Sunday, July 29, 2012

दम तोड़ती सिक्की कला


उत्तरी बिहार के दरभंगा, मधुबनी और सीतामढ़ी जिले की महिलाएँ मिथिला पेंटिग के साथ-साथ वर्षों से सिक्की कला से जुड़ी रही है. जहाँ मिथिला पेंटिंग को देश-विदेश में प्रतिष्ठा और सम्मान मिला वहीं यह कला शुरु से ही संरक्षण और सहयोग के अभाव से जूझती रही है.

इस कला में एक तरफ मिथिला की ग्रामीण महिलाओँ की रचनात्मक ऊर्जा और लोक चेतना की झलक मिलती है वहीं ये उनके लिए मनोरंजन और समय के सदुपयोग का एक जरिया भी है. सदियों से एक परंपरा के रुप में यह कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फलती-फूलती रही. रंग-बिरंगी सिक्की को टकुआ से गूंदती, मौनी-पौती बनाती दादी-नानी की एकाग्र आँखें अब भी लोगों के जेहन में है. पर दो दशकों में मिथिलांचल के गाँवों से भारी मात्रा में लोगों के पलायन और अपनी जड़ और जमीन से उखड़ने की वजह से यह कला दम तोड़ रही है. पहले मिथिला के हर गाँव में सिक्की आर्ट विस्तार पाती थी, लेकिन अब यह महज कुछ गाँवों में सिमट कर रह गई है. वर्तमान में रैयाम, उमरी बलिया, सरिसबपाही, सुरसंड, यदुपट्टी और करुणा-मल्लाह जैसे कुछ गाँव इस कला के केंद्र हैं. हालांकि हाल के कुछ वर्षों में सिक्की कला को एक व्यवसायिक आधार मिला है जिससे इससे जुड़ी महिलाओं की आर्थिक स्थिति में भी सुधार आया है.

मधुबनी जिले के बेलारही गाँव की 92 वर्षीया जानकी देवी वर्षों तक इस कला से जुड़ी रही. वृद्धावस्था के कारण अब वह इस कला को नहीं साधती पर जैसे ही मैंने उनसे सिक्की कला का जिक्र छेड़ा वो मुस्कुरा दी और बोली, “कैसे आपको इसकी याद आई. अब तो कोई याद नहीं करता.” वे कहती हैं कि उन्होंने इसे खेलते-कूदते बचपन में अपनी चाची से सीखा था पर अब युवतियों में इसके प्रति कोई आकर्षण नहीं दिखता.

जहाँ बारिश की प्रचुरता हो सिक्की की उपज वहाँ ज्यादा होती है. विशेष रुप से नदीतालाबों के कछार पर दलदल जमीन में इसकी पैदावार होती है. मिथिलांचल नदी और तालाबों के लिए विख्यात है और यहाँ सिक्की प्रचुर मात्रा में मिलती रही है, फलतसिक्की कला विशेष रूप से उत्तरी बिहार की उपज है! जो इसे देश के अन्य भागों में बांस, सरकंडा, मूंज या खर से बनाई जाने वाली कलाकृतियों से विशिष्ट बनाता है.

सिक्की कलाकार सुनहरे रंग की सिक्की को पहले विभिन्न रंगों से रंगते हैं फिर टकुआ (पाँच-छह इंच लंबी लोहे की मोटी सुई जिसके पेंदी में चौड़ा बेंट लगा रहता है, ताकि पकड़ने में सुविधा हो) और कैची की सहायता से वे तरह तरह की आकृतियाँ बनाते हैं. मिथिला पेंटिंग में जिन विषयों का इस्तेमाल होता है अमूमन उसे ही कलाकार सिक्की आर्ट में भी उकेरते रहे हैं. मसलनमछलीसूर्यकदंब,आम का पेड़, आँख, गुलदान, दुर्गाशिवनाग-नागिन, कछुआ आदि. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मिथिला पेंटिंग की तरह ही इसके विषय-वस्तु में भी विस्तार आया है. अब वे इसे बाजार की माँग के मुताबिक भी तैयार करने लगे हैं.

