पिछले दिनों जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल का ऑनलाइन आयोजन किया गया. इस समारोह में पाकिस्तान के युवा निर्देशक उमर रियाज की एक डॉक्यूमेंट्री- ‘कोई आशिक किसी महबूब से’, भी दिखाई गई. जहाँ फीचर फिल्मों के प्रदर्शन के लिए कई माध्यम हैं वहीं आज भी वृत्तचित्रों का प्रदर्शन फिल्मकारों के लिए मुश्किल पैदा करता है.
बहरहाल, ‘कोई आशिक किसी महबूब से’ वृत्तचित्र का शीर्षक दक्षिण एशिया के मकबूल और महबूब शायर फैज अहमद फैज की शायरी से उधार लिया गया है. असल में इस डॉक्यूमेंट्री में फैज अहमद फैज की शायरी, गज़ल और उनकी जिंदगी के लम्हों को कैद किया गया है. हालांकि इसमें फैज खुद उपस्थित नहीं है. उनके संस्मरण उनकी बेटियों के हवाले से इस डॉक्यूमेंट्री में आया है. साथ ही पाकिस्तान के चर्चित अदाकार और उर्दू साहित्य को लयात्मक और अपने सस्वर पाठ से चर्चित करने वाले जिया मोहिउद्दीन के हवाले से फैज की उपस्थिति दर्ज होती है.
यह वृत्तचित्र खुद मोहिउद्दीन की जीवन यात्रा भी है. गौरतलब है कि मोहिउद्दीन का प्रशिक्षण लंदन स्थित रॉयल एकेडमी ऑफ ड्रामेटिक आर्टस (राडा) से पचास के दशक में हुआ था और तब से वे विभिन्न रूपों में पाकिस्तान और ब्रिटेन के मंच पर अपनी अदाकारी का प्रदर्शन करते रहे हैं. टीवी और सिनेमा से भी उनका जुड़ाव रहा है. करीब तीस साल से वे लाहौर में साल के आखिरी दिन उर्दू साहित्य का पाठ करते रहे हैं, जिसका इंतजार पाकिस्तान के साहित्य प्रेमी बेसब्री से करते हैं. फैज के जन्मशती वर्ष में उन्होंने सिर्फ उन्हीं के नज्मों का पाठ किया.
यह वृत्तचित्र व्यक्ति विशेष से ऊपर उठ कर पाकिस्तानी समाज में उर्दू भाषा, कला और रिवायत की बेकद्री पर एक आलोचनात्मक नजरिया प्रस्तुत करता है. जैसा कि मोहिउद्दीन एक जगह टिप्पणी करते हैं- ‘यहां अदाकारी को फन नहीं समझा जाता है’. काव्य पाठ और पढ़ने के दौरान स्वर के उतार-चढ़ाव पर जोर देते हुए मोहिउद्दीन पूछते हैं- लफ्ज के नीचे जो नहीं कहीं गई बात है, वो क्या है?’ इसी बात को कवि केदारनाथ सिंह अपनी कक्षाओं में कहते थे कि कविता ‘बिटविन द लाइंस’ होती है.
इस डॉक्यूमेंट्री में क्राफ्ट पर काफी ध्यान दिया गया है. बकौल रियाज इसे बनाने में उन्हें सात साल लगे और उनकी मेहनत दिखती भी है. सिनेमैटोग्राफी और कुशल संपादन इस वृत्तचित्र को एक सफल फीचर फिल्म के करीब ले जाता है. पाकिस्तान के आम नागरिकों, चौक-चौराहों के जो दृश्य कैद किए गए हैं वे काव्यात्मक हैं, फैज की कविता के भाव बोध और संवेदना से मेल खाते हैं. साथ ही पुरानी तस्वीरों-फुटेज का इस्तेमाल भी बारीकी से किया गया है.
जब मोहिउद्दीन फैज की इस नज्म को पढ़ते हैं- आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो/ दस्त-अफ़्शाँ चलो मस्त ओ रक़्साँ चलो/ ख़ाक-बर-सर चलो ख़ूँ-ब-दामाँ चलो/ राह तकता है सब शहर-ए-जानाँ चलो, तब पाकिस्तान की राजनीति, मिलिट्री शासन और समाज के हाशिए पर रहने वालों की पीड़ा एक साथ उभर कर सामने आ जाती है.
डॉक्यूमेंट्री के शुरुआत में एक टिप्पणी है- महबूब जिंदगी में बेहतरीन की तमन्ना है और आशिक उस बेहतरीन की तलाश. यह किसी भी कला और कलाकार के लिए हमेशा सच है.
(प्रभात खबर, 24 जनवरी 2021)