Friday, May 20, 2016

इस चुनाव के बाद ‘संतों के घर में झगड़ा भारी’ देखेने को मिलेगा

Courtesy: The Hindu
केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के दो साल पूरे हो रहे हैं. इस मौके पर एक नारा सरकार की तरफ से आया है- जरा मुस्कुरा दो! देश की आम रियाया के लिए मोदी शासन के दौर में अच्छे दिनआए या नहीं इस पर बहस जारी है.

फिलहाल, दिल्ली और बिहार चुनाव में मिली करारी हार के बाद असम में बीजेपी की प्रत्याशित पहली जीत ने केंद्र सरकार को मुस्कुराने की एक वजह ज़रूर दी है. एक बड़ी वजह. उत्तर-पूर्व में बीजेपी पहली बार चुनाव जीतने में कामयाब रही है.

केरल में राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूडीएफ और भारतीय मार्क्सवादी पार्टी (सीपीएम) के नेतृत्व वाली एलडीएफ के बीच yo-yo ट्रेंड (सत्ता की अदला-बदली) एक बार फिर से जारी है. हालांकि पिछले चुनाव की तुलना में एलडीएफ के सीटों में बढ़ोतरी हुई है. पिछले विधानसभा चुनाव में दोनों दलों के बीच जीत का अंतर महज चार सीटों का था, इस बार यह फ़ासला 44 सीटों का है. इस लिहाज से एलडीएफ की जीत के साथ ही यह कांग्रेस की बड़ी हार भी है. वहीं, बीजेपी भी अपना खाता खोलेने में सफल रही है.

दूसरी ओर एआइडीएमके की जयललिता और तृणमूल कांग्रेस की ममता बनर्जी की तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में फिर से वापसी बीजेपी के लिए इस मायने में सुकून देने वाली है कि यह कांग्रेस मुक्त भारतकी दिशा में बढ़ा एक और क़दम है! और 2019 तक आते आते ऐसा लग रहा है कि राहुल गाँधी की मिट्टी और पलीद होने वाली है. कांग्रेस कुल मिला कर छह राज्यों में सिमट गई है, इसमें मणिपुर, मेघालय और मिजोरम जैसे छोटे राज्य भी शामिल हैं.

राहुल गाँधी के लिए तिनके का सहारा पुडुच्चेरी है, जहाँ कांग्रेस गठबंधन सरकार बना सकती है.

सवाल यह है कि इन चुनाव के नतीजों का केंद्र सरकार पर क्या असर पड़ेगा?

ख़बरों के मुताबिक जून में तमिलनाडु से छह सदस्यों को राज्यसभा में भेजा जाना है. डीएमके-कांग्रेस गठबंधन की हार से आने वाले मानसून सेशन में एनडीए को जयललिता का समर्थन मिल सकता है. चुनाव जीत के बात प्रेस कांफ्रेंस में ममता बनर्जी ने भी अधर में लटके जीएसटी बिल पर अपने समर्थन की बात की है.

इस मायने में ममता बनर्जी और जयललिता की जीत नरेंद्र मोदी के लिए सुखदायी है, उन्हें राज्यसभा में विपक्ष का विरोध कम झेलना पड़ेगा. संभव है विधानसभा चुनावों में हार के बाद कांग्रेस की विरोध की धार भी कुंद हो और कई अहम बिल जो राज्यसभा में लटके पड़े हैं उस पर आम सहमति बन पाए. फिलहाल राज्यसभा में जहाँ कांग्रेस के 64 सदस्य हैं, वहीं बीजेपी के 49.

राजनीति अंतर्विरोधों का पुंज है और हमारे नेताओं को इसे साधना बखूबी आता हैं. ममता बनर्जी ने ये भी कहा है कि भविष्य देश की जनता तय करेगी.

जाहिर है, भविष्य की बात कर ममता बनर्जी ने आगे की राजनीति और 2019 के आम चुनावों की ओर भी इशारा किया है. यदि आने वाले समय में विपक्ष फेडरल फ्रंट की ओर आगे बढ़ता है तो नेता पद के लिए ममता की दावेदरी निश्चित है. वहीं पंजाब में यदि अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी जीतती है तो वे भी अपनी दावेदारी पेश करेंगें. बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार अपना घोड़ा पहले ही छोड़ चुके हैं. यानी आने वाले समय में संतों के घर में झगड़ा भारीदेखेने को मिल सकता है. वैसे बहुत कुछ अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखंड चुनाव से भी तय होना है.

