समकालीन
मीडिया के लिए 21वीं सदी का दूसरा दशक दुनिया भर में संभावनाओं और चुनौतियों से
भरा रहा है. मेनस्ट्रीम मीडिया के बरक्स इंटरनेट जनित नया मीडिया (डिजिटल मीडिया)
ने पब्लिक स्फीयर में बहस-मुबाहिसा को एक गति दी है और एक नए लोकतांत्रिक समाज का
सपना भी बुना है. पर इस दशक के जाते-जाते फेक न्यूज का एक ऐसा तंत्र खड़ा हुआ
जिसकी चपेट में नया मीडिया के साथ मेनस्ट्रीम मीडिया भी आ गया. वर्तमान में वैश्विक
से लेकर स्थानीय स्तर पर लोकतांत्रिक समाज के लिए फेक न्यूज की पहचान और इससे निपटने
की चुनौती मीडिया और नागरिक समाज में होने वाले विमर्श का एक महत्वपूर्ण विषय है.
पर सवाल है कि फेक न्यूज क्या है? भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र
के लिए और वर्ष 2019 में
होने वाले सत्रहवीं लोकसभा चुनाव के लिए यह किस रूप में चुनौती बन कर उपस्थित है? क्या इसकी जड़ में सामाजिक-राजनीतिक कारण हैं या महज
संचार की नई तकनीक से उपजी हुई समस्या है? और आखिर में, इस समस्या का समाधान किन
रास्तों से होकर गुजरता है?
फेक न्यूज और प्रोपेगैंडा
फेक
न्यूज का इतिहास प्रिंटिंग के इतिहास जितना ही पुराना है. पहली बार 16वीं सदी में इस परिघटना से हमारा सामना होता है. पहले
पैंफलेट या न्यूजबुक की प्रतियों की बिक्री बढ़ाने के लिए कपोल कल्पित खबरों का
इस्तेमाल होता था, फिर बाद में अखबारों में भी बिक्री को बढ़ाने के लिए मनगढंत
खबरों का इस्तेमाल किया जाने लगा. हालांकि जैसे-जैसे 19वीं सदी में वैज्ञानिकता, वस्तुनिष्ठता और निष्क्षपता पर जोर बढ़ा अखबार
अपनी प्रतिष्ठा को लेकर चिंतित होने लगे और साथ ही अपने पाठकों के प्रति भी
उत्तरदायी होने लगे.[i] पर
पिछले कुछ वर्षों में, खास कर वर्ष 2016 में अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनाव के बाद, पूरी दुनिया के
मीडियाकर्मियों, अध्येताओं, समाज वैज्ञानिकों के बीच फेक न्यूज को लेकर एक बहस
छिड़ गई है.
जाहिर
है खबर की शक्ल में मनगढंत बातें, दुष्प्रचार, अफवाह आदि समाज में
पहले भी फैलते रहते थे. पर उनमें और आज जिसे हम फेक न्यूज समझते हैं, बारीक फर्क है. ऐसी खबर जो तथ्य पर आधारित ना हो और जिसका दूर-दूर
तक सत्य से वास्ता ना हो फेक न्यूज कहलाता है. इस तरह की खबरों की मंशा सूचना,
शिक्षा या मनोरंजन करना नहीं होता है बल्कि समाज में वैमनस्य फैलाना, लोगों को
भड़काना होता है. लोगों के व्यावसायिक हित के साथ-साथ राजनीतिक हित भी इससे जुड़े
होते हैं.
