसार के इर्द-गिर्द घूमती है। लेकिन इर्ष्या, द्वेष और खून-खराबे के बीच प्रेम एक शाश्वत भाव के रूप में पूरी फिल्म पर एक झीने आवरण-सा छाया रहता है। कलाकारों के अभिनय, निर्देशन, संपादन, संवाद, संगीत का सगुंफन इतनी कुशलता से हुआ है कि लगता है राष्ट्रीय नाट्य विधालय के किसी सभागार में किसी उच्च कोटि के नाटक का मंचन हो रहा है। सब कुछ आंखों के सामने जीवंत ! मुझे याद नहीं कि हाल के वर्षों में नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, पंकज कपूर, इरफान खान और तब्बू जैसे सिद्धहस्त कलाकार एक साथ पर्दे पर आए हों।
फिल्म देखने का चस्का छुटपन में ही लग गया था। शुरू-शुरू में पहला दिन पहला शो देखने की दिवानगी सी रहती थी। उस समय छोटे शहरों में टिकट की कीमत भी कम थी। पर धीरे-धीरे बॉलीवुड की अधिकतर फिल्मों की एक-सी घीसी-पिटी फार्मूलाबद्ध कहानी, कलाकारों के कृत्रिम अभिनय,भोंडे संवाद आदि बोरियत का सबब बनने लगे।
बात शायद 1995-96 की है। तब दिल्ली विश्वविधालय में नामांकन करवाया ही था। उन दिनों अखबारों में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एन एस डी) के एक ग्रेजुएट पीयूष मिश्रा की अदाकारी की खूब चर्चा थी। श्रीराम सेंटर के तलघर में एन ईवनिंग विद पीयूष मिश्रा देखने का मौका मिला। बाद में नाटकों में रूचि बढ़ती गई। नसीरूद्दीन शाह, मनोहर सिंह, सीमा विस्वास जैसे कलाकारों को भी देखा-सुना। पर पीयूष की उस अदाकारी में जाने क्या जादू था, या मेरी भावुकता कि अब भी उस कार्यक्रम की स्वर लहरियाँ कानों में गूँजती है।
मकबूल के माफिया डान अब्बाजी (पंकज कपूर) के सहयोगी काके को देखकर चौंक पड़ा। अरे! ये तो पीयूष हैं! इन वर्षों में अक्सर उस शाम की चर्चा, जो मैं ने पीयूष के संग बिताई था, मित्रों के संग करता रहता रहा था। लंबा अर्सा हो गया उन्हें मंच या पर्दे पर नहीं देखा। मणिरत्नम की फिल्म ‘दिल से’ में सीबीआई के एक इंसपेक्टर की छोटी मगर प्रभावपूर्ण भूमिका में वे जरूर दिखे थे पर खुशी से ज्यादा निराशा हुई। इतना बड़ा कलाकार और इतनी छोटी भूमिका! कुछ दिन पहले रंगमंच से जुड़े एक मित्र ने बताया कि आजकल वे फिर से मुंबई में है। अस्सी के उत्तरार्द्ध में भी वे मुंबई गए थे पर फिल्मी दुनिया उन्हें रास नहीं आई।
जब से समांतर सिनेमा का दौर मद्धिम पड़ा, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी जैसे संजीदा निर्माता-निर्देशक भी मुख्यधारा की फिल्मों की ओर रूख करने लगे। नतीजतन नाटकों की पृष्ठभूमि के कलाकारों के लिए बॉलीवुड में अजनबीपन बढ़ा है। नसीरुद्दीन शाह फिल्मी दुनिया से अपने मोहभंग को कई बार दोहरा चुके हैं।
असल में आज मुबंइया फिल्मों में जिस तरह से ग्लैमर बढ़ा है वहां पर ये कलाकार अपने को ‘अनफिट’ पाते हैं। खूबसूरत सपने बेचेने वाले, बाजार को अपना भगवान मानने वाले निर्माता-निर्देशकों के लिए इन कलाकारों की कला बेमानी है।
पंकज कपूर, इरफान खान जैसे सधे कलाकार भी वर्षों से मुबंई में हैं। करीब आठ-दस साल पहले मैंने ‘एक डॉक्टर की मौत’ में उन्हें देखा था। मकबूल ने उनकी अभिनय क्षमता को फिर से साबित किया है। पर दसेक सालो में एक-दो अच्छी भूमिका इन कलाकारों को कितनी संतुष्टि दिला पाती होगी? इस बात पर बहस की जा सकती है कि मंच के ये कलाकार यदि नाटक से जुड़े रहें तो अपनी कला का बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं। व्यावसायिक सिनेमा इनकी कला का बेजा इस्तेमाल कर रहा है।
सवाल यह भी हैं कि हमारा हिन्दी समाज इन कलाकारों की कितनी कद्र करता है? सच तो यह है कि अभी भी हिन्दी समाज में नाटकों को लेकर कोई विशेष अभिरूचि नहीं दिखलाई देती है। अपवादों को छोड़ कर स्कूलों-कॉलेजों में मंचन, शिक्षण या प्रशिक्षण की कोई विधिवत व्यवस्था नहीं है।
दिल्ली की ही बात करें तो नाटक देखने वालों का एक सीमित वर्ग है जो हर नाटक में नजर आता है। अन्य जगहों की स्थिति भी निराशाजनक ही है। और फिल्मों से मिलने वाला मेहनताना, शोहरत, एक माध्यम के रूप में बड़े दर्शक वर्ग तक पहुँच पाने की क्षमता को नजरअंदाज करना कलाकारों के लिए बहुत ही मुश्किल है। गालिब से शब्द उधार लेकर कहूँ तो इनकी स्थिति- 'इमां मुझे रोके है तो खेचे है मुझे कुफ्र' की है।
कुछ दिन पहले इसी स्तंभ में कवि-कथाकार उदय प्रकाश ने मुंबई में रह रहे एनएसडी के ही एक स्नातक की दुखद विक्षिप्त स्थिति के बारे में लिखा था। मुझे बरबस सुरेंद्र वर्मा के उपन्यास ‘मुझे चाँद चाहिए’ के केन्द्रीय पात्र हर्ष का चरित्र याद हो आया। सब अनुपम खेर या नसीरुद्दीन शाह की तरह ही भाग्यशाली नहीं होते। हमारे समाज को इन कलावंतो की कितनी चिंता है?
