उत्तरी बिहार के दरभंगा, मधुबनी और सीतामढ़ी जिले की महिलाएँ मिथिला पेंटिग के साथ-साथ वर्षों से सिक्की कला से जुड़ी रही है. जहाँ मिथिला पेंटिंग को देश-विदेश में प्रतिष्ठा और सम्मान मिला वहीं यह कला शुरु से ही संरक्षण और सहयोग के अभाव से जूझती रही है.
इस कला में एक तरफ मिथिला की ग्रामीण महिलाओँ की रचनात्मक ऊर्जा और लोक चेतना की झलक मिलती है वहीं ये उनके लिए मनोरंजन और समय के सदुपयोग का एक जरिया भी है. सदियों से एक परंपरा के रुप में यह कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फलती-फूलती रही. रंग-बिरंगी सिक्की को टकुआ से गूंदती, मौनी-पौती बनाती दादी-नानी की एकाग्र आँखें अब भी लोगों के जेहन में है. पर दो दशकों में मिथिलांचल के गाँवों से भारी मात्रा में लोगों के पलायन और अपनी जड़ और जमीन से उखड़ने की वजह से यह कला दम तोड़ रही है. पहले मिथिला के हर गाँव में ‘सिक्की आर्ट’ विस्तार पाती थी, लेकिन अब यह महज कुछ गाँवों में सिमट कर रह गई है. वर्तमान में रैयाम, उमरी बलिया, सरिसबपाही, सुरसंड, यदुपट्टी और करुणा-मल्लाह जैसे कुछ गाँव इस कला के केंद्र हैं. हालांकि हाल के कुछ वर्षों में सिक्की कला को एक व्यवसायिक आधार मिला है जिससे इससे जुड़ी महिलाओं की आर्थिक स्थिति में भी सुधार आया है.
मधुबनी जिले के बेलारही गाँव की 92 वर्षीया जानकी देवी वर्षों तक इस कला से जुड़ी रही. वृद्धावस्था के कारण अब वह इस कला को नहीं साधती पर जैसे ही मैंने उनसे सिक्की कला का जिक्र छेड़ा वो मुस्कुरा दी और बोली, “कैसे आपको इसकी याद आई. अब तो कोई याद नहीं करता.” वे कहती हैं कि उन्होंने इसे खेलते-कूदते बचपन में अपनी चाची से सीखा था पर अब युवतियों में इसके प्रति कोई आकर्षण नहीं दिखता.
जहाँ बारिश की प्रचुरता हो सिक्की की उपज वहाँ ज्यादा होती है. विशेष रुप से नदी, तालाबों के कछार पर दलदल जमीन में इसकी पैदावार होती है. मिथिलांचल नदी और तालाबों के लिए विख्यात है और यहाँ सिक्की प्रचुर मात्रा में मिलती रही है, फलत: सिक्की कला विशेष रूप से उत्तरी बिहार की उपज है! जो इसे देश के अन्य भागों में बांस, सरकंडा, मूंज या खर से बनाई जाने वाली कलाकृतियों से विशिष्ट बनाता है.
सिक्की कलाकार सुनहरे रंग की सिक्की को पहले विभिन्न रंगों से रंगते हैं फिर टकुआ (पाँच-छह इंच लंबी लोहे की मोटी सुई जिसके पेंदी में चौड़ा बेंट लगा रहता है, ताकि पकड़ने में सुविधा हो) और कैची की सहायता से वे तरह तरह की आकृतियाँ बनाते हैं. मिथिला पेंटिंग में जिन विषयों का इस्तेमाल होता है अमूमन उसे ही कलाकार सिक्की आर्ट में भी उकेरते रहे हैं. मसलन, मछली, सूर्य, कदंब,आम का पेड़, आँख, गुलदान, दुर्गा, शिव, नाग-नागिन, कछुआ आदि. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मिथिला पेंटिंग की तरह ही इसके विषय-वस्तु में भी विस्तार आया है. अब वे इसे बाजार की माँग के मुताबिक भी तैयार करने लगे हैं.
इस कला की विशिष्टता यह है कि जहाँ एक ओर इसे घर-दीवारों की सजावट के रुप में काम में लिया जाता है, वहीं इसका इस्तेमाल, ड्राइ फ्रूटस, मसाले, गहने, फूल-पत्ती आदि रखने के काम में लिया जाता रहा है.