पिछले
दिनों ब्रटिश ब्रॉडकास्टिंग कारपोरेशन (बीबीसी) ने फेक न्यूज के खिलाफ वैश्विक
स्तर पर एक मुहिम शुरु किया. भारत में इसी के तहत लखनऊ में आयोजित एक कार्यक्रम
में बोलते हुए समाजवादी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री
अखिलेश यादव ने कहा कि ‘जो लोग फेक न्यूज़ को बढ़ावा
दे रहे हैं, वो देशद्रोही हैं.’ साथ ही उन्होंने कहा कि ‘ये प्रोपेगैंडा है और कुछ लोग इसे बड़े पैमाने पर कर रहे हैं.[ii]
फेक
न्यूज भूमंडलीकरण के दौर में, मूलत: संचार क्रांति के साथ समाज में जो नई तकनीकी
आई है उससे उभरी समस्या है. कंप्यूटर, स्मार्ट फोन, इंटरनेट (टूजी, थ्री जी, फोर जी) और सस्ते डाटा पैक की दूर-दराज इलाकों तक पहुँच ने मीडिया
के बाजार में खबरों के परोसने, उसके उत्पादन और
उपभोग की प्रक्रिया को खासा प्रभावित किया है. अब कोई भी पढ़ा-लिखा व्यक्ति चाहे
तो संदेश का उत्पादन और प्रसारण कर सकता है, इसे एक खबर की शक्ल दे सकता
है. मेनस्ट्रीम मीडिया (अखबार, टेलीविजन समाचार चैनल, ऑन लाइन वेबसाइट आदि) पर
जैसे-जैसे बाजार का दबाव बढ़ा और मनोरंजन का तत्व हावी हुआ है, खबरों की परिभाषा
भी बदल गई. मीडिया उद्योग का मुख्य लक्ष्य मुनाफा कमाना, पाठकों की संख्या में
बढ़ोतरी, टीआरपी बटोरना, ऑन लाइन ट्रैफिक बढ़ाना हो गया. मेनस्ट्रीम मीडिया के ऊपर
विश्वसनीयता का संकट और फेक न्यूज का जाल एक
साथ फैलता गया. कई बार फेक न्यूज की चपेट में मेनस्ट्रीम मीडिया भी आ जाता है.
कारण, टेलीविजन न्यूज चैनलों और अखबारों का एजेंडा सेट करने में सोशल मीडिया की एक
बड़ी भूमिका उभर कर आई जो एक अलग शोध का विषय है.
पर क्या फेक न्यूज को हम
महज तकनीक जनित समस्या के रूप में देखें या इसकी जड़ में सामाजिक, राजनीतिक प्रवृतियाँ
हैं? सामाजिक
विकास के साथ-साथ मीडिया के स्वरूप में परिवर्तन होता रहा है. किसी भी देश-काल में
समाज में जो प्रवृतियाँ मौजूद रहती हैं मीडिया उससे अछूती नहीं रहती. साथ ही कोई
भी तकनीक उसके इस्तेमाल करनेवालों पर आश्रित होती है. आधुनिक समय में फेक न्यूज की
जड़ में असंवेदनशीलता, असुरक्षा, असहिष्णुता, समाज में व्याप्त भेद-भाव और राजनीतिक
महत्वाकांक्षा है जो कई बार ‘ट्रोल (troll)’ और ‘बोट (bot)’ के रूप में सामने आती है.[iii] वर्तमान में पूरी दुनिया में- अमेरिका, ब्राजील से लेकर भारत तक- राजनीतिक
फायदे के लिए इसका इस्तेमाल हो रहा है. बात राष्ट्रवादियों की हो या सामाजवादियों की,
उनके पास एक पूरी टीम है जो फेक न्यूज के उत्पादन, प्रसारण में रात-दिन जुटी रहती है.
वर्ष 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के समय और
वर्ष
2018 में ब्राजील में हुए चुनावों के
समय व्हाट्सएप और सोशल मीडिया के जरिए फेक न्यूज का कारोबार काफी फला-फूला. सत्रहवीं
लोकसभा चुनाव के दौरान राजनीतिक पार्टियों से देकर चुनाव आयोग तक के लिए फेक न्यूज
एक बड़ी चुनौती है. पर क्या राजनीतिक पार्टियों से यह उम्मीद रखनी चाहिए कि वे इस चुनौती
से निपटेंगे?