(चित्र में, पंकज कपूर और पीयूष मिश्रा)
(जनसत्ता, नई दिल्ली 16 मार्च, 2004 को दुनिया मेरे आगे कॉलम में प्रकाशित)
Wednesday, September 06, 2006
एशियाई जीवन के सबरंग
जफर पनाही निर्देशित इस फिल्म का कथानक यथार्थ से वावस्ता है । फुटबाल की शौकीन कुछ लड़कियाँ स्टेडियम जा कर मैच का लुत्फ लेना चाहती है , पर ईरान में इस पर पाबंदी है । अपना भेष बदल कर , चोरी- छिपे लड़कियाँ किसी तरह स्टेडियम पहुँच तो जाती है पर पुलिस की निगाहों से बच नही पाती । डाक्युमेंट्री शैली में बनी यह फिल्म हमें इस यथार्थ से रू-ब-रू करवाती है कि खेल की भी अपनी एक संस्कृति है । इस संस्कृति पर पुरूषवादी वर्चस्व सामंती समाज में स्त्रियों की दारूण दशा को और भी दयनीय बनाती है । पिछले दो दशको में ईरानी सिनेमा ने अंतरराष्ट्रीय जगत में एक विशिष्ट मुकाम बनाया है । अब्बास केरोस्तामी , मोहसेन मखमलबफ की कई फिल्मों को अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है । गौरतलब है कि बर्लिन फिल्म समारोह में जूरी ग्रैंड पुरस्कार से सम्मानित इस फिल्म के ईरान में प्रदर्शन पर रोक लगी हुई है । मानवीय संवेदनाओ से लिपटी सीधे-सादे कथानक को बिना किसी ताम झाम के एक अनोखी सिनेमाई भाषा में कहना ईरानी सिनेमा की विशेषता है जो इसे दर्शकों के बीच काफी मकबूल बनाती है । इसी समारोह में दिखाई गई मोहसेन मखमलबफ की फिल्म ‘सेक्स ओ फलसफा ’ ( सेक्स एण्ड फिलासफी ) संगीत , नृत्य और उत्कृष्ट अभिनय के साथ – साथ कथानक की विशिष्टता के लिए याद की जाएगी । प्रेम और सेक्स के इर्द–गिर्द धूमती यह फिल्म आधुनिक समाज में सेक्स के प्रति अतिरिक्त मोह और उदारता , फलतः मानवीय संबंधो में प्रेम की कमी की ओर इशारा करती है ।
फिल्में हमें यथार्थ की दुनिया से फंतासी की ओर ले जाती है । पर इस स्वप्नलोक में भी यथार्थ की पुनर्रचना फिल्म को एक कला माध्यम के रूप में विशिष्ट बनाती है। एशियाई समाज की हलचलों, जीवन के द्वंद ,अभाव-अभियोगों को संपूर्णता में दिखाती इन फिल्मों को एक मंच पर लाने का ओसियान – सिनेफैन का यह प्रयास निस्संदेह काबिलेतारीफ है । बीजिंग फिल्म अकादमी के प्रोफेसर और फिल्म निर्देशक से फे कहते हैं कि कान – बर्लिन जैसे फिल्म समारोहो में बाजार का घटाटोप समारोह की मूल संवेदना से मेल नहीं खाता है । यह समारोह अभी इस से अछूता है । हांगकांग के प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक स्टेनले क्वान का कहना है कि अपनी फिल्मों के दर्शकों से मिलने का , उनकी टीका-टिप्पणी को जनाने का इससे बेहतर मौका हमें कहाँ मिलेगा ? समारोह में जुटी दर्शकों की भीड़ इसकी गवाही दे रही थी । पर इस बार का समारोह थोड़ा महंगा था । 20 रूपये की टिकट फिल्मों के लिए रखी गई थी । इसकी मार सबसे ज्यादा झेली विश्वविद्यालय के छात्रों ने । बहरहाल यह समारोह एशियाई समाज को जानने-समझने का एक महत्वपूर्ण माध्यम साबित हो रहा है ।
समारोह में एक तरफ समकालीन वैश्विक राजनैतिक –सामाजिक प्रश्नो को उठाती फिल्मों का प्रदर्शन हुआ , तो दूसरी ओर मानवीय मूल्यों – प्रेम , शांति और समन्वय को आत्मसात किए बौद्ध दर्शन से जुड़ी हुई फिल्मों का एक विशेष खण्ड महात्मा बुद्ध के जन्म के 2550 साल पूरे होने के अवसर पर दिखाई गई । इजराइल – फिलिस्तीनी संघर्ष को केंद्र में रख कर बनी हेनी अब्बू असद की फिल्म ‘अल जाना (पैराडाइज नाउ)’ भावपूर्ण अभिनय ,संपादन , और कसी हुई पटकथा के कारण चर्चित रही । ईराक पर अमेरिकी आक्रमण के फलस्वरूप वहाँ के लोगों के जीवन में आये भूचाल को मोहम्मद अल-दारदजी ने ‘अहलाम (द ड्रीम्स) ’ में दिखाया है जो हमारी संवेदना को गहरे झकझोरती है । सामिर नसर की फिल्म ‘सीड्स ऑफ डाउट’ 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका के वर्लड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद एक अलजिरीयाई मूल के वैज्ञानिक तारिक सीलमानी और उनकी पत्नी माया, जो जर्मनी में शांतिपूर्ण ढंग से अपना जीवन बसर कर रहे थे, के संबंधों में आए अविश्वास और उसकी परिणती को खूबसूरती से चित्रित करती है । आतंकवाद की छाया प्रेमपरक मानवीय संबंधो को भी किस कदर अपने घेरे में ले चुकी है ,यह फिल्म हमें इस भयावह यथार्थ से परिचय कराती है ।
राहुल ढोलकिया की चर्चित फिल्म ‘परजानिया’ निस्संदेह राकेश शर्मा की डाक्यूमेंट्री ‘फाइनल सोल्यूशन’ के बाद गुजरात नरसंहार पर बनी एक अतिसंवेदनशील फिल्म है । फिल्म का प्रदर्शन अभी तक भारतीय सिनेमाघरों में नही हुआ है । बौद्ध दर्शन को ले कर 1925 में बनी फिल्म ‘प्रेम संन्यास’ , और अपने दौर में काफी चर्चित रही ‘सिद्धार्थ’ को देखना पुराने जमाने की ओर लौटने जैसा था । हाल में बनी ‘द लास्ट मोंक ’ , ‘ एंग्री मोंक ’ का प्रर्दशन भी समारोह में किया गया । लद्दाख की वादियों को ‘द लास्ट मोंक’ में खूबसूरत ढंग से कैद किया गया है। पर कमजोर पटकथा फिल्म के मुक्त प्रवाह में बाधक है।
