मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में योगदान के लिए मधुबनी जिले के रांटी गाँव की दुलारी देवी को पद्मश्री पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई है. यूँ तो मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र में अब तक छह महिला कलाकारों को पद्मश्री से सम्मानित किया जा चुका है, पर उनकी कला यात्रा उन्हें एक अलग लीक में ले जाती है. पारंपरिक रूप से मिथिला कला में कायस्थों और ब्राह्मणों की उपस्थिति रही है, पर पिछले कुछ दशकों में दलित कलाकारों का दखल बढ़ा है. दुलारी देवी हाशिए के समाज से आती हैं. उनकी कला में उनका जीवन अनुभव और संघर्ष स्पष्ट रूप से दिखता है.
पद्मश्री की घोषणा के बाद जब मैंने उनसे बात किया तो
उन्होंने कहा- बहुत कष्ट स गुजरल छी. बहुत संघर्ष में सीखने छी. आई हमरा बहुत खुशी
होइय. एते दिन सुनै छलिए. हमर गाम के महासुंदरी देवी, गोदावरी
दत्त...बौआ देवी (जितवारपुर) के भेटल रहैन. आई हमरो भेटल ए त आरो खुशी होइए. (बहुत
कष्ट से गुजरी हूँ. बहुत संघर्ष में रह कर सीखी. मुझे बहुत खुशी है. पहले सुनती थी
कि मेरे गाँव की महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्त...बौआ देवी
(जितवारपुर) को पुरस्कार मिला. आज मुझे भी मिला तो और भी खुशी हुई.)
असल में, मछुआरा जाति में जन्मी दुलारी
देवी की ज़िंदगी किसी लोक कथा से मिलती-जुलती है. बिना किसी शिक्षा-दीक्षा के उनकी
शादी बचपन में एक निठल्ले से कर दी गई. कम उम्र में एक लड़की को जन्म दिया जो
ज़िंदा नहीं रही. फिर पति के ताने. पंद्रह साल की होते होते उन्होंने अपने पति को
छोड़ दिया. खेतों में मजदूरी और संपन्न लोगों के घर झाड़ू-बुहारी करते उनका समय
बीतता रहा. इसी क्रम में जब वो मिथिला चित्र शैली की राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त
कलाकार कर्पूरी देवी के घर काम करती थी तो उनकी उत्सुकता इन चित्रों के प्रति
बढ़ी. कुछ वर्ष पहले जब मेरी मुलाकात उनसे हुई थी तब उन्होंने कहा था, “मैं जब
महासुंदरी देवी, कर्पूरी देवी को चित्र बनाती
हुई देखती थी तो मेरी भी इच्छा होती थी मैं भी इन्हें बनाऊँ. मैंने महासुंदरी देवी
के साथ छह महीने की ट्रेनिंग ली और फिर चित्र बनाने लगी.” फिर
धीरे-धीरे उनकी ख्याति बढ़ती गई. मधुबनी स्थित विद्यापति टॉवर में उन्होंने अपनी
कूची से सीता के जन्म से लेकर उनकी जीवन यात्रा का मनमोहक भित्तिचित्र बनाया है. मिथिला पेंटिंग को लेकर वह चैन्नई, कोलकाता, बैंगलोर आदि
जगहों पर भी गई.
दुलारी देवी को शब्दों की पहचान भले ना हो, पर रंगों की
बखूबी पहचान है जो उनके चित्रों में दिखती है. उनके चित्रांकन की शैली मिथिला
पेंटिंग के ‘कचनी शैली’ से मिलती है.
इस शैली में रेखाओं की स्पष्टता पर जोर रहता है. उनके चित्रों में मिथिला पेंटिंग
की पारंपरिक विषयों के अतिरिक्त उनके जीवन की छवियाँ, आत्म संघर्ष
अंकित है. कुछ वर्ष पहले आई उनकी आत्मकथा ‘फालोइंग माइ
पेंट ब्रश’ में उन्होंने इसे रेखाचित्र के
माध्यम से उकेरा है.
मुझे याद है कि जब मैं रांटी में उनसे मिलने गया तब उनसे एक
पेंटिंग खरीदी थी और उनसे कहा था कि अपना नाम लिख दीजिए. पर जब मैंने दिनांक अंकित
करने को कहा तब उन्होंने कहा था कि ‘बस मुझे नाम
लिखना आता है!’
इसी तरह इस साल भीली शैली चित्रकला के लिए चर्चित कलाकार
भूरीबाई को पद्मश्री दिए जाने की घोषणा हुई. उनका जीवन भी दुलारी देवी की तरह ही
संघर्ष से भरा रहा है. वह भील जनजाति से आने वाली पहली महिला है जिन्होंने कागज और
कैनवास पर अपने अनुभवों और जातीय स्मृतियों को दर्ज किया है.
उनके चित्रों में जीवन के अनुभव जीवंत है. अस्सी के दशक में मशहूर कलाकार जगदीश
स्वामीनाथन जब भोपाल स्थित भारत भवन के निदेशक थे, तब भूरीबाई
की प्रतिभा को पहचाना था और उन्हें चित्र बनाने को प्रेरित किया. भूरीबाई वहाँ पर
मजदूरी के लिए आई थी. आज भी वह शिद्दत से उन्हें याद करती हैं. वह कहती हैं, ‘ऊपर जाने के बाद भी वे मुझे कला बाँट रहे हैं. वे मेरे गुरु भी थे और देव
के रूप में भी मैं उनको मानती हूँ.’
भूरीबाई के चित्रों के माध्यम से भीलों का जीवन आधुनिक
भारतीय चेतना का हिस्सा बना. दुलारी देवी की तरह ही उनके चित्रों में आत्मकथात्मक
रंग भरा है. उन्होंने भी अपनी कहानी दीवारों पर अंकित करने के साथ ‘डॉटेड लाइंस’ किताब में
कही है. इसमें वह झाबुआ जिले में स्थित अपने गाँव के बारे में रेखांकित करती हैं. अपने पेंटिंग में वह पारंपरिक ‘पिठौरा’ पर्व के
चित्रण के माध्यम से भीलों की संस्कृति को खूबसूरत रंगों से उकेरती हैं. वह कहती
हैं कि “पिठौरा देव के घोड़े को महिलाएँ नहीं बनाती है. इसे
पारंपरिक रूप से पुरुष ही मिल कर बनाते हैं. इस अनुष्ठान से जुड़ी जो अन्य पेंटिंग
हैं-मोर, पेड़ और भी बहुत कुछ वह मैं बनाती
हूँ.” उनके अन्य चित्रों में भीलों का
जन-जीवन, पेड़-पौधे, घोड़े-बैल, ढोल-मांदल, गाँव के
आस-पड़ोस का अंकन है.
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