Courtesy: The Hindu |
केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के दो
साल पूरे हो रहे हैं. इस मौके पर एक नारा सरकार की तरफ से आया है- जरा मुस्कुरा दो! देश की आम रियाया के लिए मोदी
शासन के दौर में ‘अच्छे
दिन’ आए या नहीं इस पर बहस
जारी है.
फिलहाल, दिल्ली और बिहार चुनाव में मिली करारी हार के बाद असम में बीजेपी की
प्रत्याशित पहली जीत ने केंद्र सरकार को मुस्कुराने की एक वजह ज़रूर दी है. एक
बड़ी वजह. उत्तर-पूर्व में बीजेपी पहली बार चुनाव जीतने में कामयाब रही है.
केरल में राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूडीएफ और भारतीय मार्क्सवादी
पार्टी (सीपीएम) के नेतृत्व वाली एलडीएफ के बीच yo-yo ट्रेंड (सत्ता की अदला-बदली) एक
बार फिर से जारी है. हालांकि पिछले चुनाव की तुलना में एलडीएफ के सीटों में
बढ़ोतरी हुई है. पिछले विधानसभा चुनाव में दोनों दलों के बीच जीत का अंतर महज चार
सीटों का था, इस बार यह फ़ासला 44
सीटों का है. इस लिहाज से एलडीएफ की जीत के साथ ही यह कांग्रेस की बड़ी हार भी है.
वहीं, बीजेपी भी अपना खाता खोलेने में सफल रही है.
दूसरी ओर एआइडीएमके की जयललिता और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी की तमिलनाडु
और पश्चिम बंगाल में फिर से वापसी बीजेपी के लिए इस मायने में सुकून देने वाली है
कि यह ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की दिशा में बढ़ा एक और क़दम है! और 2019 तक आते आते ऐसा लग रहा है
कि राहुल गाँधी की मिट्टी और पलीद होने वाली है. कांग्रेस कुल मिला कर छह राज्यों
में सिमट गई है, इसमें मणिपुर, मेघालय और मिजोरम जैसे छोटे राज्य भी शामिल हैं.
राहुल गाँधी के लिए तिनके का सहारा पुडुच्चेरी है, जहाँ कांग्रेस गठबंधन सरकार
बना सकती है.
सवाल यह है कि इन चुनाव के नतीजों का केंद्र सरकार पर क्या असर पड़ेगा?
ख़बरों के मुताबिक जून में तमिलनाडु से छह सदस्यों को राज्यसभा में भेजा जाना
है. डीएमके-कांग्रेस गठबंधन की हार से आने वाले मानसून सेशन में एनडीए को जयललिता
का समर्थन मिल सकता है. चुनाव जीत के बात प्रेस कांफ्रेंस में ममता बनर्जी ने भी
अधर में लटके जीएसटी बिल पर अपने समर्थन की बात की है.
इस मायने में ममता बनर्जी और जयललिता की जीत नरेंद्र मोदी के लिए सुखदायी है,
उन्हें राज्यसभा में विपक्ष का विरोध कम झेलना पड़ेगा. संभव है विधानसभा चुनावों
में हार के बाद कांग्रेस की विरोध की धार भी कुंद हो और कई अहम बिल जो राज्यसभा
में लटके पड़े हैं उस पर आम सहमति बन पाए. फिलहाल राज्यसभा में जहाँ कांग्रेस के
64 सदस्य हैं, वहीं बीजेपी के 49.
राजनीति अंतर्विरोधों का पुंज है और हमारे नेताओं को इसे साधना बखूबी आता हैं.
ममता बनर्जी ने ये भी कहा है कि ‘भविष्य
देश की जनता तय करेगी’.
जाहिर है, भविष्य की बात कर ममता बनर्जी ने आगे की राजनीति और 2019 के आम चुनावों की ओर भी इशारा किया
है. यदि आने वाले समय में विपक्ष ‘फेडरल
फ्रंट’ की ओर आगे बढ़ता है तो
नेता पद के लिए ममता की दावेदरी निश्चित है. वहीं पंजाब में यदि अरविंद केजरीवाल
की आम आदमी पार्टी जीतती है तो वे भी अपनी दावेदारी पेश करेंगें. बिहार के
मुख्यमंत्री नीतिश कुमार अपना घोड़ा पहले ही छोड़ चुके हैं. यानी आने वाले समय में
‘संतों के घर में झगड़ा भारी’ देखेने को मिल सकता है. वैसे बहुत
कुछ अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड चुनाव से भी तय होना है.
कहते हैं कि राजा में सात-सात हाथी का बल होता है. केंद्र में बैठा ‘राजा’ पहले से ही बलशाली है, उसे इन चुनाव नतीजों से और बल
मिला है. विपक्ष में बैठा ‘राजकुमार’ पहले से कमजोर है, वह और भी कमजोर
हुआ है. पर सच यह भी है कि सत्ता में बैठा राजा सवालों से डरता है. पिछले दो सालों
में हमने प्रधानमंत्री का एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं देखा-सुना है, जहाँ वे
सवालों से सीधे टकराए हों. मीडिया को भी अभी तक बमुश्किल दो-चार इंटरव्यू
प्रधानमंत्री ने दिए हैं, जिनमें विदेशी मीडिया भी शामिल है. ऐसे में सत्ता एजेंडा
सेट कर रही है और मीडिया बस उसका अनुसरण करती है. राजनीति के केंद्र में कभी बीफ
बैन तो कभी राष्ट्रवाद आ जाता है, तो कभी फर्जी डिग्री और सड़कों का नामकरण! विकास, रोजगार और गर्वनेंस का
मुद्दा ग़ायब है.
बहरहाल, इन चुनाव नतीजों के बाद लोकतंत्र में विपक्ष की मजबूती के मद्देनज़र
उम्मीद ममता-जयललिता पर आ टिकी है.
( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)
( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)