समारोह में प्रेम , सेक्स और विवाहेत्तर संबंधो को लेकर बनी कई फिल्मो का प्रदर्शन हुआ । उदघाटन फिल्म पैन नलिन निर्देशित ‘वैली ऑफ फ्लावर्स ’ प्रेम की शाश्वतता के निरूपण के लिए कम , सेक्स के अकुण्ठ चित्रण को ले कर दर्शकों के बीच काफी चर्चा में रही । फिल्म में सेक्स के कई दृश्य ऐसे थे जिनका ताल-मेल कथानक से बिठाना मुश्किल था । फ्रांस , जापान और जर्मनी के सहयोग से बनी यह फिल्म एक खास पश्चिमी दर्शक वर्ग के लिए बनाई गई प्रतीत होती है । विवाहेत्तर संबंधो को लेकर बनी हुर जीन हो निर्देशित कोरियाई फिल्म ‘अप्रैल स्नो ’ और रितुपर्णो घोष की बांग्ला फिल्म ‘ दोसर ’का कथानक अप्रत्याशित रूप से समान था । नूरी विलगे सेयलन की फिल्म ‘ क्लाइमेट्स ’ विवाहेत्तर संबंधो को लेकर बनी अन्य फिल्मों में उत्कृष्ट थी । पति-पत्नी के मनोभावों , आवेगों , तनाव और त्रासदी का निरूपण अदभुत है । संबंधों में आए ठहराव को छाया चित्रों की शैली में लिए गए शॉट्स के माध्यम से निर्देशक ने दिखाया है , जो इस फिल्म के मुख्य पात्र भी हैं ।
जेफरे जेतूरियन निर्देशित फ़िलिपींस की फ़िल्म ' द बेट कलेक्टर ' को एशियाई प्रतियोगिता खंड में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म और सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार दिया गया । भारतीय प्रतियोगिता खंड में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का पुरस्कार रामचंद्र पी एन की फिल्म ‘शुद्ध’ को मिला । ' द बेट कलेक्टर ' में एक अधेड़ महिला की विषम परिस्थतियों में अदम्य जिजीविषा का यथार्थ चित्रण है । ‘शुद्ध’ में सामंती व्यवस्था के टूटने और सामाजिक संरचना में आए बदलाव के फलस्वरूप आपसी संबंधों की पड़ताल दक्षिण भारत के एक गाँव को केन्द्र में रख कर की गई है। समारोह में चालीस देशों से आई तकरीबन 120 फिल्मों का एक बड़ा हिस्सा युवाओं के जीवन , स्वप्न और संघर्ष को लेकर था । फिलिपींस से आई मार्क मेली की फिल्म ‘ द पैशन ऑफ जेस हुसोन ’ एक युवा के सपने को करूणा मिश्रित हास्य और व्यंग्य के माध्यम से दिखाती है । जेस हुसोन का एक ही सपना है कि वह किसी भी तरह अमेरिका पहुँच जाए । इसके लिए वह कुछ भी करने को तैयार है । इस विषय वस्तु को नसीरूद्दीन शाह ने चार एक साथ चलने वाली कहानियों के माध्यम से अपनी फिल्म ‘यूँ होता तो क्या होता ’ में भी दिखाया है । इस फिल्म के लगभग सभी किरदार अमेरिका की ओर रूख किए हुए है । पर अंत त्रासदी में होती है । भूमंडलीकरण के इस दौर में अमेरिकी वर्चस्ववादी संस्कृति के प्रति उपेक्षा और मोहभंग भी दिखाई पड़ता है अंजन दत्त की फिल्म ‘ द बोंग कनेक्शन ’ में । समारोह में पुरस्कृत बांग्लादेश की फिल्म ‘ ओंतरजात्रा ’ विसंस्कृतिकरण के इस दौर में अपने जड़ो को तलाशती एक संवेदनशील फिल्म है । तुर्की से आई ‘टू गर्लस’ , मिश्र की ‘डाउनटाउन गर्लस’ और ‘दुनिया’ जैसी फिल्में अरब देशों में औरतों की स्थिति उनके सपने और संघर्ष से हमारा परिचय कराती है ।
समारोह की खास उपलब्धि भारतीय फिल्म निर्देशक ऋत्विक घटक और हांगकांग के स्टेनले क्वान को श्रद्धांजली देते हुए उनकी फिल्मों का प्रदर्शन रही । ऋत्विक घटक की सात फिल्मों के साथ- साथ निर्देशक अनूप सिंह की फिल्म एकटी नदिर नाम ,जो ऋत्विक घटक को समर्पित थी, का प्रदर्शन किया गया ।
कहते हैं प्रतिभाएँ अक्सर अराजकता लिए हुए होती है । ऋत्विक घटक एक ऐसी ही प्रतिभा थे । एक बार फिल्म निर्देशक सईद मिर्जा ने उनसे पूछा कि आपकी फिल्मों का प्रेरणास्रोत क्या है ? उनका जवाब था , एक पॉकेट में शराब की बोतल दूसरे में बच्चों की सी संवेदनशीलता । 6 फरवरी 1976 को जब उनका देहांत हुआ तब वे महज इक्यावन वर्ष के थे । अराजकता उनके व्यक्तित्व का अहम हिस्सा भले रही हो , पर उनकी फिल्मों से वह कोसो दूर रही । अजांत्रिक , मेघे ढाका तारा , कोमल गांधार , सुवर्ण रेखा , तिताश एकटी नदिर नाम जैसी उनकी फिल्में भारतीय सिनेमा की थाती है । बंगाल के अकाल और विभाजन की त्रासदी की छाप उनके मनोमस्तिष्क पर जीवनपर्यंत रही । निर्वासन की पीड़ा उनकी फिल्मों के केंद्र में है , जिसके वे भोक्ता थे ।
