कोहबर |
अपनी चर्चित आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में प्रोफेसर तुलसी राम ने लिखा है कि
शादी के दौरान ‘दीवार पर गेरू तथा हल्दी से जो पेंटिंग की
जाती थी, उसे कोहबर कहा जाता था…अशिक्षा
के कारण लिपि का ज्ञान न होने के कारण दलित लोग संभवत: भारत के पहले व्यक्ति थे
जिन्होंने अभिव्यक्ति के लिए कोहबर पेंटिंग का सहारा लिया था.’ अपने क्षेत्र मिथिला की बात करूं तो वहाँ कोहबर की परंपरा आमतौर पर सवर्ण
परिवारों में दिखती है. इसमें महिलाओं की विशेष भागीदारी होती है. कायस्थ और
ब्राह्मण घरों में कोहबर लिखने की परंपरा कई सदी से जारी है. लेकिन पिछले कुछ
दशकों में इस कला मे दलितों की उपस्थिति रेखांकित करने योग्य है. जाहिर है, इस कला
की उत्पत्ति की तारीख ठीक-ठीक बताना मुश्किल है.
दिल्ली स्थित शिल्प संग्रहालय की दीवारों पर पद्मश्री गंगा देवी ने 1989 में बेहद खूबसूरत कोहबर
पेंटिंग चित्रित किया था. पिछले दिनों जब मैं संग्रहालय में गंगा देवी की बनाए इस
कोहबर को देखने पहुंचा तो निराशा हाथ लगी. जिस दीवार पर उसे चित्रित किया गया था
उसे तोड़ कर वहाँ एक नए भवन का निर्माण किया जा रहा है. ज्योंतिद्र जैन की चर्चित
किताब ‘गंगा देवी: ट्रेडिशन एंड एक्सप्रेशन इन मिथिला
पेंटिंग ’ के आवरण पर उसी कोहबर का अंकन है.
बहरहाल, शोध के सिलसिले में मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में राष्ट्रीय पुरस्कार
प्राप्त, शिल्प गुरु गोदावरी दत्त से मिलने उनके गाँव रांटी
पहुँचा तो उनके ड्राइंग रूम की अंदरूनी दीवार पर मिथिला पेंटिंग की शैली में उकेरे
गए एक वृहद कोहबर को देख कर सुकून मिला. वे मिथिला पेंटिंग की सबसे प्रसिद्ध जीवित
कलाकार हैं. जापान स्थित मिथिला म्यूजियम
के सिलसिले में गोदावरी दत्त ने सात बार जापान की यात्रा की है. देश-विदेश में उनकी
कलाकृतियों की अनेक प्रदर्शनियाँ लगाई गई हैं. उन्होंने बताया कि मिथिला पेंटिंग
की शैली में उन्होंने जापान स्थित संग्रहालय में 18 फुट लंबा
एक त्रिशूल बनाया था, जिसे बनाने में उन्हें छह महीने का वक्त लगा. हालांकि 80 वर्ष की उम्र में वह मिथिला
पेंटिंग को लेकर देश-विदेश की यात्रा अब नहीं करती हैं और ज्यादातर गाँव में ही
रहती हैं. प्रसंगवश, मिथिला पेंटिंग की एक अन्य प्रसिद्ध
कलाकार पद्मश्री महासुंदरी देवी भी रांटी की हीं थी.
यों दरभंगा, मधुबनी जिले के लगभग हर गाँव और नेपाल के तराई इलाके में
घर की दीवारों और फर्श पर शादी-ब्याह, पर्व-त्योहारों के दिनों में पारंपरिक रूप
से मिथिला पेंटिंग बनाई जाती हैं. पर हाल के वर्षों में मधुबनी के करीब स्थित
रांटी और जितवारपुर गाँव इस कला के दो मुख्य केंद्र के रूप में उभरे हैं.
गोदावरी दत्त अपनी पेंटिंग के साथ |
गोदावरी दत्त कहती हैं कि एक परंपरा के रूप में कोहबर लिखने की कला
सदियों पुरानी है. मिथिला में शादी के बाद नव विवाहित वर-वधू जिस घर में चार दिन तक रहते हैं, उसे कोहबर कहा
जाता है. इस घर में दीवार, कागज या कपड़े पर कोहबर बनाया जाता है.
मिथिला में कायस्थ परिवारों में शादी के अवसर पर जिस कागज में भर कर सिंदूर
वर पक्ष की तरफ से वधू के यहाँ भेजा जाता है, उसमें से दो कोहबर, एक दशावतार, एक कमलदह और एक बांस लिखे होने का रिवाज
परंपरा से चला आ रहा है. पूर्व में इसे ‘लिखिया’ कहा जाता था.
गोदावरी दत्त ने बताया कि उन्होंने मिथिला पेंटिंग अपनी माँ सुभद्रा देवी
से सीखा था, जो खुद एक चर्चित कलाकार थीं. हालांकि बाहरी
दुनिया में कागज पर लिखे मिथिला पेंटिंग का प्रचलन 60 के दशक
में दिखाया गया है पर वर्षों से इसे दीवारों के अलावे कागज पर भी चित्रित किया
जाता रहा है. पहले इसे ‘बसहा पेपर’ पर लिखा जाता था.
कोहबर की कला स्त्री-पुरुष के सुखद दांपत्य की कामना को जीव-जगत के
साथ संपूर्णता और एकमेक रूप में चित्रित करती है.
प्रतीक रूप में कोहबर में बांस, पूरइन, केले का थम्म, कमल,
कछुआ, साँप, मछली,
लटपटिया सुग्गा, सूर्य और शिव-पार्वती का
चित्रण होता है. ऐसा नहीं कि मिथिला पेंटिंग में महज कोहबर का ही चित्रण होता है.
इसमें पारंपरिक के साथ-साथ सामयिक विषय वस्तुओं को भी कलाकारों की कल्पना की
तूलिका से यथार्थपरक ढंग से रंगा जाता है. हाल ही में चर्चित कलाकार शांति देवी ने
मिथिला पेंटिंग की शैली में कथा प्रकाशन से बच्चों के लिए ‘बाइस्कोप’ नाम से एक किताब लिखी है, जिसमें उन्होंने अपने
जीवन-वृत्त को उकेरा है.
मैंने गोदावरी दत्त से पूछा कि मिथिला पेंटिंग में ऐसी क्या विशेषता
है जो अन्य आधुनिक या पारंपरिक कला रूपों में नहीं मिलती. हँसते हुए उन्होंने जवाब
दिया-- ‘मुझे तो ऐसी कोई विशेष
बात इसमें नहीं दिखती है! माँ सीता का आशीर्वाद हमें मिला है, बस मैं इतना ही कहूँगी.’
असल में, मिथिला पेंटिंग जीवन-यापन और लोक से गहरे से जुड़ी हुई है. आम तौर पर चटक रंग और लोक जीवन का चित्रण इसकी
विशेषता है. मिथिला के सामंती समाज में स्त्रियों
के जीवन का कटु यथार्थ उनकी कल्पना से जुड़ कर इस कला को असाधारण बनाता है.
(दुनिया मेरे आगे, जनसत्ता, 31.03.2015 में प्रकाशित)