हिंदी की ‘कल्ट क्लासिक’ फिल्म ‘जाने भी दो यारो’ का यह चालीसवां साल है. हिंदी सिनेमा के इतिहास में हास्य को लेकर अनेक फिल्में बनी, पर ‘जाने भी दो यारो’ जैसी कोई नहीं. हाल ही में समांतर सिनेमा के प्रमुख फिल्मकार, लेखक सईद मिर्जा ने एक किताब लिखी है- ‘आई नो द साइकोलॉजी ऑफ रैट्स’, जिसके केंद्र में कुंदन शाह (1947-2017) हैं. नचिकेत पटवर्धन के खूबसूरत रेखांकन से सजी यह किताब असल में सईद-कुंदन की यारी की दास्तान है, जो स्मृतियों के सहारे लिखी गई है. इसके संग हमारा समय और समाज भी चला आता है.
इस किताब को पढ़ते हुए सबसे ज्यादा ‘जाने भी दो यारो’ फिल्म की याद आती है. संक्षेप में, ‘जाने भी दो यारो’ फिल्म दो संघर्षशील, ईमानदार फोटोग्राफर विनोद और सुधीर की कहानी है, जो एक बिल्डर के भ्रष्टाचार को पर्दाफाश करते हैं. 'हम होंगे कामयाब' के विश्वास के साथ जैसे-जैसे वे आगे बढ़ते हैं, हम एक ऐसा समाज देखते हैं जिसमें सब कुछ काला है. हास्य-व्यंग्य को आधार बनाते हुए यह फिल्म निर्ममता से सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था को उधेड़ती है. चुटीले संवाद से जिस तरह यह दर्शकों का मनोरंजन करती है वह इसे 'समकालीन' बनाता है. यह फिल्म न तो पापुलर सिनेमा का रास्ता अख्तियार करती है न हीं समांतर सिनेमा की तरह नीरस ही है. सिनेमा निर्माण को लेकर जो प्रयोग यहाँ है, जो नवीनता है उसे खुद कुंदन आगे जारी नहीं रख पाए. उन्होंने जो टीवी सीरियल निर्देशित किया (ये जो है जिंदगी, नुक्कड़, वागले की दुनिया) हालांकि उसकी याद लोगों को अब भी है.
फिल्म के आखिर में महाभारत का प्रसंग आज भी गुदगुदाता है, लेकिन कुछ समय बाद दृष्टिहीन ‘घृतराष्ट्र’ के इस सवाल से हम नज़र नहीं चुरा पाते कि-‘ये क्या हो रहा है’. इस फिल्म में कई ऐसे प्रसंग है जिसका कोई 'लॉजिक' नहीं है, एबसर्ड है. महाभारत का प्रसंग भी ऐसा ही है. हमारा समय भी तो ऐसा ही है, जिसमें कई चीजें बिना लॉजिक के चलती जा रही हैं और हम उसे चुपचाप देखते रहते हैं. हमें पता ही नहीं चलता है कि हंसना है या रोना!
इस किताब में पिछले पचास साल के महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक घटनाक्रम पर तल्ख टीका-टिप्पणी भी है, जो ज्यादातर संवाद के जरिए आया है. एक शोक गीत की तरह यह किताब दरपेश है. क्या ‘जाने भी दो यारो' फिल्म भी एक शोक गीत नहीं है?
इस किताब से गुजरते हुए हम कुंदन के मानसिक बनावट, उनकी वैचारिक दृष्टि से परिचित होते हैं. सत्तर के दशक के उथल-पुथल से भरे समय में एफटीआईआई कैंपस का विवरण काफी रोचक है. कैंपस का बोधिवृक्ष (विजडम ट्री) इसका गवाह रहा है.
