वसंत आ गया है. दरख़्तों ने यहाँ पर हरियाली ओढ़ ली है. चिड़ियों की गूफ़्तगू हर तरफ़ सुनाई दे रही है. मेरे आँगन में टलहती, गोरैया सी दिखती, उस चिड़िया का क्या नाम है ?
आस-पड़ोस में, घरों के सामने लाल-पीले ट्यूलिप खिले हुए हैं. हल्की सी ठंड है, वासंती हवा की मादकता लिए हुए. लेकिन मेरे मन में कोई उत्कंठा नहीं है. पिछले कुछ दिनों से उदास हूँ. मन बहुत खिन्न है. कई बातें, कई यादें मन में उमड-घुमड़ रही है.
भाई-बहनों में सबसे छोटा हूँ, लेकिन नवआंगंतुकों को नाम देने की जिम्मेदारी सबने मेरे ऊपर डाल रखी है.
चौदह साल का था जब घर में चचेरी बहन आई. शिप्रा, क्षिप्रा नदी के नाम पर उसका नाम रखा...नदी की तरह बहेगी, सोचा.
फिर भाई-बहनों के घरों में परियों ने जन्म लिया. नाम रखा..अभिधा, लिपि...नव्या.
अपनी बेटी के लिए भी मैंने एक नाम सोच रखा है…
निरुपमा ने क्या नाम सोचा होगा अपनी बेटी के लिए?
बचपन में माँ विद्यापति के लिखे गीत गाती थी...कोन तप चुकलहुं भेलहुं जननी गे.. (तपस्या में कौन सी चूक हो गई विधाता, जो स्त्री होके जन्म लेना पड़ा).
माँ, स्त्रीत्व एक उत्सव है यहाँ…
निरुपमा को मैं नहीं जानता था. लेकिन प्रेम में पड़ी उस स्त्री से अपना नाता था...निरुपमा मैं बहुत उदास हूँ.
(चित्र में निरुपमा पाठक, युवा पत्रकार जिसकी पिछले दिनों कथित तौर पर परिजनों ने हत्या कर दी, क्योंकि वह एक विजातीय लड़के से प्रेम कर रही थी और उसके गर्भ में एक बच्चा पल रहा था)