सुवर्णरेखा की कथा विभाजन की त्रासदी से शुरू होती है । फिल्म के आरंभ में ही एक पात्र कहता है यहाँ कौन नही है रिफ्यूजी ? ऋत्विक घटक निर्वासन की समस्या को एक नया आयाम देते हैं । यह समस्या सिर्फ विस्थापन की ही नहीं है । आज भूमंडलीय ग्राम में जब समय और स्थान के फासले कम से कमतर होते चले जा रहे हैं हमारी अस्मिता की तलाश बढ़ती ही जा रही है । ऋत्विक की फिल्में हमारे समय और समाज के ज्यादा करीब है । प्रसंगवश, स्टेनले क्वान की एवरलास्टिंग रिग्रेट, रूज, रेड रोज व्हाईट रोज जैसी फिल्मों में स्त्री अस्मिता की तलाश और पहचान बार बार उभर कर सामने आती है । ‘ रूज ’ फिल्म में स्त्री की अस्मिता के साथ- साथ शहर की अस्मिता की तलाश भी गुँथी हुई है ।
ऋत्विक घटक ने भारतीय सिनेमा की एक पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया । पुणे स्थित भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान में उनके छात्र रह चुके मणि कौल , कुमार शहानी , अदूर गोपालकृष्णण ,जो भारतीय न्यू वेव सिनेमा के जनक माने जाते है , खुद को ‘ ऋत्विक घटक की संतान ’ कहलाने में फक्र महसूस करते हैं । अदूर गोपालकृष्णण घटक के इप्टा की पृष्ठभूमि और संगीत के कलात्मक इस्तेमाल की ओर इशारा करते हैं । फिल्म निर्देशक मणि कौल कहते हैं कि अब भी मैं ऋत्विक दा से बहुत कुछ सीखता हूँ । उन्होंने मुझे नवयथार्थवादी धारा से बाहर निकाला । अक्सर ऋत्विक घटक की फिल्मों की आलोचना मेलोड्रामा कह कर की जाती है । मणि कौल का मानना है कि वे मेलोड्रामा का इस्तेमाल कर उससे आगे जा रहे थे । उस वक्त उन्हें लोग समझ नहीं पाये । ऋत्विक घटक की ज्यादातर फिल्में बॉक्स ऑफिस पर असफल रही । वे ताउम्र वित्त की समस्या से जुझते रहे । समांतर सिनेमा में अपनी आस्था रखने वाले निर्देशक आज भी किसी न किसी रूप में इस समस्या से जुझते हैं
इन्हीं सवालों को लेकर समारोह में ‘ भारतीय सिनेमा में समांतर आवाजें ’ विषय पर आयोजित संगोष्ठी में समांतर सिनेमा से जुड़े निर्माता- निर्देशकों ने अपने विचार रखे । सामारोह में समकालीन भारतीय उत्कृष्ट सिनेमा की कमी सालती रही। सत्यजीत रे , ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की फिल्मों से प्रभावित भारतीय समांतर सिनेमा की धारा सूख चुकी है । क्या समांतर सिनेमा अब भी एक संभावना है ? ओसियान – सिनेफैन से हाल ही में जुड़े मणि कौल कहते हैं हमारी कोशिश है कि मुख्यधारा की फिल्मों से जुड़े लोगों और समांतर सिनेमा में अपनी आस्था रखने वालों के बीच संवाद कायम रहे । साथ ही ओसियान – सिनेफैन फिल्म निर्माण के क्षेत्र की ओर अपना कदम बढ़ा रही है , कोशिश है कि वित्त की एक ऐसी व्यवस्था की जाए कि समांतर सिनेमा की धारा को पुनर्जीवित किया जा सके ।
Sunday, July 09, 2006
Monday, July 03, 2006
निर्वासन में निर्माण
लामा घूमते रहते हैं
आजकल
मंत्र बुदबुदाते
................
वे मंत्र नहीं पढ़ते
वे फुसफुसाते हैं-तिब्बत
तिब्बत- तिब्बत
तिब्बत- तिब्बत
तिब्बत- तिब्बत
और रोते रहते हैं
रात-रात भर
राजधानी दिल्ली की सरगर्मियों से दूर धौलाधार की पहाड़ियों में , चीड़ और देवदार के घने जंगलों से घिरा एक तिब्बत धर्मशाला के मैकलोडडगंज में स्थित है। तिब्बतियों की राजनैतिक -सांस्कृतिक आकांक्षाओं का यह केन्द्र दुनिया भर में ‘ दूसरा तिब्बत ’ के नाम से जाना जाता है । कुछ यथार्थ , कुछ स्वप्निल सा यह संसार जैसे हिमाचल की देव भूमि नाम की सार्थकता सिद्द करता है । जून महीने की इस अलसुबह में लोगों का हूजूम नम्-ग्यल् मंदिर की ओर बढ़ा चला जा रहा है। सनतफ और तोनखाक पहने लामा , हाथो में धर्मचक्र और तसबीह लिए आम जन मुख्य मंदिर में बुद्ध की विशाल प्रतिमा के सामने पूजा-अर्चना में तल्लीन हैं। ‘ ओम मणिपद्मेहुम ’ की ध्वनि पूरे परिसर में गूंज रही है। दलाई लामा का आवास इसी परिसर से सटा हुआ है । बुद्ध पूर्णिमा के विशेष महीने में उत्तर प्रदेश , बिहार से आये बौद्ध भिक्षुक यहाँ डेरा डाले हुए हैं । देशी-विदेशी सैलानियों का सैलाब फिजा में एक अजीब रंग भर रहा है । बाहर से आए सैलानियों के लिए भले ही यह दुनिया सुकून देने वाली हो पर एक लम्बे अर्से से यहाँ रह रहे तिब्बतियों के लिए घर आज भी एक सपना है । तिब्बत का नाम सुनते ही इनकी आँखों में खोये हुए हुए ख़्वाब उभर आते हैं। मैकलोडगंज बाजार के फुटपाथ पर अपनी छोटी सी दुकान लगाए वांदू ने अपने धर्मगुरू दलाई लामा की तरह पिछले 47 सालों से तिब्बत नही देखा है। वे कहते हैं “ हमको तो जाना ही चाहेगा तिब्बत वो अपना देश है । ” पर यह कैसे संभव होगा ? ‘वो गुरूजी (दलाई लामा) जैसा चाहेगा वैसा होगा ।’ अपने राजनैतिक और धर्मगुरू दलाई लामा से वांदू की तरह हजारों तिब्बती शरणार्थियों की यही उम्मीद है ।
