पिछले दिनों किसान आंदोलन के प्रसंग में प्रेमचंद के उपन्यासों को याद किया गया. खास कर प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कर्मभूमि को केंद्र में रख कर किसानों के संघर्ष की चर्चा हुई.
‘प्रेमाश्रम’ प्रेमचंद का पहला उपन्यास है जिसमें वे किसानों की समस्या, शोषण और संघर्ष को हिंदी पाठकों के सामने लेकर आते हैं. इस लिहाज से प्रेमचंद के सभी उपन्यासों में इसकी अहमियत बढ़ जाती है. वर्ष 1922 में छपा यह उपन्यास सौ साल पूरे कर रहा है.
प्रेमाश्रम के ऊपर शोध करने वाले हिंदी के आलोचक प्रोफेसर वीर भारत तलवार ने लिखा है: “ 1917 से 1920 के बीच लिखे गए किसान साहित्य में ‘प्रेमाश्रम’ अकेली कृति थी जिसमें किसानों के वर्ग संघर्ष को चित्रित किया गया था. जमींदारी प्रथा के खिलाफ किसानों के संघर्ष को चित्रित करने वाले प्रेमचंद हिंदी के पहले लेखक और 1917-20 के जमाने के एकमात्र लेखक थे.” कोई भी रचनाकार अपने समय की हलचलों से अछूता नहीं रहता. साथ ही वह अपने समय और समाज के प्रति उत्तरदायित्व होता है.
प्रेमचंद के इस उपन्यास में समकालीन औपनिवेशिक-सामंती समाज, अवध के क्षेत्र में बाद में फैले किसान आंदोलन और असहयोग आंदोलन की अनुगूंज है. हालांकि इस उपन्यास में यथार्थवाद पर उनका आदर्शवाद हावी है, पर जमींदारी के खत्म होने को लेकर उनके मन में कोई संशय नहीं है.
इस उपन्यास की शुरुआत इन पंक्तियों से होती है:
“संध्या हो गयी है. दिन-भर के थके-माँदे बैल खेतों से आ गये हैं. घरों से धुएँ के काले बादल उठने लगे. लखनपुर में आज परगने के हाकिम की पड़ताल थी. गाँव के नेतागण दिन-भर उनके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ते रहे थे. इस समय वह अलाव के पास बैठे हुए नारियल पी रहे हैं और हाकिमों के चरित्र पर अपना-अपना मत प्रकट कर रहे हैं. लखनपुर बनारस नगर से बारह मील पर उत्तर की ओर एक बड़ा गाँव है. यहाँ अधिकांश कुर्मी और ठाकुरों की बस्ती है, दो-चार घर अन्य जातियों के भी हैं.”
इस उपन्यास में पात्रों की भरमार है. मनोहर, बलराज जैसे किसानों के साथ प्रेमशंकर, ज्ञानशंकर जैसे जमींदार मौजूद हैं. इसके अलावे गायत्री, गौंस खां, कादिर जैसे पात्र भी हैं. लखनपुर गाँव के किसान प्रेमाश्रम के नायक हैं और खलनायक जमींदार वर्ग है. इस गाँव के किसान बेगार, लगान,बेदखली के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं.
औपनिवेशिक भारत में जमींदार और किसान के बीच एक तीसरे वर्ग महाजन वर्ग का तेजी से विकास हुआ. किसान इस कुचक्र में पिस रहा था. इसका निरूपण प्रेमचंद ने अपने बाद के उपन्यास ‘गोदान’ में कुशलता से किया है.
प्रेमचंद स्वाधीनता आंदोलन के दौरान किसानों के सवाल, उनके संगठन की ताकत को अपने उपन्यास के केंद्र में रख रहे थे, जो आजादी के बाद भी हिंदी के रचनाकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत रहा. हिंदी के कई रचनाकार प्रेमचंद की परंपरा से जुड़े रहे.
प्रसंगवश, कवि नागार्जुन को प्रेमचंद की परंपरा का उपन्यासकार कहा जाता है. गोदान के प्रकाशन के बाद हिंदी उपन्यास की धारा ग्राम-जीवन से विमुख होकर शहर और अंतर्मन के गुह्य गह्वर में चक्कर काटने लगी थी. नागार्जुन अपने पहले उपन्यास रतिनाथ की चाची (1948) के द्वारा भारतीय ग्रामीण-जीवन के सच को फिर से पकड़ते हैं. नागार्जुन के उपन्यास 'बलचनमा', 'बाबा बटेसरनाथ' और फणीश्वरनाथ रेणु के 'मैला आँचल' जैसे उपन्यास के प्रकाशन से प्रेमचंद की परंपरा पुष्ट हुई. यह परंपरा समाज और राजनीति को किसानों की दृष्टि से देखने की है.
जाहिर है प्रेमचंद और उनके बाद के रचनाकारों की चेतना में फर्क नजर आता है, जो समय और स्थान के अंतर के कारण स्पष्ट है. पर उनकी चिंता किसानों की स्वाधीनता की ही है. स्वाधीनता के लिए संघर्ष की चेतना नागार्जुन, रेणु जैसे रचनाकारों के यहाँ सबसे तीव्र है. हालांकि यहाँ प्रेमचंद की तुलना में अधिक स्थानीयता है. जहाँ प्रेमचंद उत्तर-प्रदेश के अवध-बनारस क्षेत्र के किसानों की कथा के माध्यम से किसानों के संघर्ष की चेतना को अभिव्यक्त किया है वहीं नागार्जुन और रेणु के यहाँ मिथिलांचल के किसानों, खेतिहर मजदूरों की कथा है. यहाँ लोक जीवन और लोक चेतना ज्यादा मुखर है.
आज भी देश की जनसंख्या का करीब साठ प्रतिशत आबादी आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर हैं. किसानों की समस्या भूमंडलीकरण के बाद उदारीकरण और बाजारवादी व्यवस्था से बिगड़ी है. ऐसे में हमारे समय में ‘प्रेमाश्रम’ एक नया अर्थ लेकर प्रस्तुत होता है. सौ साल के बाद भी इस उपन्यास की प्रासंगिकता बनी हुई है.
(नेटवर्क 18 हिंदी के लिए)
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