60-70 के दशक में इस कला को मधुबनी ज़िले में रैयाम गाँव की विंदेश्वरी देवी और सीतामढ़ी जिले के सुरसंड की कुमुदनी देवी जैसी प्रतिभा मिली जिन्होंने इसे राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया. दोनों ही कलाकारों को राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया था. इन्हीं दशकों में गंगा देवी और सीता देवी भी मिथिला पेंटिंग को बुलंदी पर पहुँचा रही थी.
विंदेश्वरी देवी के भाई रामानंद ठाकुर बताते हैं कि कला के पारखी और कलाविद उपेंद्र महारथी ने विंदेश्वरी देवी को पटना स्थित ‘शिल्प अनुसंधान संस्थान’ से जोड़ा था और उनकी बनाई आदमकद शंकर की मूर्ति की काफी चर्चा हुई थी. रामानंद ठाकुर बताते हैं “1969 में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के हाथों विंदेश्वरी देवी को पुरस्कार दिया गया था, लेकिन उसके बाद सरकार ने कोई सुध नहीं ली.” उन्होंने बताया कि विंदेश्वरी देवी ने इस कला को लेकर जर्मनी और अमेरीका की भी यात्रा की थी. विंदेश्वरी देवी के परिवार की महिलाएँ और इस गाँव की अन्य 25-30 महिलाएँ अब भी सिक्की कला से जुड़ी हुई है. पिछले पाँच सालों से गरीबों और ग्रामीण महिलाओं के उत्थान के लिए बिहार सरकार की पहल ‘जीविका’ ने इस गाँव की महिला कलाकारों में एक नई ऊर्जा भरा है. रैयाम की सुधा देवी बताती हैं, “15-20 वर्ष पहले लगने लगा था कि यह कला अब समाप्त हो जाएगी, लेकिन फिर से जीविका ने हमें एक आशा दी है.” वो बताती हैं “जीविका ने हमें एक बड़ा बाजार मुहैया कराया है और साथ ही हमें नए डिजाइन भी इनसे मिलता है जिससे हम इस कला में रुप में तरह तरह के प्रयोग कर रहे हैं.” इस गाँव के कलाकार दिल्ली, कोलकाता, चैन्नई, गोवा आदि शहरों में होने वाली विभिन्न प्रदर्शनियों में अपनी कला लेकर जाते रहे हैं.
मिथिला में शादी-विवाह के अवसर पर और लड़कियों के ‘द्विरागमन (गौना)’के समय दहेज के रुप में सिक्की से बनी कलाकृतियों को भेजने का पुराना रिवाज है जो आज भी कायम है. हालांकि कलाकारों का कहना है कि इस कला में जितनी रुचि इस क्षेत्र के बाहर, देश-विदेश के लोगों की है उतनी स्थानीय स्तर पर नहीं. स्थानीय स्तर पर इस कला का कोई बाजार अभी तक विकसित नहीं हो पाया है.
पिछले दिनों बिहार के 100 साल पूरे होने पर दिल्ली हाट में एक प्रदर्शनी लगाई गई थी जिसमें बिहार के विभिन्न कला रुपों की झांकी थी. प्रदर्शनी में जहाँ मिथिला पेंटिंग के कई स्टॉल थे वहीं सिक्की कला का कोई नामलेवा नहीं था.
कुमुदनी देवी के पुत्र और मिथिला कलाकार चक्रधर लाल कहते हैं, “जितना समय इस कला को साधने में लगता है उतना मेहनताना नहीं मिलता. इसलिए अब लोगों की रुचि इसमें नहीं रही है. इतने ही समय में मिथिला पेंटिंग बनाने पर ठीक ठाक कमाई हो जाती है.” चक्रधर लाल कहते हैं कि इस कला को व्यवसायिक रुप से बाजार मुहैया कराने की जरुरत थी और कलाकारों को संरक्षण दिया जाना चाहिए था पर सरकार ने गैर सरकारी संस्थानों के भरोसे सब कुछ छोड़ रखा है. उनकी चिंता कलाकारों की कम और खुद के हित साधने की ज्यादा है.
E book: Link http://pothi.com/pothi/book/ebook-arvind-das-gardish-mein-ek-chitra-shaili
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(जनसत्ता, रविवारी में 29 जुलाई 2012 को प्रकाशित)