माओत्सेतुंग की चीनी सरकार की ज्यादतियों और उसके विरोध में 10 मार्च 1959 को हुए ल्हासा विद्रोह के बाद तब 23 वर्षीय दलाई लामा ने अपने 80,000 अनुयायियों के साथ देश के बाहर शरण लेने का निश्चय किया । चीनी सत्ता के सामने किसी भी तरह के प्रतिरोध की परिणति हिंसा और जान – माल की क्षति में होती। नतीजतन अहिंसा और शांतिपूर्ण ढंग से तिब्बत समस्या के हल की कोशिश की पहल उन्होने की जिसकी आज पूरे विश्व में सराहना की जा रही है । शांति के लिए दिया गया नोबेल पुरस्कार और पिछले दिनों अमेरिका का सर्वोच्च नागरिक सम्मान कांग्रेसनल गोल्ड मेडल की घोषणा इसकी तस्दीक करती है । 29 अप्रैल 1959 को मसूरी में निष्कासन अवधि के दौरान दलाई लामा ने लोकतांत्रिक आधार पर तिब्बती सरकार का पुनर्गठन किया । तिब्बतियों के स्वतंत्रता संघर्ष को नेतृत्व देने वास्ते केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन के लिए एक संविधान बनाया गया जो तिब्बतियों से संबंधित सभी नीतियों का संचालन करता है। तिब्बत में तथा तिब्बत के बाहर रहनेवाले तिब्बतियों के लिए यह निर्वासित सरकार ही उनकी एकमात्र वैध सरकार है। मई 1960 से केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन का मुख्यालय धर्मशाला में है । धर्मशाला स्थित निर्वासित सरकार असल में तिब्बत के स्वतंत्रता की पूर्वपीठिका है । बातचीत के दौरान कई राजनैतिक कार्यकर्ता इसे ‘ एक प्रयोग ’ की संज्ञा देते हैं ।
खुद दलाई लामा इस बात को कह चुके हैं कि स्वतंत्रता के बाद पहली चुनौती अंतरिम सरकार का गठन कर एक संविधान सभा को चुनने की होगी । सभा तिब्बत के लिए लोकतांत्रिक संविधान का निर्माण कर उसे अपनायेगी । जैसे ही तिब्बती जन सरकार का चुनाव करेंगे , दलाई लामा अपने सारे राजनैतिक अधिकार उस समय की अंतरिम सरकार के अध्यक्ष को सौंप देंगे। यह कब और कैसे होगा यह अनुत्तरित सवाल धर्मशाला में हर तिब्बती के चेहरे पर लिखा हुआ दिखाई पड़ता है । तिब्बती युवा कांग्रेस , जिससे तकरीबन 30,000 सदस्य जुड़े हुए हैं , के अध्यक्ष कालसांग फुनसोक गोरदुकपा कहते हैं तिब्बत का मुद्दा उलझा हुआ है । ऐसा नहीं कि हम निराश हैं , पर इतिहास गवाह है कि संधर्ष का रास्ता कभी आसान नहीं होता । गौरतलब है कि तिब्बती युवा कांग्रेस तिब्बती सरकार की मध्यमार्गीय नीति का समर्थन नही करती है ।
पंडित नेहरू ने 1959 में लोकसभा में तिब्बत को सांस्कृतिक रूप से भारत का विस्तार कहा था। इसी बात का समर्थन करते हुए तिब्बत सरकार के वर्तमान प्रधानमंत्री समदौङ रिनपोछे कहते हैं “ तिब्बत शत – प्रतिशत भारतीय बौद्ध संस्कृति का विस्तार है । भाषा , व्याकरण , लिपि , धर्म आदि भारत से वहाँ गये । ” यही वजह है कि दलाई लामा ने दूसरे जगहों की बजाय भारत को तरजीह दी। वह कहते है , यह हमारा गुरू देश , धर्म देश है । आज भारत , भूटान , नेपाल , अमेरिका , कनाडा , स्वीटजरलैण्ड आदि देशों में तकरीबन 1 लाख 30 हजार तिब्बती रह रहे हैं , जिनमे से करीब 1 लाख पूरे भारत में फैले विभिन्न पुनर्वास शिविरों में हैं । तिब्बत और भारत के बीच आवा -जाही प्राचीन काल से रही है । तिब्बत में जो एक विशिष्ट आध्यात्मिक पद्धिति एवँ संस्कृति विकसित हुई उसका उत्स भारत रहा है । सातवीं सदी में तिब्बत में बौद्द धर्म भारत से गया । भारत के साथ तिब्बत के व्यापारिक संबंध भी रहे हैं । तिब्बत में प्राचीन काल के भारतीय ग्रंथ , शास्त्र आदि विद्यमान हैं । आधुनिक काल में महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत जा कर प्राचीन आचार्यों की कई दुर्लभ ग्रंथों और पांडुलिपियों की खोज की थीं । आचार्य धर्मकीर्ति की विख्यात किन्तु लुप्त कृति ‘ प्रमाणवार्तिक ’ की मूल प्रति यायावर राहुल को तिब्बत में ही मिली थी । ऐसे ही अनेक ग्रंथ वह तिब्बत से ढूंढ लाये थे । मूल तिब्बती में सुरक्षित इन ग्रंथों के पुनरोद्धार का काम सारनाथ स्थित तिब्बती उच्च अध्ययन संस्थान में पिछले 40 सालों से हो रहा है ।
जड़ो से कट कर भी किस तरह अपनी साँस्कृतिक विशिष्टता को बचाए रखा जा सकता है धर्मशाला में रह रहे तिब्बती इसका अप्रतिम उदाहरण हैं । तिब्बतियों की आत्मीयता , निश्छलता , आपको गहरे छू जाती है । पर जैसा अमूर्त भाव तिब्बतियों को लेकर हमारे मन में दूर से देखने पर उपजता है वह नजदीक से देखने पर नहीं आता । पुराने और नये के बीच एक जद्दोज़हद है । सन् 2002 से धर्मशाला में मिस तिब्बत प्रतियोगिता का आयोजन प्रत्येक साल अक्टूबर महीने में किया जाता है । लेकिन निर्वासित सरकार इसे अपसंस्कृति कह कर खारिज़ करती है । यह प्रतियोगिता एक प्राइवेट संस्था लोबसांग वांग्यल के बैनर तले आयोजित होता है । प्रतियोगिता के लिए प्रतिभागी बमुश्किल मिल पाती है । पिछले साल महज एक ही प्रतिभागी अंत तक प्रतियोगिता में टिकी रही । आयोजक लोबसांग वांग्यल सामाजिक दबाव को इसके लिए जिम्मेदार मानते हैं । पर उनका कहना है कि इन प्रतियोगिताओं से