अजमेर जिले में किशनगढ़ के रास्ते मार्बल और ग्रेनाइट के धनकुबेरों के शो रुमों को छूती ऑटो रिक्शा जैसे ही तिलोनिया जाने को नीचे उतरती है, लगता है कि हम गाँव जा रहे हैं.
हवाओं में फगुनाहट है और सूर्य की किरणों में गर्मी.
तिलोनिया जाने की सड़क आम भारतीय गाँवों की सड़कों की तरह ही खास्ताहाल है. नाम मात्र को पक्की. कंक्रीट और कोलतार यहाँ-वहाँ बिखरी हुई. ड्राइवर का कहना है कि मार्बल-ग्रेनाइट ढोने वाली भारवाहक गाड़ियों की वजह से सड़कों का यह हाल है!
बहरहाल, खेचड़ी के पेड़ों और कंटीले झाड़ों के बीच 10-12 किलोमीटर की वीरान सड़कों पर यात्रा के बाद जैसे ही हम तिलोनिया रेलवे स्टेशन के क़रीब पहुँचते हैं लोगों की चहल-पहल दिखाई पड़ती है.
सामने ‘बेयरफुट कॉलेज कैंपस’ का एक बोर्ड दिखता है. बोर्ड पर लिखी इबारत एक दौर के सामूहिक सपने की अभिव्यक्ति है. यह सपना आज़ादी के बाद 60 के दशक में जवान होती पीढ़ी ने देखा था. वे सौभाग्यशाली थे, उनके कुछ सपने थे.
60 के दशक में देश के प्रतिष्ठित कॉलेज के छात्र अपने संभ्रांत, अभिजात्य जीवन शैली को छोड़ खेत-खलिहानों में काम करने गए. वह देश में नक्सलबाड़ी आंदोलन का दौर था.
उनमें से कुछ खेत रहे, कुछ ने रास्ता बदल लिया और कुछ सतत उस राह पर चलते रहे जो उन्हें देश के उन हिस्सों तक लेकर गया जहाँ लोग अपनी छोटी दुनिया में छोटे सपनों के साथ जीते और मर जाते हैं.
तिलोनिया ऐसी ही सपनों की गाथा है. एक गैर सरकारी संस्था ‘सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर’ ने बेयरफुट कॉलेज के माध्यम से गाँव वालों के साथ मिल कर पिछले 40 वर्षों से इस सपने को जिया है. और अब यह सपना सरहदों के पार जाकर देश-विदेश के गाँवों में भी फल-फूल रहा है, सच हो रहा है.
दून स्कूल और दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफेंस कॉलेज से पढ़े अंग्रेजीदां संजीत उर्फ बंकर रॉय के लिए लीक पर चलते हुए सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ने में कोई कठिनाई नहीं थी.
सब कुछ उनके कदमों पे था. वे आराम से एक नौकरशाह, पत्रकार या प्रोफेसर बन सकते थे.
पर आजाद भारत में ग्रामीण जीवन के एक अनुभव ने उनके जीवन की धारा बदल दी.
वे कहते हैं, “जब में कॉलेज में था तो मेरे मन में गाँव देखने की इच्छा जगी. और मैं वर्ष 1965 में बिहार में पड़े भीषण अकाल के दौरान वहाँ के गाँवों में गया. पहली बार मैंने भूख से मरते लोगों को देखा.”
‘वापस लौट कर मैंने जब अपनी माँ से कहा कि मैं गाँव जा कर रहना चाहता हूँ तो वह ‘कोमा’ में चली गई!’
‘कई वर्षों तक तो उन्होंने मुझसे बात नहीं की. उन्हें लगता रहा है मैंने परिवार का नाम डुबो दिया.’
बंकर रॉय ने चीन के ‘बेयरफुट कॉलेज’ से प्रेरणा लेते हुए अपने कुछ मित्रों के साथ गॉव के हाशिए पर रहने वालों के अनुभवों से ही उनके जीवन में कुछ बदलाव लाने की ठानी.
माओ के दौर में ग्रामीण इलाकों में काम करने वाले चीनी ‘बेयरफुट डॉक्टरों’ की कार्यशैली को गॉधी के आदर्शों और उसूलों के साथ मिला कर इन्होंने एक ऐसा प्रयोग किया जो देश-विदेश में एक मिसाल बन गया है.
तिलोनिया कैंपस में सबसे पहले नज़र उसके अदभुत वास्तुशिल्प पर पड़ती है जिसे गाँव वालों ने बिना किसी औपचारिक शिक्षा-दीक्षा के तैयार किया है.
छतों पर सौर उर्जा की प्लेटों, जलसंग्रहण के हौदे, हैंडी क्राफ्ट और सेनेटरी नैपकिन के उत्पादन में लगी महिलाएँ, अस्पताल में लोक अनुभवों से पके डॉक्टर और नाइट स्कूल में बच्चों की पढ़ाई की तैयारी की पहल में जुटे लोग आपका स्वागत करते हैं.
एक कमरे में कठपुतलियों के माध्यम से राम निवास और बजरंग पास के केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुछ बच्चों को बेयरफुट कॉलेज के इतिहास और कार्यशैली से रू-ब-रू करवा रहे हैं. पास ही कुछ अफ्रीकी महिलाएँ सौर ऊर्जा की बारीकियों को सीख रही है.
अपनी पीएचडी की डिग्री को नेहरू जैकेट में छिपाए, कमरे के बाहर जूते उतार मैं भी ‘जोखिम चाचा’के अनुभवों को नीचे फर्श पर बैठ सुनने लगा.
बेयरफुट कॉलेज में दाखिले की पहली शर्त निरक्षर या अपढ़ होना जो है! अरे हां, जोखिम चाचा अपनी उम्र 365 वर्ष बताते हैं. उनके अनुभवों के सामने आप को सहसा विश्वास होता है, ‘पंडिताई भी एक बोझ है.’