महासुंदरी देवी (1921-2013) |
पिछले साल मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग के ऊपर एक शोध के सिलसिले में मैं महासुंदरी देवी से
मिलने मधुबनी के करीब उनके गाँव रांटी गया था. पूस मास की हल्की धूप
थी. आंगन के बीचों-बीच मड़वे पर सफेद साड़ी और लाल रंग का
स्वेटर पहने वे मिथिला
कलाकारों को प्रशिक्षित करने में मशगूल थीं. वृद्धावस्था
के कारण उन्होंने पेंटिंग करना भले छोड़ दिया था, पर
आस-पड़ोस के गाँव की महिलाओं को नियमित प्रशिक्षण देना नहीं छोड़ा था. उनके
आंगन में कदम रखते ही मैथिली कवि रमण कुमार सिंह की एक कविता - 'कोहबर लिखती
औरतें', मेरे दिमाग में कौंध गई. 'यहाँ किसी
बहुराष्ट्रीय कंपनी का रंग नहीं है/ और न ही है/
किसी अंतरराष्ट्रीय चित्रकार की तूलिका/ जिसकी पेंटिंग बिकती है
ऊँची बोली पर/ बाजार में हाथों हाथ.' मिथिला पेंटिंग की बोली भले ही बाजार में ना लगे, पर आज अतंरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी प्रसिद्धि और पहुँच दोनो है. भूमंडलीकरण के इस दौर में जहाँ एक ओर अंतरराष्ट्रीयता का बोलबाला है, वहीं दूसरी तरफ स्थानीयता का आग्रह भी बढ़ा है. भूमंडलीकरण की एकरुपता की संस्कृति को लोक संस्कृति और कला से चुनौती मिल रही है. महासुंदरी देवी की एक
पोती की शादी हाल ही में हुई थी, और उनके घर की भीत पर
कोहबर, सियाराम, सूर्य, नैना-जोगिन, बाँस, मछली, अष्टदल कमल के चित्र उकेरी हुई
थी.
मिथिलांचल में शादी
के बाद वर-वधू जिस घर में चार दिन तक रहते हैं, उसे 'कोहबर' कहा जाता है. इस घर की दीवारों पर कागज या कपड़े पर मिथिला पेंटिंग बनी
होती है. मिथिला पेंटिंग को इस 'कोहबर' की
चाहरदिवारी से बाहर निकाल कर देश-दुनिया
में प्रतिष्ठित करने में महासुंदरी देवी का अप्रतिम योगदान है. गंगा देवी, सीता देवी
और जगदंबा देवी के साथ मिल कर उन्होंने इस लोक कला को
आधुनिकता के रंग में रंगा. कोहबर, पूरइन, अष्टदल कमल, बांसपर्री
के अतिरिक्त मिथिला पेंटिंग में वर्तमान में
सामाजिक ताने-बाने और राजनीतिक रंग भी
दिखाई पड़ते हैं. पिछले दिनों मधुबनी जिले में कुछ कलाकारों ने
पेड़-पौधे पर देवी-देवताओं के चित्रों को मिथिला पेंटिंग की शैली
में उकेरने की मुहिम शुरु की, ताकि पर्यावरण को बचाया जा सके. इसी तरह
इस पेंटिंग में भ्रूण हत्या और सांप्रदायिकता जैसे विषयों को भी
कलाकारों ने अपनी 'कर्ची-कलम' का आधार बनाया है. महासुंदरी देवी के भतीजे और चर्चित
चित्रकार संतोष कुमार दास सांप्रदायिकता जैसे विषय पर वर्षों से
काम कर रहे हैं. सैकड़ों साल पुराने इस कला में परंपरा और आधुनिकता का यह
समावेश इसे समकालीन भाव बोध के करीब लाता है जो इस कला के विकसनशील होने का
प्रमाण है.
एक परंपरा के रूप में कायस्थ और ब्राह्मण परिवारों में मिथिला पेंटिंग
की धारा पीढ़ी दर पीढ़ी कायम रही है. हाल के वर्षों में समाज के हाशिए
पर रहने वाले दलित समुदाय की महिलाओं का भी दखल बढ़ा है. यह नोट करना जरुरी है कि इन महिलाओं को महासुंदरी देवी और उनकी देवरानी
कर्पूरी देवी ने वर्षों प्रशिक्षित किया. मल्लाह समुदाय से ताल्लुक
रखने वाली रांटी की दुलारी देवी इसका उदाहरण हैं. हाल ही में एक आत्मकथात्मक किताब 'फॉलोइंग माइ पेंट ब्रश' में भी इसका जिक्र मिलता है. इसके आलावा, बिहार के समस्तीपुर जिले के दलित पृष्ठभूमि से आने वाली मालविका राज ने लीक से हट कर बुद्ध के जन्म से पहले से लेकर महापरिनिर्वाण तक की एक श्रृंखला बना कर मधुबनी पेंटिंग को नया विस्तार दिया है.