तिब्बती आधुनिक संस्कृति की झलक अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचेगी , साथ ही स्वतंत्र तिब्बत की हमारी माँग पुख्ता होगी । यही संस्था पिछले साल से तिब्बती फिल्म महोत्सव का भी आयोजन धर्मशाला में कर रही है । पुरानी और नई पीढ़ी के सोच और व्यवहार में अंतर राजनैतिक विचारों को लेकर भी है । पिछली पीढ़ी के लोग चीनी सरकार द्वारा नवनिर्मित 1142 किलोमीटर लंबी रेल लाईन , जो कि ल्हासा को बेजींग , संघाई जैसे शहरों से जोड़ेगी , को तिब्बतियों के खुशहाली के रूप में देखते हैं । खुद दलाई लामा इस साल 10 मार्च को दिए अपने भाषण में तिब्बती क्षेत्रों में हुए ढाँचागत विकास को सकारात्मक माना है । तिब्बती युवा कांग्रेस के दिल्ली स्थित कार्यालय में सूचना सचिव धोनधुप इससे सहमत नहीं है। उनका कहना है कि यह आर्थिक नहीं राजनैतिक निवेश है । चीनी सरकार रेलवे का इस्तेमाल इस क्षेत्र में अपनी सैन्य गतिविधियों को बढ़ाने में करेगी । विकास के नाम पर तिब्बती अस्मिता तथा संस्कृति को मिटाना चीनी सरकार की मूल मंशा है , इसलिए हम इसका विरोध कर रहे हैं । तिब्बत में चीनी सरकार की कोई भी गतविधि भारत के लिए भी परेशानी का सबब होगी । जबसे तिब्बत की भूमिका भारत और चीन के बीच बफर स्टेट ( मध्य –स्थित राष्ट्र ) की नहीं रही , तिब्बती सीमा पर अतरिक्त सुरक्षा और चौकसी की जरुरत बढ़ गई है । अंतरराष्ट्रीय संबंधो के कई विशेषज्ञ भारत और चीन के बीच कूटनीतिक दृष्टि से तिब्बत की महत्वपूर्ण भूमिका को रेखांकित करते रहे हैं ।
तिब्बती युवा अपने जीवन , भविष्य को लेकर किसी भी आम भारतीय की तरह ही चिंतित है । समय के साथ आगे बढ़ने की ललक इनमें है । पिछली पीढ़ी के बरक्स नई पीढ़ी पर पापुलर कल्चर का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है । रहन-सहन , खानपान और पहनावे आदि में हर कहीं बदलाव झलक जाता है । मोमो , टीमो , चाउमीन की खुशबू के साथ- साथ कान्टीनेन्टल और उत्तर तथा दक्षिण भारतीय व्यंजनों की महक रेस्तराओ में महसूस होती है । पारंपरिक परिधान के साथ - साथ पश्चिमी परिधानों का चलन बढ़ा है । सड़कों तथा बाजार में युवाओ को देशी – विदेशी संगीत पर थिरकते देखा जा सकता है । आधुनिक शिक्षा पर जोर बदलते वक्त के साथ कदमताल मिलाने की कवायद है । तिब्बती स्कूलों में पाँचवी तक की शिक्षा तिब्बती भाषा में दी जाती है , उसके बाद की पढ़ाई – लिखाई हिन्दी तथा अंग्रेजी माध्यम से होती है । दिल्ली के एक कॉल सेंटर में काम कर रही तेंजिन डोलकर बताती हैं ‘ पाँचवी तक की पढ़ाई तिब्बती भाषा के माध्यम से करने के बाद हिन्दी तथा अंग्रेजी माध्यम से हमने पढ़ाई किया था । ’ भारतीय सरकार की नौकरियों में चूँकि इनका प्रवेश नहीं होता , फलतः पढ़ाई पूरी करने के बाद जोर स्वरोजगार पर होता है । भारतीय अर्थव्यस्था में उदारीकरण के आने के बाद प्राइवेट सेक्टरों में भी तिब्बती युवाओं के लिए अवसर खुले हैं । फिर भी करीब 70 फीसदी तिब्बतियों का आर्थिक आधार ऊनी कपड़ो सहित जूते और अन्य वस्तुओं की खरीद-फरोख्त पर टिका हुआ है । इसके अलावा रेस्तरां , इंटरनेट कैफे , कृषि क्षेत्रों से जुड़े रोजगार आमदनी का मुख्य स्रोत हैं । देश – विदेश से मिलने वाली आर्थिक सहायता निस्संदेह तिब्बतियों के लिए संजीविनी का काम करती है । बहरहाल ,तिब्बतियों की कर्मठता , स्वाबलंबन शरणार्थी शब्द को झुठलाता है ।
निर्वासित सरकार का कार्यालय न्यूयार्क , पेरिस ,लंदन , टोकियो , काठमाण्डू और मास्को जैसी जगहों पर भी है । पूरे यूरोप तथा अमेरिका में बौद्द धर्म को प्रसारित करने का श्रेय दलाई लामा को जाता है । धर्मशाला में देशी – विदेशी सैलानियों का जमावड़ा पूरे साल भर रहता है । दिल्ली तथा अमेरिका से उच्च शिक्षा प्राप्त निर्वासित सरकार की संसद सदस्य बत्तीस वर्षीय तेसरिंग योदून कहती हैं ‘ भले ही आधुनिक शिक्षा- दीक्षा और पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव बाहरी तौर पर पड़ा हो , हमारी अस्मिता तिब्बती ही है । धर्म हमारे लिए आस्था और अस्मिता दोनो है । ’ एक – दो अपवादो को छोड़ आज भी आमतौर पर तिब्बती अपनी समुदाय के लोगों के बीच ही शादी करते हैं ।