कहते हैं कि राजा में सात-सात हाथी का बल होता है. केंद्र में बैठा राजापहले से ही बलशाली है, उसे इन चुनाव नतीजों से और बल मिला है. विपक्ष में बैठा राजकुमारपहले से कमजोर है, वह और भी कमजोर हुआ है. पर सच यह भी है कि सत्ता में बैठा राजा सवालों से डरता है. पिछले दो सालों में हमने प्रधानमंत्री का एक भी प्रेस कांफ्रेंस नहीं देखा-सुना है, जहाँ वे सवालों से सीधे टकराए हों. मीडिया को भी अभी तक बमुश्किल दो-चार इंटरव्यू प्रधानमंत्री ने दिए हैं, जिनमें विदेशी मीडिया भी शामिल है. ऐसे में सत्ता एजेंडा सेट कर रही है और मीडिया बस उसका अनुसरण करती है. राजनीति के केंद्र में कभी बीफ बैन तो कभी राष्ट्रवाद आ जाता है, तो कभी फर्जी डिग्री और सड़कों का नामकरण! विकास, रोजगार और गर्वनेंस का मुद्दा ग़ायब है.

बहरहाल, इन चुनाव नतीजों के बाद लोकतंत्र में विपक्ष की मजबूती के मद्देनज़र उम्मीद ममता-जयललिता पर आ टिकी है. 

                                                                ( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)

Monday, May 02, 2016

क्रांतिकारी आतंकवाद की आखिरी कड़ी: भगत सिंह

आंतकवाद संपूर्ण क्रांति नहीं है और क्रांति आंतकवाद के बिना पूर्ण नहीं होती: भगत सिंह (बम का दर्शन, 1930)

वर्ष 2001-02 में हम भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), दिल्ली में पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहे थे. यह दौर हमारे लिए खबरों के लिहाज से काफ़ी महत्वपूर्ण था. अमेरिका में हुए 9/11, भारतीय संसद पर हमला और गोधरा-गुजरात दंगों की घटना हमारे शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए चुनौती लेकर आया था. उसी दौर में इस्लामिक आतंकवादजैसे शब्द भारतीय मीडिया में प्रचलन में आए थे. ज़ाहिर है, हम इसका विरोध कर रहे थे. पर सत्ता और मीडिया की भाषा में ज्यादा फर्क नहीं होता और यह पद आतंकवाद का पर्यायवाची बन कर चलन में बना रहा.

इसी दौरान, 9/11 के बाद स्टूडेंटस इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) को एनडीए की सरकार ने बैन कर दिया था. मेरे एक सहपाठी मित्र शहबाज अहमद सिमी से जुड़े थे. वह रातो-रात ग़ायब हो गए. हमें फिर उनकी ख़बर नहीं लगी. यह कहानी फिर कभी. अभी हम बात भगत सिंह और क्रांतिकारी आतंकवादकी कर रहे हैं.

लंबे समय तक नक्सलबाड़ी आंदोलन से जुड़े रहे प्रो वीर भारत तलवार ने 80 के दशक के मध्य में हंस पत्रिका में एक लेख लिखा थाक्रांतिकारी आतंकवाद की आख़िरी कड़ी. यह लेख शहीद भगत सिंह के इर्द-गिर्द था. बजरिए प्रो बिपिन चंद्र 'क्रांतिकारी आतंकवाद' पद उस दौर में अकादमिक बहस के दायरे में था.

प्रो तलवार का कहना है कि भगत सिंह मानसिक रूप से भले हीं आतंकवाद से मुक्त हो गए थे, पर वह व्यावहारिक रूप से मुक्त नहीं हुए थे. उनके संघर्ष की पद्धति क्रांतिकारी आंतकवाद से प्रेरित थी. अपने अंतिम दिनों में भगत सिंह मार्क्स-लेनिन की विचारधारा की ओर मुड़ गए थे, पर वह किसी किसान-मजदूर या जन-आंदोलन से जुड़े हुए नहीं थे.

ब्रिटिश हूकमतों के लिए आजादी के ये क्रांतिकारी सेनानी आतंकवादीथे. हालांकि उस वक्त स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े क्रांतिकारी गर्व से इस अवधारणा को अपनाए हुए थे. खुद प्रो चंद्र ने अपनी पुस्तक India’s Struggle for Independence में स्वाधीनता आंदोलन के क्रांतिकारियों के लिए ‘Revolutionary Terrorist (क्रांतिकारी आतंकवादी)शब्द का इस्तेमाल कोई ख़राब या गल्त अर्थ में नहीं किया था.

1920 के दशक में क्रांतिकारी सचिंद्र नाथ सान्याल की किताब बंदी जीवनक्रांतिकारियों के लिए एक मूल टेक्सट बुककी तरह था. उस दौर की पत्रिकाओं में भारतीय आतंकवाद का इतिहास' जैसे इश्तेहार भी खूब दिखाई देते हैं. चर्चित इतिहासकार प्रो सुमित सरकार ने भी अपनी किताब आधुनिक भारत (1885-1947)’ में लिखा है: 1922 के पश्चात कांग्रेसी नेतृत्व के प्रति मोहभंग की जो मन:स्थिति बनी उसके परिणामस्वरूप बंगाल, संयुक्त प्रांत और पंजाब में शिक्षित युवक पुन: क्रांतिकारी आतंकवादी तरीकों की ओर आकृष्ट होने लगे.इसकी अंतिम परिणति युवा भगत सिंह के नेतृत्व में 1928 में हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मीकी स्थापना में हुई.

