Friday, November 06, 2009
ठाठ कबीरा
Friday, September 18, 2009
हिंदी के पंडित फ़ादर कामिल बुल्के
'अंग्रेजी हिंदी कोश' के लेखक, हिंदी के विद्वान और समाजसेवी फ़ादर कामिल बुल्के की जन्म शताब्दी इस वर्ष मनाई जा रही है.
फ़ादर कामिल बुल्के एक ऐसे विद्वान थे जो भारतीय संस्कृति और हिंदी से जीवन भर प्यार करते रहे, एक विदेशी होकर नहीं बल्कि एक भारतीय होकर.
बेल्जियम में जन्मे बुल्के की कर्मस्थली झारखंड की राजधानी राँची में उनके कृतित्व और व्यक्तित्व को लेकर इस हफ़्ते विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन कर हिंदी के इस साधक को याद किया गया.
रॉंची स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज में बुल्के ने वर्षों तक हिंदी का अध्यापन किया.
सेंट जेवियर्स कॉलेज के हिंदी विभाग के अध्यक्ष और बुल्के के शिष्य रहे डॉक्टर कमल कुमार बोस कहते हैं, "राज्य में पूरे वर्ष बुल्के जन्म शताब्दी समारोह मनाई जाएगी. उनके साहित्य और विचारों का प्रसार किया जाएगा. हमने उनके नाम पर कॉलेज में एक पीठ की स्थापना का निर्णय लिया है."
रामकथा के महत्व को लेकर बुल्के ने वर्षों शोध किया और देश-विदेश में रामकथा के प्रसार पर प्रामाणिक तथ्य जुटाए. उन्होंने पूरी दुनिया में रामायण के क़रीब 300 रूपों की पहचान की.
रामकथा पर विधिवत पहला शोध कार्य बुल्के ने ही किया है जो अपने आप में हिंदी शोध के क्षेत्र में एक मानक है.
हिंदी प्रेम
दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफ़ेसर नित्यानंद तिवारी कहते हैं, "फ़ादर कामिल बुल्के और मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक डॉक्टर माता प्रसाद गुप्त के निर्देशन में अपना शोध कार्य पूरा किया था. मैंने उनमें हिंदी के प्रति हिंदी वालों से कहीं ज्यादा गहरा प्रेम देखा. ऐसा प्रेम जो भारतीय जड़ों से जुड़ कर ही संभव है. उन्होंने रामकथा और रामचरित मानस को बौद्धिक जीवन दिया."
बुल्के ने हिंदी प्रेम के कारण अपनी पीएचडी थीसिस हिंदी में ही लिखी.
जिस समय वे इलाहाबाद में शोध कर रहे थे उस समय देश में सभी विषयों की थीसिस अंग्रेजी में ही लिखी जाती थी. उन्होंने जब हिंदी में थीसिस लिखने की अनुमति माँगी तो विश्वविद्यालय ने अपने शोध संबंधी नियमों में बदलाव लाकर उनकी बात मान ली. उसके बाद देश के अन्य हिस्सों में भी हिंदी में थीसिस लिखी जाने लगी.
उन्होंने एक जगह लिखा है, "मातृभाषा प्रेम का संस्कार लेकर मैं वर्ष 1935 में रॉंची पहुँचा और मुझे यह देखकर दुख हुआ कि भारत में न केवल अंग्रेजों का राज है बल्कि अंग्रेजी का भी बोलबाला है. मेरे देश की भाँति उत्तर भारत का मध्यवर्ग भी अपनी मातृभाषा की अपेक्षा एक विदेशी भाषा को अधिक महत्व देता है. इसके प्रतिक्रिया स्वरूप मैंने हिंदी पंडित बनने का निश्चय किया."
विदेशी मूल के ऐसे कई अध्येता हुए हैं जिन्हें इंडोलॉजिस्ट या भारतीय विद्याविद् कहा जाता है. उन्होंने भारतीय भाषा, समाज और संस्कृति को अपने नजरिए से देखा-परखा. लेकिन इन विद्वानों की दृष्टि ज्यादातर औपनिवेशिक रही है और इस वजह से कई बार वे ईमानदारी से भारतीय भाषा, समाज और संस्कृति का अध्ययन करने में चूक गए.
बुल्के ने भारतीय साहित्य और संस्कृति को उसकी संपूर्णता में देखा और विश्लेषित किया.
जीवन यात्रा
फ़ादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के फलैण्डर्स प्रांत के रम्सकपैले नामक गाँव में एक सितंबर 1909 को हुआ.
लूवेन विश्वविद्यालय के इंजीनियरिंग कॉलेज में बुल्के ने वर्ष 1928 में दाखिला लिया. इंजीनियरिंग की पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने संन्यासी बनने की ठानी.
इंजीनियरिंग की दो वर्ष की पढ़ाई पूरी कर वे वर्ष 1930 में गेन्त के नजदीक ड्रॉदंग्न नगर के जेसुइट धर्मसंघ में दाखिल हो गए. जहाँ दो वर्ष रहने के बाद आगे की धर्म शिक्षा के लिए हॉलैंड के वाल्केनबर्ग के जेसुइट केंद्र में भेज दिए गए. यहाँ रहकर उन्होंने लैटिन, जर्मन और ग्रीक आदि भाषाओं के साथ-साथ ईसाई धर्म और दर्शन का गहरा अध्ययन किया.
