बिना रंग के आप किसी को 'होली' कैसे समझा सकते हैं...रंग तो क्या मैं ढूँढूंगा..हां, हल्दी साथ लेकर आया हूँ..उसे हल्दी ज़रूर लगाऊँगा..क्या पता वह कह उठे...बिस्मिल्लाह..!
Sunday, February 28, 2010
होरी खेलूँगी बिस्मिल्लाह
बिना रंग के आप किसी को 'होली' कैसे समझा सकते हैं...रंग तो क्या मैं ढूँढूंगा..हां, हल्दी साथ लेकर आया हूँ..उसे हल्दी ज़रूर लगाऊँगा..क्या पता वह कह उठे...बिस्मिल्लाह..!
Wednesday, February 24, 2010
'मार्क्स का राजनीतिक दर्शन मर चुका है'
Friday, February 12, 2010
घर एक सपना है
हम सपने बुनते थे कि जब इस पैसे से पेड़ निकलेगा तब कैसे-कैसे पैसे उसमें फलेंगे. क्या हम पेड़ पर चढ़ कर पैसे तोड़ पाएँगे. कोई बात नहीं, चाचा से हम कह देंगे वे तोड़ दिया करेंगे हमारे लिए. यों जब पैसे बड़े हो जाएँगें तब खुद गिर गिर के इधर-उधर बिखरें पड़ें मिलेंगे, पके आम की तरह. लेकिन यदि रुपए फले तो! वे तो तेज़ हवा में उड़ जाएँगे...!
वे बचपन के दिन थे. आपको याद है बब्बू, राजा भर्तहरी के गीत गाने वाले, बनगाँव महिषी के गुदरीया बाबा. चाचा उन्हें खाना खिलाते थे, माँ उन्हें गुदरी देती थी. चाचा ग्रहों के दोष से बचने के लिए उनसे उपाय पूछते थे. वे हर बार नए ग्रहों के दोष के बारे में बताते थे. कभी शनि की दशा ठीक नहीं होती थी, तो कभी चाचा के मंगल में दोष होता था.
गुदरीया बाबा हमारा भी हाथ देखते थे. क्या हमारे हाथ में विद्या रेखा है, क्या हम विदेश जाएँगे बताइए ना, हम उनसे पूछते थे. फ्रैंकफ़र्ट एयरपोर्ट पहुँच कर मैंने एक बार फिर से अपने हाथ को उलट-पुलट कर देखा, हां चंद्र पर्वत पर एक रेखा तो है शायद...!
यहां जिगन में (कल प्रोफ़ेसर डेटलिफ बता रहे थे जिग नाम की एक नदी है) विश्वविद्यालय के इस गेस्ट हाउस के बाहर, मेरे इस खूबसूरत कमरे के ठीक सामने बर्फ़ की चादर फैली है. यहां का तापमान अभी माइनस सात डिग्री है. सेमल के फूल की तरह बर्फ़ के फाहे हवा में तैर रहे हैं. सामने कई पत्रहीन नग्न गाछ (पेड़) एक सीध में खड़े हैं.
भाई, हमारा बचपन बीतता गया, पैसों के पेड़ हम कहाँ देख पाए...इन वर्षों में लेकिन सपनों के पेड़ में काफ़ी नव पल्लव खिलते गए. हमने सतरंगी सपने देखना छोड़ा नहीं. हमारे बचपन में न कोई समुद्र था न ही कोई बर्फ़. पापा के पास इतने पैसे कहां थे कि हमें कहीं बाहर घुमाने ले जाते. हमें घर से बाहर भेज कर पढ़ाने का साहस किया, यह क्या उनके लिए आसान था.? उनके सपने हमारे सपनों से जुड़ते गए.
अजीब संयोग है, ज़िंदगी में पहली बार समुद्र देखा था वह हमारी दुनिया नहीं थी. पहली बार बर्फ़ गिरते देख रहा हूँ यह भी एक दूसरी दुनिया है. यूरोप देखने की, वहाँ रह कर पढ़ने-लिखने की मन में चाह थी. लेकिन कब? यह पता नहीं था.
आज आपकी बहुत याद आ रही है. बचपन में मेरे लिए रेत का घरौंदा और बालू का घर आप बनाते थे. कितना अच्छा होता आप यहाँ होते और बर्फ़ में मेरे लिए एक घर बनाते. मेरा हाथ अब भी इतना सुघड़ नहीं कि घर बना पाऊँ. घर एक सपना है...!