महासुंदरी देवी का
जन्म एक गरीब कायस्थ परिवार में हुआ था. बचपन में ही उनके माता-पिता
का देहांत हो गया और उन्हें उनकी चाची देव सुंदरी देवी ने पाला
पोसा. उनसे ही उन्होंने इस कला को सीखा था.
उन्होंने बताया कि पहली बार 1961-62 में भाष्कर
कुलकर्णी उनके ही बनाए चित्रों को मिथिला से बाहर ले गए थे. फिर
धीरे-धीरे गंगा देवी, सीता देवी
और जगदंबा देवी जैसे सिद्धहस्त कलाकारों ने भी इस
पेंटिंग पर अपनी गहरी छाप छोड़ी. इस सबों ने मिथिला कला को अमेरिका, जापान और
यूरोप के कई देशों की कलार्दीघाओं में पहुँचाया. मिथिला जैसे सामंती
समाज में, जहाँ स्त्रियों की स्वतंत्रता आज भी एक स्वप्न है, इस कला
ने आर्थिक रूप से महिलाओं को संवृद्ध किया है और घर से बाहर निकलने
की आजादी भी दी है.
वर्ष 2011
में भारत सरकार ने कला के क्षेत्र
में विशिष्ट योगदान के लिए महासुंदरी देवी को पद्मश्री से नवाजा था. जब मैंने
उनसे पूछा कि क्या इस बात का उन्हें कोई मलाल है कि उन्हें अन्य
समकालीन कलाकारों की तरह पहले पद्म पुरस्कार नहीं मिल पाया. महासुंदरी देवी
ने मुस्कुराते हुए कहा कि ‘नहीं, इससे क्या फर्क पड़ता है.'
पर उनके घर वाले जो खुद मिथिला पेंटिंग की थाती को संभालने में
वर्षों से लगे हैं इस बात को रेखांकित करना नहीं भूले की यदा-कदा सरकार इन कलाकारों की सुध लेती है और फिर
वर्षों सन्नाटा रहता है!
अरिपन और सूजनी कला में महासुंदरी
देवी को महारत हासिल थी, पर महासुंदरी देवी की चित्र-शैली
और उसमें लोक सांस्कृतिक तत्वों की समीक्षा अभी बाकी है. गंगा देवी, सीता
देवी और जगदंबा देवी का वर्षों पहले देहांत हो चुका है. महासुंदरी
देवी के निधन के बाद ऐसा लगता है कि मिथिला कला के एक युग का अंत हो
गया. मिथिला पेंटिंग के गढ़ दरभंगा-मधुबनी जिले के गाँव हैं, पर वहाँ एक
भी कलार्दीघा नहीं है. सुना है कि राज्य के नेताओं ने महासुंदरी देवी के
देहावसान पर गहरा शोक व्यक्त किया था. पर सही मायने में
जिले में एक कलादीर्घा की स्थापना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्दांजलि
होगी.
(चित्र: महासुंदरी देवी रांटी में, जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे कॉलम में 7 सितंबर 2013 को प्रकाशित)
4 comments:
अच्छा लगा पढ़कर. यहाँ और आपके इस से पहले के भी मधुबनी पेंटिंग्स पर लिखे आलेख में एक अच्छे किताब की पूरी सम्भावना साफ़ दिखती है. इंतज़ार रहेगा. यदि बदलते समय तथा बाजार के साथ मधुबनी पेंटिंग्स के बदलते आयाम पर एक भूमिका के साथ सभी महत्वपूर्ण कलाकारों के संछिप्त बायोग्राफी, उनकी खासियत, उनके कुछ नामी पेंटिंग्स के चित्र हों तो एक बढियां योगदान होगा. ज्योतिन्द्र जैन की गंगा देवी पर जो किताब है वहाँ एक अलग टॉप डाउन एप्रोच है जैसे कोई हाई आर्ट का आदमी एक लोक कलाकार और लघु कला को संरक्षण देने के दंभ से लिख रहा हो. वह मिथिला के बदलते सामाजिक और राजनैतिक मंजर से बिलकुल अनभिज्ञ है. आप यह कर सकते हैं.
@सदन जी, बहुत बहुत शुक्रिया और आभार. कोशिश करुँगा इस दिशा में कुछ योजना बनाने की.
Nice work arvind bhai.plz let me know if you have any more plans regarding visiting madhubani or any place in bihar.happy to be your host :)
@राज साहब, बहुत बहुत शुक्रिया
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