वाल्केनबर्ग से वर्ष 1934 में जब बुल्के लूवेन की सेमिनरी में वापस लौटे तब उन्होंने देश में रहकर धर्म सेवा करने के बजाय भारत जाने की अपनी इच्छा जताई.
वर्ष 1935 में वे भारत पहुँचे जहाँ पर उनकी जीवनयात्रा का एक नया दौर शुरू हुआ. शुरूआत में उन्होंने दार्जिलिंग के संत जोसेफ कॉलेज और गुमला के एक मिशनरी स्कूल में विज्ञान विषय के शिक्षक के रूप में काम करना शुरू किया.
लेकिन कुछ ही दिनों में उन्होंने महसूस किया कि जैसे बेल्जियम में मातृभाषा फ्लेमिश की उपेक्षा और फ्रेंच का वर्चस्व था, वैसी ही स्थिति भारत में थी जहाँ हिंदी की उपेक्षा और अंग्रेजी का वर्चस्व था.
वर्ष 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने हिंदी साहित्य में एमए किया और फिर वहीं से 1949 में रामकथा के विकास विषय पर पीएचडी किया जो बाद में ‘रामकथा: उत्पत्ति और विकास’ किताब के रूप में चर्चित हुई.
राँची स्थित सेंट जेवियर्स कॉलेज के हिंदी विभाग में वर्ष 1950 में उनकी नियुक्ति विभागाध्यक्ष पद पर हुई. इसी वर्ष उन्होंने भारत की नागरिकता ली.
वर्ष 1968 में अंग्रेजी हिंदी कोश प्रकाशित हुआ जो अब तक प्रकाशित कोशों में सबसे ज्यादा प्रामाणिक माना जाता है. मॉरिस मेटरलिंक के प्रसिद्ध नाटक 'द ब्लू बर्ड' का नील पंछी नाम से बुल्के ने अनुवाद किया. इसके अलावे उन्होंने बाइबिल का हिंदी में अनुवाद किया.
छोटी-बड़ी कुल मिलाकर उन्होंने क़रीब 29 किताबें लिखी.
भारत सरकार ने 1974 में उन्हें पद्मभूषण दिया.
दिल्ली में 17 अगस्त 1982 को गैंग्रीन की वजह से उनकी मौत हुई.
(बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए, 7 सितंबर 2009)
Monday, July 27, 2009
'थीसिस लिख रहे हो क्या'
दस-ग्यारह साल का रहा होऊँगा… माँ खाना खाने के लिए ओसारे से आवाज़ लगाती और मैं कहता कि होम वर्क पूरा करके खाऊँगा. “जल्दी करो, थीसिस लिख रहे हो क्या?” माँ कहा करती थी.
ग्रेजुएशन के ठीक दस साल बाद जब पीएचडी थीसिस की लिखाई पूरी कर रहा हूँ माँ की कही ये बात पिछले कई दिनों से बरबस याद आ रही है. पिछले कुछ महीनों से रोज़ माँ फ़ोन पर पूछती है कि घर कब आओगे. क़रीब 15 वर्षों से घर से दूर हूँ लेकिन पहली बार ऐसा हुआ कि डेढ़ साल से उनसे मिल नहीं पाया हूँ...
पापा कहते थे कि ‘स्कॉलर बनो’. मिथिला के उस कूपमंडूक समाज में पता नहीं उनके दिमाग़ में यह बात कैसे आई. मैथिलों ने ‘पोथी-पतरा-पाग’ में से पोथी को बोझ समझ कर बहुत पहले ही त्याग दिया लेकिन पतरा और पाग से वे चिपके रहे. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, “पंडिताई भी एक बोझ है-जितनी ही भारी होती है उतनी ही तेजी से डुबाती भी है. जब वह जीवन का अंग बन जाती है तो सहज हो जाती है।” पर क्या जीवन में सहजता आसानी से मिल पाती है. शायद शोध आत्मपरिष्कार का भी एक माध्यम है.
लेकिन इस शोध का, इस ‘अनामदास के पोथे’ का मोल क्या है? जब मैं अपने इस शोध का निष्कर्ष लिख रहा हूँ, लैपटॉप पर मेरी अंगुलियाँ बार-बार रुक जा रही है...कुछ काम का लिखा भी या सिर्फ़ कागद ही कारे किए..
मेरे शोध निर्देशक प्रोफेसर वीर भारत तलवार एक ख़्यात शोध अध्येता (रिसर्च स्कॉलर) हैं. वे कहा करते हैं कि ‘शोध वही कर सकता है जो शोध किए बिना नहीं रह सकता है।’
पता नहीं आज के दौर में इस जुनून के क्या मानी है? तथ्य और सत्य की खोज क्या आप अपने समय और समाज के यथार्थ से बेख़बर होकर कर सकते हैं? बाहर बाज़ार में तो हाय-तौबा मची है. शार्ट कट के रास्ते सब कुछ संभव है, शोध नहीं. ऐसा नहीं कि हिंदी समाज के पास सांस्कृतिक पूँजी का अभाव है, फिर शोध के प्रति यह उदासीनता क्यों?
(चित्र में, माँ के साथ शोधार्थी)