तिब्बती सांस्कृतिक विशिष्टता को अक्षुण्ण बनाए रखने में तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने दूरदर्शिता का परिचय दिया था । प्रधानमंत्री रिनपोछे कहते हैं ‘ उस वक्त यदि नेहरू चाहते तो आजीविका के लिए विशाल भारत में शरणार्थियों को कही भी खपा सकते थे, पर उन्होने तिब्बती शरणार्थी को समूहों में पुनर्वास करने की योजना बनाई । जिससे वे बिखर नही गये। समूहों में उनकी अस्मिता बनी रह सकी। ’ आज पूरे देश में तकरीबन 45 पुनर्वास शिविर हैं । इन शिविरों में 20-30 हजार की आबादी से लेकर 400-500 तक की आबादी बसती है । शिमला , देहरादून , दार्जिलिंग , मुण्डगोड आदि जगहों पर ये वेवतन अपनी भाषा , साहित्य , संस्कृति को सँभाले हुए संघर्ष की लौ जलाये हुए हैं । इन शिविरों में बौद्ध मंदिर , तिब्बती स्कूल , पारंपरिक तिब्बती चिकित्सा केंद्र मौजूद है। मैकलोडगंज स्थित तिब्बती बौद्ध दर्शन विश्वविद्यालय , पुस्तकालय , पारंपरिक चिकित्सा केन्द्र , प्रदर्शनकारी कला केन्द्र दूसरे तिब्बत नाम को सच साबित करता है । यहाँ पूरे भारत में फैले तिब्बतन चिल्ड्रेन्स विलेज का मुख्यालय है । जहाँ पर बच्चे तिब्बती भाषा , साहित्य , संस्कृति के अलावे आधुनिक ज्ञान – विज्ञान की शिक्षा पाते है । मैकलोडगंज के विभिन्न बौद्ध विहारों में कर्नाटक , अरूणाचल प्रदेश , लद्दाख के अलावे बुरियातिया , तुबा , मंगोलिया जैसी जगहों से बौद्ध दर्शन की पढ़ाई करने काफी बच्चे आते हैं। चीनी प्रतिनिधि मंडल के साथ बातचीत कर रहे तिब्बती तिब्बत प्रतिनिधि मंडल के सदस्य सोनम नोरबु डागपो बताते हैं किस तिब्बत से प्रत्येक महीने सैकड़ो तिब्बती पहाड़ को लाँघ कर नेपाल के रास्ते तिब्बती संस्कृति में दीक्षित होने धर्मशाला पहुँचते है । इसी तरह बौद्ध भिक्षुणी डेलिक तोसमो आठ साल पहले बौद्ध दर्शन और संस्कृति का अध्ययन करने तिब्बत से धर्मशाला आई। वे कहती हैं कि मैं रोज तिब्बत के बारे में सोचती हूँ । मेरा एक ही सपना है कि कैसे मैं फिर तिब्बत पहुँच जाऊँ । शायद यही सपना लाखों तिब्बती रोज देखते होगें ।
बेवतन सरकार
बीते 3 जून को पूरे दिन निर्वासित तिब्बती सरकार के धर्मशाला स्थित मुख्यालय में गहमागहमी रही । इस दिन सरकार के प्रधानमंत्री ( कालोन तिरपा ) पद के लिए चुनाव हुआ । 1 जुलाई को चुनाव परिणाम आया । मुकाबला वर्तमान प्रधानमंत्री समदौङ रिनपोछे और पूर्व मंत्री जूचेन थूपतेन नम्-ग्यल् बीच था । सन् 2001 में दलाई लामा की अनुशंसा पर तिब्बती संसद ने संविधान में संशोधन कर प्रधानमंत्री पद के लिए लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव की व्यवस्था की थी । सन् 2001 में पहली बार प्रधानमंत्री पद के लिए चुनाव कराया गया था । इससे पूर्व दलाई लामा जो केन्द्रीय तिब्बती प्रशासन के अध्यक्ष हैं , कशाग ( निर्वाचित मंत्री परिषद ) के अध्यक्ष ( प्रधानमंत्री ) को नामांकित करते थे । इस चुनाव में तकरीबन 33 देशों में फैले निर्वासित तिब्बती ने एक व्यक्ति एक वोट ( जिनकी आयु 18 वर्ष हो ) के आधार पर अपने मत का प्रयोग किया । मुख्य चुनाव आयुक्त तासी पुनसौ कहते हैं विभिन्न देशों में मौजूद क्षेत्रीय चुनाव कार्यालय ने इस प्रक्रिया को अंजाम दिया । यह पूछने पर की चीनी सरकार इस चुनाव को किस रूप में लेगी ? उनका कहना था कि , निस्संदेह इस पूरी चुनाव प्रक्रिया पर चीनी सरकार अपनी पैनी नजर रख रही होगी ।
पिछले मार्च में निर्वासित सरकार की 14 वी लोकसभा का गठन किया गया था । कुल 46 सदस्यों वाली इस संसद के 43 सदस्य लोकतांत्रिक तरीके से निर्वासित तिब्बतियों के द्वारा चुने जाते हैं , जबकी बाकी तीन को दलाई लामा नामांकित करते हैं । संसद में तिब्बत के तीनों प्रदेशों – यूसांग , दोमे , दाते में हरेक से 10 सदस्य ( जिनमें हरेक प्रदेश से दो महिला सदस्य का होना अनिवार्य है ) और बौद्ध धर्म के चार स्कूलों तथा बोन धर्म में हरेक से दो सदस्य , दो यूरोप और एक उत्तरी अमेरिका से संसद का प्रतिनिधित्व होता है । संसद सदस्य येशी दोलमा कहती हैं इस संसद में युवाओं की भागेदारी पिछले संसद की तुलना में ज्यादा है । स्वाभाविक रूप से आम जनों की इस संसद से काफी अपेक्षा है । लेकिन जैसा कि तिब्बती युवा कांग्रेस के अध्यक्ष कालसांग कहते है ‘तिब्बती आम जन क्या चाहती है इसका कोई लेखा- जोखा संसद के पास नही है । हम सरकार की मध्यम मार्ग की नीति से सहमत नहीं है। आजादी हमारा हक है । ’
निर्वासित तिब्बती सरकार की नीति पर आम सहमति भले ना हो पर इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि निर्वासन में रह रहे तिब्बतियों का यह अहिंसात्मक संघर्ष विश्व भर में निर्वासन में रह रहे , स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत अन्य लोगों के लिए भी मिसाल है ।
तिब्बत को बँटने नहीं देंगे
निर्वासित तिब्बती सरकार के प्रधानमंत्री ( कालोन तिरपा ) प्रोफेसर समदौङ रिनपोछे जाने – माने शिक्षाविद् तथा बौद्ध दार्शनिक हैं । वे तिब्बती उच्च अध्ययन संस्थान , सारनाथ के निदेशक रह चुके हैं । उनसे अरविंद दास की बातचीत के कुछ अंश :
चीनी प्रतिनिधियों के साथ तिब्बती प्रतिनिधियों की पाँच दौर की वार्ताएँ हो चुकी है , क्या नतीजे सामने आये ?