फेक
न्यूज के पीछे जो तंत्र काम करता है उसकी पड़ताल करते हुए बीबीसी के शोध में पता चला है
कि लोग 'राष्ट्र निर्माण' की भावना से
राष्ट्रवादी संदेशों वाले फेक न्यूज़ को साझा कर रहे हैं और राष्ट्रीय पहचान का
प्रभाव खबरों से जुड़े तथ्यों की जांच की जरूरत पर भारी पड़ रहा है. हालांकि
बीबीसी की इस शोध प्रविधि (मेथडोलॉजी) पर सवाल खड़ा किया जा रहा है. राष्ट्रवादी विचारधारा वाले, बीबीसी के इस शोध को केंद्र
में वर्तमान भारतीय जनता पार्टी सरकार के खिलाफ एक प्रोपेगैंडा कह रहे हैं. बीबीसी ने भारत में महज 40 लोगों के सैंपल साइज़ के आधार पर लोगों के सोशल मीडिया के बिहेवियर को
विश्लेषित किया है. बीबीसी का यह निष्कर्ष आधा-अधूरा ही माना जाएगा. हालांकि जिस तरह के वातावरण में आज पत्रकारिता की जा रही है उसमें
खबरों के उत्पादन में भावनाओं की भूमिका अलग से रेखांकित किए जाने की जरूरत है.
गौरतलब है कि भारत की आजादी के दौरान जब राष्ट्रवाद का उभार हो रहा था तब आधुनिक
संचार के साधनों के अभाव में, मौखिक संचार के माध्यम से
फैलने वाली अफवाहों से साम्राज्यवादियों के खिलाफ मुहिम में राष्ट्रवादियों को
फायदा भी पहुँचता था. वर्ष 1857 में हुए
भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अफवाह लोगों को एकजुट कर रहे थे, इतिहासकार रंजीत गुहा (2009:31-48) ने इस बात को
रेखांकित किया है.[iv]
शाहिद अमीन (2006:
43-45) ने भी चौरी-चौरा के प्रंसग में लिखा है कि मौखिक खबरों के
माध्यम से अफवाह (गोगा) तेजी से फैल रहे थे.[v]
दूसरी
तरफ साम्राज्यवादी ताकतें भी प्रोपेगैंडा से बाज नहीं आ रही थी. याद
कीजिए कि बीबीसी में काम करते हुए लेखक-पत्रकार जार्ज ऑरवेल ने क्या लिखा था.
उन्होंने बीबीसी के प्रोपेगैंडा से आहत होकर अपने इस्तीफा पत्र में लिखा था- “मैं मानता हूं कि मौजूदा राजनीतिक वातावरण में ब्रिटिश प्रोपेगैंडा
का भारत में प्रसार करना लगभग एक निराशाजनक काम है. इन प्रसारणों को तनिक भी चालू
रखना चाहिए या नहीं इसका निर्णय और लोगों को करना चाहिए लेकिन इस पर मैं अपना समय
खर्च करना पसंद नहीं करुंगा, जबकि मैं जानता हूँ
कि पत्रकारिता से खुद को जोड़ कर ऐसा काम कर सकता हूं जो कुछ ठोस प्रभाव पैदा कर
सके.”[vi] साथ ही, नहीं भूलना चाहिए कि इराक युद्ध (2003) के दौरान बीबीसी ने
जिस तरह से युद्ध को कवर किया, प्रोपगैंडा में भाग लिया, उसकी काफी भर्त्सना हो चुकी है.
पत्रकारिता
के क्षेत्र में बीबीसी की साख वर्षों से रही है. वह खबरों को विश्वसनीय,
वस्तुनिष्ठ ढंग से परोसने के लिए वह जानी जाती है. पर सवाल है कि फेक न्यूज क्या
महज प्रोपेगेंडा है? यदि हम प्रोपेगेंडा को फेक
न्यूज मानें तो इसकी जद में बीबीसी जैसे संगठन भी आ जाएँगे. पत्रकारिता
जैसे पेशे में जहाँ ‘डेडलाइन’ का
दबाव पत्रकारों पर हमेशा रहता है, वहाँ मानवीय भूल की गुंजाइश भी हमेशा रहती है. पर जल्दीबाजी में या भूलवश तथ्यों के
सत्यापन में की गई गलती को हम फेक न्यूज नहीं मान सकते हैं.
