Tuesday, January 14, 2020

सितारे जमीन पर

भारत में सिनेमा महज मनोरंजन का मुख्य स्रोत नहीं है, बल्कि पॉपुलर संस्कृति का हिस्सा भी है. सिनेमा के कलाकारों को सितारों का दर्जा हासिल है. ये सेलिब्रेटी माने जाते हैं. बॉलीवुड से लेकर दक्षिण सिनेमा के सितारे अपनी इस छवि के बदलौत राजनीति के क्षेत्र में भी उतरे, जिनमें कई सफल रहे और कई नाकाम. जहाँ एमजी रामचंद्रन, जयललिता आदि काफी सफल रहीं, वहीं अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता असफल रहे. पिछले कुछ समय से रजनीकांत और कमल हासन जैसे अभिनेता राजनीति में हाथ अजमाने की कोशिश कर रहे हैं.


मुख्यधारा की राजनीति में रहते हुए ये सितारे भले ही सामाजिक, राजनीतिक मुद्दों पर अपनी राय व्यक्त करें, पर आम तौर पर ये चुप ही रहते हैं. इसका कारण भी स्पष्ट है. सिनेमा एक व्यवसाय है, जिसमें बड़ी पूंजी दांव पर लगी रहती है. साथ ही ये कई कंपनियों के ब्रांड एंबेसडर होते हैं और कई सरकारी विज्ञापनों में भी शामिल होते हैं. ऐसे में राजनीतिक पक्षधरता का खुल कर जाहिर करना कारोबार के लिए जोखिम भरा हो सकता है.

पिछले दिनों चर्चित अभिनेत्री दीपिका पादुकोण जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जाकर विद्यार्थियों से मिली और उनके साथ अपनी कुछ देर की मौजूदगी दर्ज की. दरअसल, जेएनयू पिछले कुछ महीनों से संघर्ष का परिसर बना हुआ है. दीपिका कुछ नकाबपोश गुंडो की हिंसा में घायल जेएनयू छात्रसंघ की अध्यक्ष आईशी घोष से भी मिली. उनकी यह तस्वीर सोशल मीडिया में खूब वायरल हुई. इसके बाद यह स्वाभाविक ही था कि कुछ लोगों ने इस कदम की तारीफ की, वहीं उन्हें ट्रोल भी किया गया. लोगों ने इसे हाल ही में रिलीज हुई छपाक फिल्म के प्रोमोशन से भी जोड़ा.

दरअसल, नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी), जामिया-जेएनयू में हुए हिंसा के खिलाफ विरोध पूरे देश में विश्वविद्यालयों के कैंपस से लेकर सड़कों पर दिखाई पड़ रही है. इसमें कई बॉलीवुड के कलाकार और निर्देशक भी शामिल हैं. अनुराग कश्यप जैसे कुछ फिल्म निर्देशक तो काफी मुखर हैं. यों फिल्म दुनिया की कुछ हस्तियों ने सीएए का समर्थन भी किया. किसी भी आंदोलन में युवाओं-विद्यार्थियों की अग्रणी भूमिका रही है. पिछले दिनों दिल्ली में हो रहे प्रदर्शनों में पुलिस की लाठी से एक पुरुष मित्र को बचाती दो छात्राओं और पुलिस को गुलाब का फूल देती एक छात्रा की तस्वीर काफी वायरल हुई. इस पूरे दौर में हिंसा के खिलाफ छात्र-छात्राओं ने विरोध प्रदर्शन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया.

आजादी के आंदोलन, आपातकाल के खिलाफ आंदोलन, इस दशक की शुरुआत में भ्रष्टाचार के खिलाफ हुए प्रदर्शन आदि में छात्र-छात्राओं और युवाओं ने आगे बढ़ कर भागेदारी की थी. आपातकाल के दौरान किशोर कुमार, देवानंद और मनोज कुमार जैसे कलाकारों ने भी सरकार के खिलाफ अपना विरोध दर्ज किया था. 

सत्ताधारी दल के कई नेता और मंत्री आपातकाल के विरोध में हुए आंदोलनों में से ही निकले हैं. हाल ही में दिवंगत हुए राकांपा के नेता और जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे देवीप्रसाद त्रिपाठी आपातकाल के दौरान छात्रनेता के रूप में उभरे थे.

बहरहाल, कुछ दिन पहले दफ्तर में बैठा खबरों में उलझा था और नज़र टीवी स्क्रीन पर थी कि अपनी धुन में बांसुरी बजाते एक युवा की आवाज कानों में पड़ी. धुन इस गीत की थी : थोड़ा सा प्यार हुआ है, थोड़ा है बाकी. बांसुरी की आवाज में इस फिल्मी गाने में एक कशिश थी. कवि वीरेन डंगवाल के शब्दों में- गोया एक फ़रियाद है अज़ान सी. साहित्य हो या सिनेमा वह सामाजिक यथार्थ के चित्रण के साथ प्रेम और सामाजिक सौहार्द की ही बात करता है.


प्रसंगवश, सड़कों पर निकले जुलूस में हर जोर जुल्म के टक्कर में संघर्ष हमारा नारा है’, और तू जिंदा है तो जिंदगी की जीत में यकीन कर जैसे गाने खूब सुनाई दिए. इसे हिंदी फिल्मों के चर्चित गीतकार शैलेंद्र ने लिखा है. हालांकि जिस दौर में शैलेंद्र ने इसे लिखा था वह दौर अलग था. बॉलीवुड में इप्टा की पृष्ठभूमि से आए निर्देशक-अभिनेता और प्रगितशील लेखक संघ से जुड़े लेखक-गीतकार काफी सक्रिय थे. इनमें से कई लोगों की राजनीतिक पक्षधरता स्पष्ट थी. 

सिनेमा से जुड़े लेखक या सितारे इसी समाज के हिस्से हैं और जाहिर है कि समाज की हलचलों से वे दूर नहीं रह सकते. अगर कुछ युवा सितारे व्यापक महत्व के मुद्दे पर अपनी दखल दर्ज कर रहे हैं तो उनकी आवाज को लोकतंत्र की मजबूती के रूप में देखना चाहिए. हॉलीवुड में ऐसे सितारों, फिल्म निर्देशकों की लंबी परंपरा है जो राजनीतिक घटनाक्रमों पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते रहे हैं. तीन साल पहले ऑस्कर पुरस्कार से सम्मानित अभिनेत्री मेरिल स्ट्रीप ने गोल्डन ग्लोब अवार्ड समारोह के दौरान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर जमकर निशाना साधा था और खरी-खोटी सुनाई थी.

असल में लंबे समय से पॉपुलर संस्कृति का इस्तेमाल राजनीतिक प्रतिरोध के रूप में होता रहा है. आखिरकार सिनेमा एक सांस्कृतिक उत्पाद है, जो अपने समय को कलात्मक ढंग से रचता है. पिछले दिनों विद्यार्थियों के प्रदर्शन से प्रेरित होकर सुधीर मिश्रा ने ट्विटर पर लिखा कि वे अपनी पहली फिल्म ये वो मंजिल तो नहीं का रिमेक बनाएँगे. गौरतलब है कि 1987 में आई यह फिल्म छात्र राजनीति के इर्द-गिर्द थी, जिसे राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था.

(जनसत्ता, 14.01.2020)