इस कला की विशिष्टता यह है कि जहाँ एक ओर इसे घर-दीवारों की सजावट के रुप में काम में लिया जाता है, वहीं इसका इस्तेमाल, ड्राइ फ्रूटसमसाले, गहने, फूल-पत्ती आदि रखने के काम में लिया जाता रहा है.

60-70 के दशक में इस कला को मधुबनी ज़िले में रैयाम गाँव की विंदेश्वरी देवी और सीतामढ़ी जिले के सुरसंड की कुमुदनी देवी जैसी प्रतिभा मिली जिन्होंने इसे राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित किया. दोनों ही कलाकारों को राष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजा गया था. इन्हीं दशकों में गंगा देवी और सीता देवी भी मिथिला पेंटिंग को बुलंदी पर पहुँचा रही थी. 

विंदेश्वरी देवी के भाई रामानंद ठाकुर बताते हैं कि कला के पारखी और कलाविद उपेंद्र महारथी ने विंदेश्वरी देवी को पटना स्थित शिल्प अनुसंधान संस्थान से जोड़ा था और उनकी बनाई आदमकद शंकर की मूर्ति की काफी चर्चा हुई थी. रामानंद ठाकुर बताते हैं “1969 में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के हाथों विंदेश्वरी देवी को पुरस्कार दिया गया था, लेकिन उसके बाद सरकार ने कोई सुध नहीं ली. उन्होंने बताया कि विंदेश्वरी देवी ने इस कला को लेकर जर्मनी और अमेरीका की भी यात्रा की थी. विंदेश्वरी देवी के परिवार की महिलाएँ और इस गाँव की अन्य 25-30 महिलाएँ अब भी सिक्की कला से जुड़ी हुई है. पिछले पाँच सालों से गरीबों और ग्रामीण महिलाओं के उत्थान के लिए बिहार सरकार की पहल जीविका ने इस गाँव की महिला कलाकारों में एक नई ऊर्जा भरा है. रैयाम की सुधा देवी बताती हैं, “15-20 वर्ष पहले लगने लगा था कि यह कला अब समाप्त हो जाएगीलेकिन फिर से जीविका ने हमें एक आशा दी है.” वो बताती हैं जीविका ने हमें एक बड़ा बाजार मुहैया कराया है और साथ ही हमें नए डिजाइन भी इनसे मिलता है जिससे हम इस कला में रुप में तरह तरह के प्रयोग कर रहे हैं. इस गाँव के कलाकार दिल्ली, कोलकाता, चैन्नई, गोवा आदि शहरों में होने वाली विभिन्न प्रदर्शनियों में अपनी कला लेकर जाते रहे हैं.

मिथिला में शादी-विवाह के अवसर पर और लड़कियों के द्विरागमन (गौना)के समय दहेज के रुप में सिक्की से बनी कलाकृतियों को भेजने का पुराना रिवाज है जो आज भी कायम है. हालांकि कलाकारों का कहना है कि इस कला में जितनी रुचि इस क्षेत्र के बाहर, देश-विदेश के लोगों की है उतनी स्थानीय स्तर पर नहीं. स्थानीय स्तर पर इस कला का कोई बाजार अभी तक विकसित नहीं हो पाया है.

पिछले दिनों बिहार के 100 साल पूरे होने पर दिल्ली हाट में एक प्रदर्शनी लगाई गई थी जिसमें बिहार के विभिन्न कला रुपों की झांकी थी. प्रदर्शनी में जहाँ मिथिला पेंटिंग के कई स्टॉल थे वहीं सिक्की कला का कोई नामलेवा नहीं था.

कुमुदनी देवी के पुत्र और मिथिला कलाकार चक्रधर लाल कहते हैं, “जितना समय इस कला को साधने में लगता है उतना मेहनताना नहीं मिलता. इसलिए अब लोगों की रुचि इसमें नहीं रही है. इतने ही समय में मिथिला पेंटिंग बनाने पर ठीक ठाक कमाई हो जाती है.” चक्रधर लाल कहते हैं कि इस कला को व्यवसायिक रुप से बाजार मुहैया कराने की जरुरत थी और कलाकारों को संरक्षण दिया जाना चाहिए था पर सरकार ने गैर सरकारी संस्थानों के भरोसे सब कुछ छोड़ रखा है. उनकी चिंता कलाकारों की कम और खुद के हित साधने की ज्यादा है.

