हिंदी सिनेमा के सौ वर्षों के इतिहास में रंगकर्म से जुड़े कलाकारों, निर्देशकों और सहायकों की फिल्मों में आवाजाही शुरु से ही रही है. शुरुआती दौर में सिनेमा पर पारसी रंगमंच का काफी प्रभाव दिखता है. असल में, सिनेमा के ‘स्टार’ तत्व की केंद्रीयता इतनी हावी रही है कि रंगकर्म से जुड़े रहे कुशल अभिनेता अपनी सारी प्रतिभा के बावजूद हाशिए पर रहे. कुछ अपवाद हो सकते हैं. हाल के दशक में ओटीटी प्लेटफॉर्म के उभार, दर्शकों की मसाला फिल्मों से इतर रुचि और सामग्री की विविधता से एक उम्मीद जरूर बंधी है.
जहाँ नाट्य आंदोलनों में इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) की भूमिका को रेखांकित किया जाता रहा है, वही हिंदी सिनेमा में इप्टा या अन्य नाट्य संगठनों से जुड़े रहे रंगकर्मियों के योगदान की चर्चा कम होती है. बहरहाल, नाटकों के अतिरिक्त वर्ष 1946 में ‘धरती के लाल’ (के ए अब्बास) और ‘नीचा नगर’ (चेतन आनंद) फिल्म के निर्माण में इप्टा की महत्वपूर्ण भूमिका थी. दोनों ही फिल्मों से इप्टा के कई सदस्य जुड़े थे. भारतीय सिनेमा में इन फिल्मों ने एक ऐसी नव-यथार्थवादी धारा की शुरुआत की जिसकी धमक बाद के दशक में देश-दुनिया में सुनी गई. पिछली सदी के 70-80 के दशक में समांतर सिनेमा, मसलन श्याम बेनेगल की फिल्में, इस बात की पुष्टि करते हैं, जिसमें रंगमंच के कलाकारों का काफी योगदान रहा. प्रसंगवश, महान फिल्मकार ऋत्विक घटक और मृणाल सेन की पृष्ठभूमि भी थिएटर (इप्टा) की ही थी.
आधुनिक हिंदी थिएटर से जुड़े लोगों की उम्मीदें सिनेमा (बॉलीवुड) से ज्यादा रही है, थिएटर से कम. सिनेमा एक ऐसा जनमाध्यम है जिसकी पहुँच एक विशाल दर्शक वर्ग तक है. आधुनिक समय में यह मनोरंजन का सबसे प्रभावशाली माध्यम भी है, जो नाटक की तरह ही कला के अमूमन सभी शिल्पों को खुद में समेटे हुए है. है. सूजन सोंटेग ने अपने चर्चित निबंध ‘फिल्म एंड थिएटर’ में लिखा है, ‘सिनेमा एक वस्तु है (यहाँ तक कि एक उत्पाद) वहीं थिएटर एक प्रस्तुति है.’ हालांकि दोनों ही हमारी चेतना और अनुभव से संबद्ध हैं. जाहिर है भिन्नता के बावजूद दोनों कला माध्यमों की अपनी विशिष्टता है. बेशक सिनेमा तकनीक आधारित कला है, जिसमें कैमरा और संपादन की बड़ी भूमिका रहती है, लेकिन अभिनेता-निर्देशक एक ऐसी कड़ी हैं जो दोनों विधाओं को आपस में जोड़ के रखता आया है.
अस्सी के दशक में जब समांतर सिनेमा का आंदोलन थम गया और नब्बे के दशक में भूमंडलीकरण, उदारीकरण की बयार बही हिंदी सिनेमा में व्यावसायिक और समांतर की रेखा धुंधली हुई है. विशाल भारद्वाज, अनुराग कश्यप, इम्तियाज अली जैसे सिनेमा निर्देशकों की फिल्मों में इसकी झलक मिलती है. साथ ही प्रशिक्षित अभिनेताओं की नई खेप भी मुंबई पहुँची. इन सबकी पृष्ठभूमि थिएटर जगत की रही है. अपवादों को छोड़ दिया जाए तो रंगकर्म से फिल्मी दुनिया की ओर बढ़े लोगों के मन में ‘दिल्ली या उज्जैन’ की दुविधा नहीं रहती. वे मुंबई के ही होकर रह जाते हैं. रंगकर्म से जुड़े एक मित्र कहते हैं कि मुंबई पहुँच कर रंगमंच पर वापस कौन लौटता है!
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