दस वर्ष पहले, वर्ष 2009
में लोगों के बीच आपसी संवाद के लिए व्हाट्सएप जैसे मैंसेजिंग प्लेटफार्म का
इस्तेमाल शुरु किया गया और देखते ही देखेते फोन के माध्यम से संवादों के संप्रेषण
की इस प्रविधि ने ‘एसएमएस’ के
इस्तेमाल को काफी पीछे छोड़ दिया. लेकिन हाल के वर्षों में भारत में व्हाट्सएप
जैसे मैसेजिंग प्लेटफॉर्म पर कई बार झूठी खबरों (ऑडियो, वीडियो और फोटोशॉप का
इस्तेमाल कर) को इस तरह परोसा और प्रसारित किया गया कि कई जगहों पर हिंसा भड़की
उठी और मॉब लिंचिंग में जानें गईं. इस सबके मद्देनजर व्हाट्सएप ने
एक साथ मैसेज को कई समूहों में फारवर्ड करने की सीमा तय कर दी है. साथ ही यदि कोई
संवाद अग्रसारित (फॉरवर्ड) होकर किसी के पास पहुँचता है तो संवाद पाने वालों को इस
बात की जानकारी मिल जाती है. इससे संवादों, खबरों के उत्पादन के स्रोत के बारे में
अंदाजा मिल जाता है. हालांकि फेक न्यूज को रोकने में ये पहल नाकाफी साबित हुए हैं.
पिछले दिनों देश की संसदीय समिति ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के कर्ताधर्ताओं को
जवाबतलब किया ताकि आने वाले चुनाव में इन प्लेटफॉर्म के माध्यम से फैलने वाली
अफवाहों और फेक न्यूज पर रोक लगे और नागरिकों के हितों और अधिकारों की रक्षा की जा
सके.
चुनावी रणनीति में सोशल
मीडिया की भूमिका
केपीएमजी और गूगल के मुताबिक वर्ष 2011 में भारतीय भाषाओं में इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों की संख्या 4 करोड़ 20 लाख थी जो वर्ष 2016 में बढ़ कर 23 करोड़ 40 लाख हो गई, वर्ष 2021 में यह संख्या बढ़ कर 53 करोड़ 60 लाख हो जाएगी. साथ ही वर्तमान में करीब 96 प्रतिशत लोग
इंटरनेट का इस्तेमाल मोबाइल के माध्यम से करते हैं. किसी भी लोकतंत्र में राजनीतिक
पार्टियों और कार्यकर्ताओं के लिए जहाँ मास मीडिया संवाद पहुँचाने का एक माध्यम
हुआ करता था, पिछले कुछ वर्षों में यह एक-दूसरे से संवाद करने के साथ-साथ चुनावी
रणनीति का एक हथियार भी बन कर उभरा है. चुनावों के दौरान हर बड़ी-छोटी राजनीतिक
पार्टियों के अपने ‘वार रूम’ होते हैं, जहाँ से मीडिया पर निगाह रखी जाती है और इन्हें प्रभावित करने की
कोशिश होती है ताकि इनके राजनीतिक एजेंडे को लागू किया जा सके.
एक आंकड़ा के मुताबिक
भारत में करीब 90 करोड़ वोटर हैं जिसमें से करीब 50 करोड़ के पास इंटरनेट की सुविधा
है. करीब 30 करोड़ फेसबुक यूजर्स हैं जबकि 20 करोड़ व्हाट्सएप मैसेज सेवा का इस्तेमाल
करते हैं. आगामी लोकसभा चुनावों के दौरान हर राजनीतिक पार्टियाँ सोशल मीडिया के माध्यम
से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठना चाहेगी. यहाँ व्हाट्सएप के साथ-साथ
शेयर चैट जैसे मैसेजिंग के देसी अवतारों पर भी सब दलों की नजर है, पर यह समकालीन
मीडिया-विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाया है और ज्यादातर लोगों की नजर से ओझल ही है.
छोटे शहरों-कस्बों में शेयर चैट जैसे प्लेटफॉर्म, जो भारतीय भाषाओं में मुफ्त में
उपलब्ध हैं, काफी लोकप्रिय हैं. फिलहाल राजनीतिक पार्टियाँ इन देसी मैसेजिंग
प्लेटफॉर्म का प्रोपेगैंडा के लिए खूब इस्तेमाल कर रही हैं.