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(जनसत्ता, रविवारी में 29 जुलाई 2012 को प्रकाशित)

Tuesday, July 17, 2012

विचलन के दौर में विचारधारा


पिछले दिनों मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी ने जेएनयू स्थित अपनी छात्र इकाई एसएफआई को भंग कर युवा नेताओं को पार्टी से निष्कासित कर दिया. जेएनयू के छात्र रहे सीपीएम के एक युवा नेता प्रसेनजीत बोस ने राष्ट्रपति पद के यूपीए प्रत्याशी प्रणब मुखर्जी को दिए जा रहे पार्टी के समर्थन के खिलाफ खुलेआम आवाज उठाई थी और जेएनयू के छात्र नेताओं ने भी प्रसेनजीत बोस को अपना समर्थन दिया था.

जेएनयू को एक बौद्धिक और प्रगतिशील तेवर देने में एसएफआई की एक बड़ी भूमिका रही है. सीपीएम के दो कद्दावर नेता प्रकाश करात और सीताराम येचुरी ने वाम राजनीति का ककहरा यहीं सीखा था और वे छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे. गौरतलब है कि आपातकाल के दौरान कांग्रेस विरोध के ये अगुआ थे.

हाल ही में एक लेख में जेएनयू के छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में एनसीपी के नेता और राज्यसभा सांसद डीपी त्रिपाठी ने सीपीएम के खिलाफ युवा छात्र नेताओं के इस कदम को अप्रत्याशित और कॉमन सेंस से रहित कहा.  उनका कहना है कि जेएनयू के छात्र नेता समय की नब्ज नहीं पहचान रहे!

जेएनयू परिसर वामपंथी रुझानों के लिए शुरुआती दिनों से ही जाना जाता रहा है. वर्ष 1971 में जबसे जेएनयू छात्रसंघ अस्तित्व में आया कैंपस में वामपंथी पार्टियों का वर्चस्व रहा. लेकिन जहाँ 90 तक चुनाव मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी की छात्र इकाई एसएफआई और फ्री थिंकर्स के बीच मुकाबले तक सीमित रहता था, 90 के बाद एबीवीपी, एनएसयूआई और भाकपा माले की छात्र इकाई आइसा के स्वर और नारे भी कैंपस में सुनाई पड़ने लगे. राष्ट्रीय राजनीति में जो मंडल और कमंडल की अनुगूंज थी वह कैंपस तक पहुँचने लगी. इन वर्षों में दक्षिणपंथी राजनीति ने कैंपस में सिर उठाने की कोशिश की, लेकिन एक-दो अपवादों को छोड़ छात्र संघ चुनावों में दबदबा विशेष कर एसएफआई का ही रहा.

कुछ महीने पहले चार वर्षों के अंतराल पर हुए जेएनयू छात्र संघ चुनाव में ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) के प्रत्याशी चारों प्रमुख पदों पर काबिज रहे. एसएफआई की बुरी हार हुई. इससे पहले भी नवंबर 2007 में हुए चुनाव में सिंगुर और नंदीग्राम में सीपीएम की नीतियों के खिलाफ कैंपस में छात्रों ने एसएफआई को नकारा था और आइसा की जीत हुई थी. प्रेसनजीत बोस ने भी सिंगूर और नंदीग्राम में जो किसान विरोधी नीतियाँ सीपीएम ने अपनाई थी उसे लेकर पार्टी को कोसा है.