स्वाधीनता आंदोलन के उस दौर में भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सूर्य सेन आदि क्रांतिकारियों के लिए प्रयुक्त पद आतंकवादऔर आज उत्तर औपनिवेशिक राज्य-सत्ता, मीडिया जिसे आतंकवादके रूप में परिभाषित करती हैं उसमें काफ़ी फर्क है. ठीक उसी तरह, साम्राज्यवाद के दौर में पनपी और उत्तर-औपनिवेशिक दौर में विकसित हुई भारतीय राजनीति और मीडिया में भी फर्क है.

इन्हीं सबको ध्यान में रख कर खुद प्रो चंद्र ने 2006 में नेशनल बुक ट्र्स्ट (एनबीटी) के लिए जब मैं नास्तिक क्यों हूँकी भूमिका लिखी, तो क्रांतिकारी आतंकवादी जैसे विशेषणों से परहेज किया था. उन्होंने अपनी भूमिका के शुरुआत में ही लिखा है, ‘भगत सिंह न सिर्फ भारत के महान स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिकारी समाजवादियों में से एक थे, बल्कि वह एक आरंभिक मार्क्सवादी विचारक और आइडियोलॉग भी थे.टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक भगत सिंह की जन्मशती के अवसर पर (2007) एक समारोह में खुद प्रो चंद्र ने कहा था, “इस पद का प्रयोग भगत सिंह को आजादी के संघर्ष की अन्य धाराओं से अलगाने के लिए और प्रशंसा के तौर पर तब किया जाता था. लेकिन आतंकवाद शब्द अब एक अलग अर्थ लिए हुए है. मैं इस पद का इस्तेमाल करना अब पसंद नहीं करुँगा.

करीब दस साल बाद अचानक संसद से सड़क तक भगत सिंह के प्रति उमड़े इस प्रेम और आंतकवादको लेकर इस बहस के पीछे राज क्या है? कहीं पंजाब में होने वाले चुनाव और भाजपा के भगत सिंह की छवि के प्रति उभरे नव-प्रेम तो नहीं?

हाल के वर्षों में पापुलर मीडिया में  भगत सिंह के स्वाभिमानी सिर पर रहने वाली जानी-पहचानी तिरछी टोपी के बदले नीली-पीली पगड़ी नज़र आने लगी है. क्या आने वाले समय में भगत सिंह एक परिवार, एक पार्टी, एक समुदाय के नेता बन कर रह जाएँगे? भगत सिंह के परिवार वालों ने शिक्षामंत्री को चिट्ठी लिख कर और एबीवीपी के कार्यकर्ताओं के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय के वीसी से मिल कर जिस तरह अपनी नाराजगी जताई उससे तो ऐसा ही लगता है. संसद ने भी निर्णय लेने में कोई देर नहीं की और फ़रमान जारी कर दिया कि क्रांतिकारी आतंकवाद पद को किताब से हटा दिया जाए!

राजनीतिक दलों में गाँधी-पटेल-आंबेडकर-भगत सिंह के विचारों को अपनाने से ज्यादा उनकी मूर्तियों पर माला पहनाने की होड़ मची है.  आने वाले दिनों में भारत में राजनीतिक लड़ाई, जाति-अस्मिता के साथ-साथ इतिहास के किरदारों, इन्हीं बूतों के बूते लड़ी जाएगी.

बकौल अमित शाह, प्रधानमंत्री मोदी ओबीसी हैं. बकौल मायावती जेएनयू के मार्क्सवादी छात्र नेता कन्हैया कुमार भूमिहार’.  बिहार के राष्ट्रवादी कुशवाहा परिषद के मुताबिक सम्राट अशोक कुशवाहाथे.

बिहार सरकार ने करीब 2300 वर्षों के बाद सम्राट अशोक की जन्मतिथि 14 अप्रैल ढूँढ़ निकाली और उस दिन सरकारी छुट्टी घोषित कर दी है. इतिहासकारों का कहना है कि ये सारी राजनीतिक कवायद अनैतिहासिक है, अनर्गल है. विवेक सम्मत नहीं है.


अकादमिक लेखन और शोध की दुनिया में अंतिम सत्य कुछ नहीं होता. नए तथ्य, विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में पहले की स्थापनाओं पर पुनर्विचार किया जाता रहा है.  भाषा सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मिति है. समय के साथ उसे बरतने-व्यवहार करने में बदलाव आता है. निस्संदेह भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी, देशभक्त शहीदों के लिए क्रांतिकारी आतंकवादपद का इस्तेमाल बंद होना चाहिए. पर क्या इन्हें’'इस्लामिक आतंकवाद' ‘हिंदू आतंकवादजैसे पदों में भी कोई दिक्कत नज़र आती है? और सवाल ये भी है कि अकादमिक निर्णय क्या राजनीतिक गलियारों में लिए जाएँगे?

                                                                   ( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)