आंतकवाद संपूर्ण क्रांति
नहीं है और क्रांति आंतकवाद के बिना पूर्ण नहीं होती: भगत सिंह (बम का दर्शन, 1930)
वर्ष 2001-02 में हम भारतीय
जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी), दिल्ली में पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रहे थे. यह दौर
हमारे लिए खबरों के लिहाज से काफ़ी महत्वपूर्ण था. अमेरिका में हुए 9/11, भारतीय संसद पर
हमला और गोधरा-गुजरात दंगों की घटना हमारे शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए चुनौती लेकर
आया था. उसी दौर में ‘इस्लामिक आतंकवाद’ जैसे शब्द भारतीय
मीडिया में प्रचलन में आए थे. ज़ाहिर है, हम इसका विरोध कर रहे थे. पर सत्ता और मीडिया की भाषा में
ज्यादा फर्क नहीं होता और यह पद आतंकवाद का पर्यायवाची बन कर चलन में बना रहा.
इसी दौरान, 9/11 के बाद
स्टूडेंटस इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) को एनडीए की सरकार ने बैन कर दिया
था. मेरे एक सहपाठी मित्र शहबाज अहमद सिमी से जुड़े थे. वह रातो-रात ग़ायब हो गए.
हमें फिर उनकी ख़बर नहीं लगी. यह कहानी फिर कभी. अभी हम बात भगत सिंह और ‘क्रांतिकारी
आतंकवाद’ की कर रहे हैं.
लंबे समय तक नक्सलबाड़ी
आंदोलन से जुड़े रहे प्रो वीर भारत तलवार ने 80 के दशक के मध्य में हंस पत्रिका में एक लेख लिखा था—क्रांतिकारी
आतंकवाद की आख़िरी कड़ी. यह लेख शहीद भगत सिंह के इर्द-गिर्द था. बजरिए प्रो बिपिन
चंद्र 'क्रांतिकारी
आतंकवाद' पद उस दौर में
अकादमिक बहस के दायरे में था.
प्रो तलवार का कहना है कि
भगत सिंह मानसिक रूप से भले हीं आतंकवाद से मुक्त हो गए थे, पर वह व्यावहारिक
रूप से मुक्त नहीं हुए थे. उनके संघर्ष की पद्धति क्रांतिकारी आंतकवाद से प्रेरित
थी. अपने अंतिम दिनों में भगत सिंह मार्क्स-लेनिन की विचारधारा की ओर मुड़ गए थे, पर वह किसी
किसान-मजदूर या जन-आंदोलन से जुड़े हुए नहीं थे.
ब्रिटिश हूकमतों के लिए
आजादी के ये क्रांतिकारी सेनानी ‘आतंकवादी’ थे. हालांकि उस वक्त स्वाधीनता आंदोलन से जुड़े क्रांतिकारी
गर्व से इस अवधारणा को अपनाए हुए थे. खुद प्रो चंद्र ने अपनी पुस्तक India’s Struggle for Independence में स्वाधीनता
आंदोलन के क्रांतिकारियों के लिए ‘Revolutionary Terrorist (क्रांतिकारी
आतंकवादी)’ शब्द का इस्तेमाल
कोई ख़राब या गल्त अर्थ में नहीं किया था.
1920 के दशक में क्रांतिकारी सचिंद्र नाथ सान्याल की किताब ‘बंदी जीवन’ क्रांतिकारियों
के लिए एक ‘मूल टेक्सट बुक’ की तरह था. उस
दौर की पत्रिकाओं में ‘भारतीय आतंकवाद
का इतिहास' जैसे इश्तेहार भी
खूब दिखाई देते हैं. चर्चित इतिहासकार प्रो सुमित सरकार ने भी अपनी किताब ‘आधुनिक भारत (1885-1947)’ में लिखा है: 1922 के पश्चात
कांग्रेसी नेतृत्व के प्रति मोहभंग की जो मन:स्थिति बनी उसके परिणामस्वरूप बंगाल, संयुक्त प्रांत
और पंजाब में शिक्षित युवक पुन: क्रांतिकारी आतंकवादी तरीकों की ओर आकृष्ट होने
लगे.” इसकी अंतिम
परिणति युवा भगत सिंह के नेतृत्व में 1928 में ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी’ की स्थापना में
हुई.
स्वाधीनता आंदोलन के उस
दौर में भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सूर्य सेन आदि
क्रांतिकारियों के लिए प्रयुक्त पद ‘आतंकवाद’ और आज उत्तर औपनिवेशिक राज्य-सत्ता, मीडिया जिसे ‘आतंकवाद’ के रूप में
परिभाषित करती हैं उसमें काफ़ी फर्क है. ठीक उसी तरह, साम्राज्यवाद के
दौर में पनपी और उत्तर-औपनिवेशिक दौर में विकसित हुई भारतीय राजनीति और मीडिया में
भी फर्क है.