असल में जैसा कि पामेला
फिलिपोसे (2019: 152) ने हाल ही में प्रकाशित अपनी किताब
में लिखा है: वर्ष 2013 और वर्ष 2015 में दिल्ली में हुए विधानसभा चुनाव और वर्ष
2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान हमने पहली बार मीडिया जनित
राजनीतिक गोलबंदी को अपने उच्चतम शिखर पर देखा और इन्हीं चुनावों में पहली बार देश
में राजनीतिक संचार के लिए सोशल मीडिया के समुचित इस्तेमाल की परख एक टूल के रूप
में हुई.”[vii] अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व
में भारतीय जनता पार्टी नये मीडिया के इस्तेमाल में आगे रही पर जल्दी ही कांग्रेस,
समाजवादी पार्टी आदि भी सोशल मीडिया के इस्तेमाल की पहल में तेजी से आगे बढ़ी.
वर्ष 2019 के फरवरी महीने में बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती ने भी टविटर
जैसे माध्यम को अपनाया. गौरतलब है कि मेनस्ट्रीम मीडिया पर मनुवादी होने का आरोप
लगाने के साथ ही उनका कहना था कि जिस तरह की राजनीति वे करती हैं उसमें सोशल
मीडिया जैसे माध्यम की उन्हें जरूरत नहीं है. स्पष्ट है कि सोशल मीडिया की भूमिका
को नजरअंदाज करना अब किसी भी राजनीतिक दल के लिए संभव नहीं है.
वर्ष 2014 में केंद्र में भारतीय
जनता पार्टी और सहयोगी दलों की सरकार बनने के बाद सरकार के मंत्री, राजनेता
अखबारों और समाचार चैनलों से ज्यादा, नये मीडिया पर सक्रिय रहे. प्रधानमंत्री
नरेंद्र मोदी समेत सभी मंत्रियों और सांसदों की सक्रियता सोशल मीडिया पर ज्यादा दिखी.
टिवटर पर नरेंद्र मोदी के 44.7 मिलियन और फेसबुक पर 43.2 मिलियन फॉलोअर हैं. 2014 में लोकसभा चुनाव हारने
के बाद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गाँधी टिवटर पर आए और तेजी से उनके
फॉलोअरों की संख्या बढ़ी. वर्तमान में वे सत्ताधारी नेताओं की तरह ही सोशल मीडिया
पर सक्रिय हैं. जहाँ फेसबुक और टविटर जैसे माध्यमों का इस्तेमाल राजेनता अपने
कार्यकर्ताओं तक संदेश पहुँचाने के लिए कर रहे हैं, वहीं इसका इस्तेमाल आम जनता तक
अपनी बातें पहुँचाने के लिए भी कर रहे हैं. यह प्रोपेगैंडा और फेक न्यूज फैलाने का
जरिया भी साबित होता है और जाने-अजाने पक्ष और विपक्ष के नेता, सरकार में शामिल
मंत्री इस कृत्य में शामिल हो जाते हैं.
निष्कर्ष
फेक
न्यूज के कई आयाम है जिसमें खबरों के उत्पादन, प्रसारण, स्रोत, तथ्य प्रमुख हैं.