राजनीतिक नारे अपने समय की राजनीति को बयां करने में कई बार घोषणा पत्रों से ज्यादा प्रभावशाली और सटीक होते हैं. कहते हैं कि वर्ष 1992 में जेएनयू छात्रों का एक नारा था,  ‘जब लाल लाल लहराएगा तो होश ठिकाने आएगा!नव उदारवादी नीतियों की पृष्ठभूमि में यह नारा वामपंथियों के जोश और जुनून को व्यक्त करता था. लेकिन नवउदारवादी नीतियों के 20 वर्षों के बाद होने वाले इस चुनाव के दौरान और प्रेसिडेंशियल डिबेटमें एसएफआई की तरफ से ऐसा कोई नारा सुनाई नहीं पड़ा जो देश-दुनिया के सरोकारों को स्वर दे सके. बस, एक नए विहान का वादा था!

जेएनयू की छात्र राजनीति हाशिए पर रहने वालों के प्रति अपने सरोकार और सक्रियता के लिए जानी जाती रही है. लेकिन इन वर्षों में बाजार और कैरियर का दबाव वाम कार्यकर्ताओं पर भी भारी पड़ा है. पिछले वर्षों में जेएनयू के आस-पास की दुनिया भी बड़ी तेजी से बदली है. जेएनयू के ठीक पीछे वसंत कुंज में बने बड़े-बड़े मॉल और आस-पास दिल्ली में आई 'खुशहाली' से एक समय टापू माने जाने वाले यह कैंपस भी अछूता नहीं रहा है. ऐसे में आश्चर्य नहीं कि कामरेडों को कैरियर की चिंता ज्यादा और देश-दुनिया की चिंता कम ही सताती रही! कई छात्र बताते हैं कि अब तो ज्यादातर कामरेड राजनीति को अपनी बायो-डाटा में एक और उपलब्धि के रूप में जोड़ते हैं, ताकि किसी विश्वविद्यालय में या गैर सरकारी संगठनों में नौकरी मिलने में आसानी रहे. ऐसे में सत्ता के नजदीक रहने में ही ये भी अपनी भलाई समझते रहे. 

वामपंथी बुद्धिजीवी और नक्सलबाड़ी आंदोलन के दौरान सेंट स्टीफेंस कॉलेज के छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे अरविंद एन दास ने डीडी कौंसाबी के हवाले से अपने एक लेख में लिखा है कि शुरु से ही जेएनयू में ऑफिशियल मार्क्सवादी सत्ता के इशारों पर काम करते रहे...चंद्रशेखर जैसे छात्रों ने जब किसानों के बीच जाकर उग्र राजनीतिक एक्टिविज्म और अकादमिक सिद्धांतों के बीच तालमेल बनाई तब कहीं जा कर जेएनयू कुछ समय के लिए अपनी खोई जमीन को पुन: पा सका.'  कैंपस के अंदर आज भी छात्र चंद्रशेखर के जीवन और उनके जुझारू व्यक्तित्व को याद करते है. 'चंदू तुम जिंदा हो, खेतों में खलिहानों में छात्रों के अरमानों में', े नारा आइसा आज भी दोहराते नहीं थकती. चंद्रशेखर दो बार आइसा से छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए थे. वर्ष 1997 में सिवान में कथित तौर पर शहाबुद्दीन के गुंडों ने तब उनकी नृशंस हत्या कर दी थी जब वे एक राजनीतिक सभा को संबोधित कर रहे थे. एसएफआई चंद्रशेखर जैसे छात्र नेता को ढूंढने में विफल रहा है जो अकादमिक वामपंथ के सिद्धांतों और राजनीतिक पक्षधरता को मूर्त रूप दे सके. 

बाजारीकरण और विचारधाराओं के विचलन के इस दौर में ऑफिशियल लेफ्टने जो रास्ता अख्तियार किया है उसके खिलाफ जाकर एसएफआई के कामरेडो ने असल में जेएनयू के बहुसंख्यक छात्रों की आवाज उठाई है. कैंपस में खोई हुई जमीन को पुन: पाने का एसएफआई का यह एक प्रयास था, जिसे सीपीएम के अलाकमान ने मटियामेट कर दिया. जब देश के अन्य हिस्सों में सीपीएम के किले ढह रहे हैं, वाम के इस गढ़ में युवा कामरेडो के खिलाफ जाकर सीपीएम ने कितना सही कदम उठाया है यह समय के गर्भ में है.  
 (जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 24 जुलाई 2012 को प्रकाशित)