नतीजा क्या सामने आया ऐसा कहना अभी बहुत जल्दबाजी होगी । करीब आठ सालों से संपर्क टूटा हुआ था वह 2002 में जोड़ पाये हैं । पहला और दूसरा चरण जनसंपर्क और घूमने – फिरने तक सीमित था । तीसरा और चौथा चरण काफी लम्बा और गहराई लिए था । एक नतीजा यह रहा कि चीनी जनवादी गणराज्य और हमलोगो के बीच क्या मतभेद हैं यह उभर कर सामने आया । पाचवेँ दौर की बातचीत में कोई नई बात सामने नही आई । लेकिन तीसरे और चौथे दौर में जो अस्पष्टताएँ रह गई थी उसका स्पष्टीकरण देने का एक – दूसरे को मौका मिला । दोनों पक्ष एक – दूसरे को समझ गये हैं , मतभेदों को कम करने की कोशिश की जाएगी ऐसी हम आशा करते हैं ।
तिब्बत की स्वतंत्रता की जगह अब माँग स्वायतत्ता तथा स्वशासन की की जा रही है , ऐसा क्यों ?
इसके लिए इतिहास में जाना पड़ेगा । 1951 में चीन ने तिब्बत को अपने कब्जे में कर लिया । 17 सूत्री समझौता की धोषणा की गई । 1951 से 1959 तक दलाई लामा और तिब्बती चीनी नेतृत्व की और से ईमानदारी से साथ रहने के प्रयास हुए । लेकिन जैसे – जैसे चीन की शक्ति बढ़ती गई , वे 17 सूत्री समझौते को नकराते गये । अंततः दलाई लामा को अपने 80,000 अनुयायियों के साथ देश छोड़ना पड़ा । 1959 में हमने 17 सूत्री समझौते को नकारा । इसके दो कारण थे । पहला – इस समझौते को जोर – जबरदस्ती के तहत लागू किया गया था जिसका अंतरराष्ट्रीय जगत में कोई महत्व नहीं रह गया था । दूसरा चीन ने इसका पालन नही किया था । 1959 से 1979 तक तिब्बत और तिब्बत के बाहर अंतरराष्ट्रीय जगत में तिब्बत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष चलते रहे । 1979 में माओ का समय समाप्त हुआ । चीनी शासनाध्यक्ष दैंग जियाओ पैंग ने दलाई लामा के सामने वापस आने का प्रस्ताव रखा साथ ही कहा कि माओ के समय में चंडाल चौकड़ी के माध्यम से जो ज्यादती हुई उसे सुधारा जायेगा । दैंग जियाओ पैंग ने कहा कि अगर स्वाधीनता की माँग दलाई लामा छोड़ दें तो अन्य मसले को बातचीत के जरिए सुलझाया जा सकता है । दलाई लामा ने सकारात्मक ढंग से उत्तर दिया कि स्वशासन के तहत साँस्कृतिक स्वायत्तता , सभ्यता को संजो कर रखने का अवसर मिलें तो चीन की छत्रछाया में रहने को तैयार हैं । 1979 से इस मध्यमार्गीय नीति का अनुसरण कर रहे हैं । जो कि आज की परिस्थति के अनुकूल है । 1951 में संपूर्ण तिब्बत स्वाधीन नहीं था , स्वशासी के रूप में रहेंगे तो संपूर्ण तिब्बत को एकजुट कर रखा जा सकता है । तिब्बत राज्य को 11 हिस्सों में बाँट कर रखा गया है उसे एकीकृत रहना चाहिए उसे पूर्ण रूप से स्वायत्तता मिलें तो हम चीन की संप्रभु सत्ता के अंतर्गत रहने को तैयार हैं ।
चीनी सरकार की इस पर क्या प्रतिक्रिया है ?
चीन ऐसा नहीं मान रहा है लेकिन उसे ऐसा मानना पडे़गा । यह माँग चीन के संविधान के अनुरूप है । अल्पसँख्यको की स्वाधीनता चीन के संविधान में उल्लेखित है । तिब्बत एक ही अल्पसँख्यक राष्ट्र है अनेक नही तो इसे क्यों बाँटा जाए । सभी अल्पसँख्यक राष्ट्र को एक साथ रहने का उल्लेख संविधान में है ऐसा हम माँग कर रहे हैं । चीनी शासन इसे कठिन समझ रहा है अगर ऐसा नहीं हुआ तो स्वाधीनता की माँग छोड़ने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है ।
तिब्बती समस्या को लेकर हाल के वर्षों में भारत सरकार की क्या नीति रही है ?
नेहरूजी जैसा निदान कर गये थे उसमें कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । जैसा भी सरकार आया किसी दल ने कोई परिवर्तन नहीं किया शायद उसकी आवश्यकता नहीं दिखाई देती । दलाई लामा प्रशासन को भारत सरकार और जनता का सहयोग शुरू से ही मिलता रहा है । कभी – कभी लगा है कि ज्यादा सुविधा मिल गई । अमेरिका , स्वीटजरलैण्ड , कनाडा जैसी जगहों पर हमें बेगानेपन का एहसास होता है। लेकिन यहाँ पर हमें कभी ऐसा नहीं लगता कि हम दूसरे देश में हैं ।
अब आपकी प्राथमाकिताएँ क्या रहेंगी ?
पिछले पाँच सालों में जो कुछ हमने किया है उसे जारी रखेंगे । पहली प्राथमिकता चीन के साथ राजनैतिक वार्ता को आगे बढ़ाना है । शरणार्थी समाज में स्थिरता लाना तथा स्थायीत्व प्रदान करना मेरी दूसरी प्राथमिकता होगी ।