सोशल मीडिया के दौर में सच्ची और फर्जी खबरों के बीच तथ्यों, स्रोतों की पहचान
(फैक्ट चेकिंग), क्रास चेकिंग आदि आम नागरिकों के लिए मुश्किल है. फेक न्यूज की
वजह से फेसबुक, व्हाट्सएप, स्नैप चैट, ट्विटर जैसे प्लेटफार्म की विश्वसनीयता पर भी संकट है. बड़ी पूंजी
से संचालित नये मीडिया पर राष्ट्र-राज्य और नागरिक समाज की तरफ से काफी दबाव है. इन पर पक्षधरता और वस्तुनिष्ठ नहीं होने का आरोप भी लगा है. वर्तमान में हिंदी
में ऑन लाइन न्यूज मीडिया के जो वेबसाइट हैं, वहाँ क्लिकबेट (हेडिंग में
भड़काऊ शब्दों का इस्तेमाल ताकि अधिकाधिक हिट मिले) और सोशल मीडिया पर खबरों के
शेयर करने की योग्यता (शेयरेबलिटी) पर ज्यादा जोर रहता है. निस्संदेह डिजिटल
मीडिया की वजह से बहस-मुबाहिसा का एक नया क्षेत्र उभरा है जिससे लोकतंत्र मजबूत
हुआ है, पर कई बार यहाँ पर जो असत्यापित या अपुष्ट खबरें दी जाती है वह
सोशल मीडिया के माध्यम से लाखों लोगों तक पहुँचती है और फेक न्यूज की शक्ल लेती
है. हालांकि इसी बीच मेनस्ट्रीम अखबार और टीवी समाचार चैनलों के साथ-साथ ऑनलाइन के
कई ऐसे वेबसाइट भी उभरे हैं जो फेक न्यूज के बारे में जागरुकता फैलाते हैं और इन
फर्जी खबरों से आम जनता को अवगत करा रहे हैं. हाल ही में सोशल मीडिया के
कर्ताधर्ता भी विभिन्न संगठनों के साथ मिल कर फेक न्यूज को फैलने से रोकने के लिए
जरूरी कदम उठा रहे हैं, जिनमें तथ्यों की जाँच, सत्यापन पर काफी जोर है.
साथ
ही, दुनिया भर की सरकारें सोशल मीडिया पर फेक न्यूज की बढ़त को रोकने के लिए कानून
लाने पर विचार कर रही है. लेकिन मीडिया पर किसी तरह की कानूनी बंदिश लोकतांत्रिक
समाज के लिए मुफीद नहीं है. लोकतांत्रिक समाज के लिए मीडिया की स्वतंत्रता एक
जरूरी शर्त है. मास मीडिया तथ्यों के माध्यम से सत्य तक
पहुँचने का एक जरिया रहा है. लेकिन ‘पोस्ट-ट्रुथ’ के इस दौर में यह स्वीकार करने में कोई गुरेज नहीं कि फेक
न्यूज से लड़ाई लंबी है और हाल-फिलहाल फेक न्यूज की समस्या का कोई सीधा हल नहीं दिखता है. इसी
को ध्यान में रखते हुए ट्विटर के सीईओ जैक डोरसे ने पिछले दिनों अपनी भारत यात्रा
के दौरान कहा कि ‘फेक न्यूज और दुष्प्रचार की समस्याओं से निपटने
के लिए कोई भी समाधान समुचित नहीं है.’ फिर सवाल है कि रास्ता किधर है? रास्ता संचार की नई तकनीक और इन तकनीकी के मार्फत डिजिटल
मीडिया का इस्तेमाल करने वाले समुदायों से होकर ही जाता है. लोगों में समझबूझ और
जागरुकता फैलाने से लेकर, माध्यम के प्रति शिक्षित करने, तथ्यों को सत्यापित करने,
क्रास चेकिंग आदि से फेक न्यूज की समस्या से लड़ा जा सकता है.
(संवाद पथ, जनवरी-मार्च 2019 में प्रकाशित)
[i] देखें,द इकॉनामिस्ट 1843 मैग्जीन, https://www.1843magazine.com/technology/rewind/the-true-history-of-fake-news
[iii] भारत में
इंटरनेट ट्रोल किस तरह काम करते हैं इसके बारे में विस्तृत जानकारी के लिए देखें,
स्वाति चतुर्वेदी (2016), आई एम ए ट्रोल, नयी दिल्ली: जगरनॉट. साथ ही देखें, रवीश कुमार (2018), द फ्री वॉयस, नयी दिल्ली: स्पीकिंग
टाइगर.
[iv] रंजीत गुहा (2009), ट्रांसमिशन, अरविंद राजगोपाल (सं) द इंडियन पब्लिक स्फीयर में संग्रहित,
नयी दिल्ली: आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस.
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