इन्हीं सबको ध्यान में रख
कर खुद प्रो चंद्र ने 2006 में नेशनल बुक
ट्र्स्ट (एनबीटी) के लिए जब ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ’ की भूमिका लिखी, तो क्रांतिकारी आतंकवादी जैसे विशेषणों से परहेज किया था.
उन्होंने अपनी भूमिका के शुरुआत में ही लिखा है, ‘भगत सिंह न सिर्फ भारत के महान स्वतंत्रता
सेनानियों और क्रांतिकारी समाजवादियों में से एक थे, बल्कि वह एक आरंभिक मार्क्सवादी विचारक और
आइडियोलॉग भी थे.” टाइम्स ऑफ इंडिया
की एक रिपोर्ट के मुताबिक भगत सिंह की जन्मशती के अवसर पर (2007) एक समारोह में
खुद प्रो चंद्र ने कहा था,
“इस पद का प्रयोग भगत सिंह को आजादी के संघर्ष की अन्य धाराओं से अलगाने के लिए
और प्रशंसा के तौर पर तब किया जाता था. लेकिन आतंकवाद शब्द अब एक अलग अर्थ लिए हुए
है. मैं इस पद का इस्तेमाल करना अब पसंद नहीं करुँगा.”
करीब दस साल बाद अचानक
संसद से सड़क तक भगत सिंह के प्रति उमड़े इस प्रेम और ‘आंतकवाद’ को लेकर इस बहस
के पीछे राज क्या है? कहीं पंजाब में
होने वाले चुनाव और भाजपा के भगत सिंह की छवि के प्रति उभरे नव-प्रेम तो नहीं?
हाल के वर्षों में पापुलर
मीडिया में भगत सिंह के स्वाभिमानी सिर पर
रहने वाली जानी-पहचानी तिरछी टोपी के बदले नीली-पीली पगड़ी नज़र आने लगी है. क्या
आने वाले समय में भगत सिंह एक परिवार, एक पार्टी, एक समुदाय के नेता बन कर रह जाएँगे? भगत सिंह के
परिवार वालों ने शिक्षामंत्री को चिट्ठी लिख कर और एबीवीपी के कार्यकर्ताओं के साथ
दिल्ली विश्वविद्यालय के वीसी से मिल कर जिस तरह अपनी नाराजगी जताई उससे तो ऐसा ही
लगता है. संसद ने भी निर्णय लेने में कोई देर नहीं की और फ़रमान जारी कर दिया कि
क्रांतिकारी आतंकवाद पद को किताब से हटा दिया जाए!
राजनीतिक दलों में
गाँधी-पटेल-आंबेडकर-भगत सिंह के विचारों को अपनाने से ज्यादा उनकी मूर्तियों पर
माला पहनाने की होड़ मची है. आने वाले
दिनों में भारत में राजनीतिक लड़ाई, जाति-अस्मिता के साथ-साथ इतिहास के किरदारों, इन्हीं बूतों के
बूते लड़ी जाएगी.
बकौल अमित शाह, प्रधानमंत्री
मोदी ओबीसी हैं. बकौल मायावती जेएनयू के मार्क्सवादी छात्र नेता कन्हैया कुमार ‘भूमिहार’.
बिहार के राष्ट्रवादी कुशवाहा परिषद के मुताबिक सम्राट अशोक
‘कुशवाहा’ थे.
बिहार सरकार ने करीब 2300 वर्षों के बाद
सम्राट अशोक की जन्मतिथि 14 अप्रैल ढूँढ़
निकाली और उस दिन सरकारी छुट्टी घोषित कर दी है. इतिहासकारों का कहना है कि ये
सारी राजनीतिक कवायद अनैतिहासिक है, अनर्गल है. विवेक सम्मत नहीं है.
अकादमिक लेखन और शोध की
दुनिया में अंतिम सत्य कुछ नहीं होता. नए तथ्य, विश्लेषण के परिप्रेक्ष्य में पहले की स्थापनाओं पर
पुनर्विचार किया जाता रहा है. भाषा
सामाजिक-सांस्कृतिक निर्मिति है. समय के साथ उसे बरतने-व्यवहार करने में बदलाव आता
है. निस्संदेह भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी, देशभक्त शहीदों के लिए ‘क्रांतिकारी आतंकवाद’ पद का इस्तेमाल बंद होना चाहिए. पर क्या इन्हें’'इस्लामिक आतंकवाद' ‘हिंदू आतंकवाद’ जैसे पदों में भी
कोई दिक्कत नज़र आती है? और सवाल ये भी है
कि अकादमिक निर्णय क्या राजनीतिक गलियारों में लिए जाएँगे?
( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)
( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)
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