Friday, November 03, 2017

लोक संगीत की चेतना

पिछले दिनों सोशल मीडिया पर लोकपर्व छठ को लेकर काफी कुछ लिखा गया. कुछ ने इस पर्व से जुड़ी आस्था-अनास्था पर बात की, कुछ ने इस पर्व में प्रगतिशील चेतना का अभाव देखा तो किसी ने इसमें सिंदूर के इस्तेमाल को स्त्रियों के पिछड़ेपन से जोड़ कर देखा. पर मेरे लिए एक उपलब्धि इस पर्व के आस-पास विंध्यवासिनी देवी के गाए छठ और उससे जुड़े उनके गानों को सुनना रही. मेरे लिए छठ पर्व से जुड़ी स्मृतियां इन लोकगीतों के साथ लिपटी हुई चली आती हैं, जिन्हें हम बचपन में अपने गांव में दादी-नानी से सुनते थे. हमने विंध्यवासिनी देवी का नाम सुना था, बड़े भाई उनका जिक्र करते थे, पर उनका गाया नहीं सुना था. जब हमें संगीत का बोध हुआ, उनके गानों का प्रसारण बंद हो गया था, साथ ही उनके गीतों के पुराने कैसेट उपलब्ध नहीं थे. पिछले दिनों सोशल मीडिया पर उनके गानों को अपलोड किया गया.

वे पटना रेडियो स्टेशन से मैथिली, भोजपुरी और मगही लोक-गीतों को गाती थीं. साठ के दशक में उनके गाए गानों के कैसेट बाजार में आए थे. कहते हैं कि प्रतिभा शून्य में पैदा नहीं होती, उसके पीछे एक परंपरा होती है. बिहार में पिछले कुछ वर्षों में, खास कर मिथिला क्षेत्र में, छठ पर लोग लोक गायिका शारदा सिन्हा के गाए गीतों को गुनते-सुनते रहे हैं, पर उनसे पहले स्वर कोकिला, लोक संगीत की अनन्य साधिका विंध्यवासिनी देवी (पद्मश्री) लोगों के दिलों पर राज करती थीं.

मिथिला में 1920 में जन्मी विंध्यवासिनी देवी के लिए चालीस के दशक में सार्वजनिक रूप से स्टेज पर गाना आसान नहीं था, जिसके लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा. विंध्यवासिनी देवी के लोकगीत नियमों से बंधे नहीं रहने के बावजूद शास्त्रीय, उपशास्त्रीय संगीत का आनंद देते हैं. वैसे भी लोक-शास्त्र के बीच आवाजाही हमेशा से रही है. विद्वानों का कहना है कि शास्त्रीय संगीत का ताना-बाना लोक से ही बुना गया है. प्रसंगवश, जब मैंने विंध्यवासिनी देवी का गीत रिमझिम बुंदवा बरसि गैले ओरियानी मोती चुबै, भीजल महादेव के पगिया गौरी दाय के अचरासुना तो अनायास वर्षों पहले एक लाइव कंसर्ट में गिरिजा देवी के गाए झूला झूले नंदलाल संग राधा गुजरी, उड़े पगिया तोहार म्हारे उड़े चुनरीकी याद आ गई. जब वे गा रही थीं तब पूरे सभागार में आनंद का समंदर लहरा उठा था. ऐसा ही अनुभव विंध्यवासिनी देवी के गाए गीतों को सुन कर लगता है. वे सौभाग्यशाली थे जिन्होंने विंध्यवासिनी देवी को लाइव देखा-सुना होगा. 2006 में पटना में उनका देहांत हो गया.

उल्लेखनीय है कि मिथिला में ध्रुपद जैसी शास्त्रीय संगीत की एक फलती-फूलती परंपरा रही है, जिसे दरभंगा घरानाके नाम से जाना जाता है. पर इस घराने के गायक विद्यापति के नचारी को भी उसी रागात्मकता से गाते रहे हैं जैसे ध्रुपद के गौहर वाणी को. आश्चर्य नहीं कि विद्यापति के लोकगीतों को लोचनकवि ने सत्रहवीं सदी में अपनी किताब राजतरंगिनीमें रागों के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है. दुर्भाग्यवश जहां शास्त्रीय, उपशास्त्रीय संगीत की परंपरा को सहेजने के प्रयास हुए, लोक संगीत को संरक्षण नहीं मिल पाया. अपनी जड़ों से दूर जा चुकी नई पीढ़ी को इन लोकगीतों का कोई इल्म नहीं है, न ही सहेजने की चिंता. नई तकनीक का इस्तेमाल कर जो भी बचा-खुचा है उसे सहेजा जा सकता है, इसमें आॅन लाइन मीडिया की बड़ी भूमिका हो सकती है.


जैसा कि राजनीति शास्त्री सुदीप्त कविराज ने एक जगह लिखा है-जो विचार, सिद्धांत दर्शनमौखिक संप्रेषण के द्वारा लोक गाथाओं-लोकगीतों के तहत युगों से आ रहे हैं, वे काफी परिपक्व, सुनिश्चित और ज्ञान से भरपूर होते हैं और इसीलिए लेख के माध्यम से होने वाले संप्रेषण को भारतीय परंपरा में संदेह की दृष्टि से देखा गया. आश्चर्य नहीं कि क्यों कबीर कागद की लेखी के बदले आंखिन देखीपर जोर देते थे. लोक गीतों में हमेशा लोक जीवन की चर्चा होती है जो सामूहिकता में आकार लेता रहा है. बीबीसी को वर्ष 1999 में दिए एक इंटरव्यू में पत्रकार विजय राणा को विंध्यवासिनी देवी ने बताया था कि उन्होंने अपनी नानी, दादी से इन लोकगीतों को सुना-गुना और सीखा था.

बात छठ के प्रसंग से शुरू हुई थी. जब हम छठ के सबसे ज्यादा प्रचलित गीत ‘केरवा जे फरेला घवद से,ओह पर सुगा मेड़राय…’ को विंध्यवासिनी देवी और उनके साथियों के स्वर में सुनते हैं तो हमारे सामने यह लोकगीत कई अर्थ लेकर सामने आता है. इस गीत में केले के घवद पर मंडराते सुग्गे को धनुष से मार दिया जाता है और सुग्गा गिर कर मूर्च्छित हो जाता है. पर आगे सुगनी की वेदना सुन कर आदित (आदित्य) से प्रार्थना की जाती है कि वे सहाय हों. इन गीतों में लोकचेतना का जो स्वरूप है वह सोशल मीडिया की वितंडा से अलग एक शोध की मांग करता है. कहने की जरूरत नहीं कि शास्त्रीयता की अपनी विशेषताएं हैं लेकिन लोक की अपनी खूबियां हैं. लोक के बिना शास्त्र अधूरा है और शास्त्र के बिना लोक दिशाहीन. इसलिए जरूरी है लोक और शास्त्र का समन्वय बना रहे.

(जनसत्ता, दुनिया मेरे आगे कॉलम में 2 नवंबर 2017 को प्रकाशित)

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