वर्ष 1982 में कुंदन ने एफटीआईआई और एनएसडी के कलाकारों के संग मिलकर बेहद कम बजट (एनएफडीसी के सहयोग से) सात लाख रुपए में यह फिल्म बनाई थी. नसीरूद्दीन शाह, ओम पुरी, पंकज कपूर, भक्ति बर्वे, नीना गुप्ता, रवि बासवानी, सतीश कौशिक, सतीश शाह जैसे मंजे कलाकार एक साथ कम ही फिल्म में दिखे हैं. साथ ही परदे के पीछे रंजीत कपूर, पवन मल्होत्रा, सुधीर मिश्रा, विनोद चोपड़ा (उनकी फिल्म में भी छोटी भूमिका थी), रेणु सलूजा (संपादक) की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं थी. यह फिल्म एक बेहतरीन ‘टीम वर्क’ और काम के प्रति लगन, समर्पण की भी मिसाल है. असल में, यारों की यारी ने ‘जाने भी दो यारो’ को 'कल्ट क्लासिक' बनाया है.
सईद और कुंदन के दोस्ती की पटकथा एफटीआईआई, पुणे (1973-76) में लिखी गई थी, जहाँ वे वर्ष 1973 में मिले और दोनों की पार्टनरशिप ताउम्र रही. अपने जीवन में कुंदन ने काफी उतार-चढ़ाव देखी थी. फिल्म निर्देशन का प्रशिक्षण लेने के बाद इंग्लैंड में वे क्लर्क की नौकरी करने लगे थे, फिर कुछ साल बाद जब लौटे तब उन्होंने सईद के साथ सहायक निर्देशक के रूप में काम शुरु किया. सईद एक सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आए थे और अपने मार्क्सवादी विचारों को लेकर काफी मुखर थे. उसके विपरीत एक साधारण गुजराती बनिया परिवार की पृष्ठभूमि से आने वाले कुंदन के लिए वैचारिक यात्रा आसान नहीं थी. उनके व्यक्तित्व और वैचारिक दृष्टि के विकास में एफटीआईआई कैंपस ने अहम भूमिका अदा की.
इस किताब में कुंदन एक मेहनती, सहज, संवेदनशील इंसान और फिल्मकार के रूप में सामने आते हैं जिन्हें वर्चस्ववादी और सांप्रदायिक राजनीति गहरे मथती थी.
किताब में सईद एक प्रसंग का जिक्र करते हैं कि कोर्स के दूसरे वर्ष में चर्चित फिल्मकार ऋत्विक घटक संस्थान आए थे और उन्हें (एक क्लास) पढ़ाया था. ऋत्विक घटक समांतर सिनेमा के पुरोधा मणि कौल, कुमार शहानी, जॉन अब्राहम के गुरु थे, लेकिन सईद-कुंदन ने जब संस्थान में जब दाखिला लिया, तब ऋत्विक जा चुके थे.
बहरहाल, सईद लिखते हैं कि कुंदन ने क्लास के दौरान घटक से पूछा था कि ‘कैसे कोई अच्छा निर्देशक बनता है?' उन्होंने सिनेमा पर टेक्सट बुक पढ़ने, तकनीक दक्षता हासिल करने को कहा. साथ ही उन्होंने जोड़ा था कि ‘एक अच्छा निर्देशक एक पॉकेट में अपने बचपने को और दूसरे में शराब की बोतल लेकर चलता है’. फिर घटक ने कुंदन से पूछा कि मेरी बात समझ आई? जिस पर कुंदन ने कहा था- यस, सर. अपने पर विश्वास रखो और सहज ज्ञान (इंट्यूशन) को न छोड़ो’. सईद जोड़ते हैं कि ‘कुंदन ने बस वही किया!’
किताब का शीर्षक कुंदन शाह की एक बतकही से उधार लिया गया है. पर इसके क्या अर्थ? असल में, एक सिद्ध रचनाकार ही एक उदास गिरगिट से बात कर सकता है, एक चूहे के मनोविज्ञान को समझ सकता है.
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