वे दिन फाख्ताओं के पीछे भागने के थे. आम, अमरुद, जामुन के पेड़ों पर
चढ़ने के थे. डिबिया (ढिबरी) और लालटेन की रोशनी में अक्षरों और शब्दों से खेलने
के थे.
स्कूल से आते-जाते किसी और के खेतों से मटर और छिमियाँ हम उखाड़ लाते. किसी के पेड़ से आम तोड़ लाते. स्कूल
नहीं जाने के दस बहाने करते. हम भाई-बहनों की इस खेल में दादी, जिसे हम ‘दाय’ कहते थे, हर पल
शामिल रहती थी, गोइयां की तरह.
बाबा जब गुजरे तब मैं बहुत छोटा था, वो मुझे याद नहीं. दाय के आँचल
में ही हमने जीवन के पहले गीत सुने-पाथेर पांचाली. मुझे याद नहीं कि दादी ने कभी
राजा-रानियों की कहानी हमें सुनाई हो. दादी की कहानियाँ उसके जीवन संघर्ष की
कहानियाँ होती थी.
दाय निरक्षर पर जहीन थी. लोक
अनुभव का ऐसा संसार उसके पास था जहाँ शास्त्रीय ज्ञान बौना पड़ जाता है! जब हम उसे चिढ़ाते तो वो अपना नाम हँसते हुए
हमें लिख कर दिखाया करती- जानकी. पर यह नाम उसे पसंद नहीं था. वो कहती कि जानकी के
जीवन में बहुत कष्ट लिखा होता है. मिथिला में ‘सीता’ स्त्री दुख का एक रुपक है!
दाय के पास कोई औपचारिक शिक्षा नहीं थी, गोकि उसके दोनों छोटे भाई
बिहार सरकार में प्रशासनिक अधिकारी थे. जब हम उससे पूछते कि ‘तुमने क्यों नहीं पढ़ाई की’, वो कहती कि ‘उस समय में लोग कहते थे कि पढ़ाई करने से वैध्वय
मिलता है’. जिस समाज
में मैत्रेयी और गार्गी जैसी विदुषियों के किस्से पीढ़ी दर पीढ़ी कायम हो वहाँ
कैसे इस तरह की स्त्री विरोधी, प्रतिगामी विचारों ने जगह बनाई होगी आश्चर्यचकित
करता है. यदि दाय की पीढ़ी को मिथिला में औपचारिक शिक्षा मिली होती तो मिथिला के
सामंती समाज का चेहरा इतना विद्रूप नहीं होता.
दाय घड़ी देख कर समय का हिसाब नहीं लगाती. सूर्य को देख कर कहती- एक
पहर बीता, दो पहर बीता. अपने जन्म का हिसाब वो 1934 में बिहार में आए भीषण भूकंप
से लगाती. दाय कहती ‘1934 में जब भारी भूकंप आया था तब मैं 10-12 वर्ष
की थी.’ शादी के
बाद जिस घर में वो आई उसने कई रुप बदले. लेकिन वह लकड़ी का तामा, जो दाय के गाँव
से आया था पिछले 75 सालों से आज भी घर में है. उस जमाने में ‘तामा’ से नाप-तौल होता
था. कवि विद्यापति ने अपनी एक कविता में लिखा है: मांगि-चांगि लयला महादेव धान ताम दुई हे.’ दादी कहती उस जमाने में गाँव में कहीं-कहीं
चूल्हा जलता था, पर लोग मिल-बांट कर खाते थे. जब भी हम उससे आज की गरीबी की बात
करते तो वह कहती नहीं, पहले जैसी स्थिति नहीं है. अब सब घर में चूल्हा तो जलता है.
औपनिवेशिक दौर में पली-बढ़ी उस पीढ़ी के लिए ‘भूख’ सबसे बड़ा सच था.
पहली बार विस्थापन की पीड़ा हमने दाय से ही जानी. भले ही 75 वर्ष पहले
वो गौने होकर आई पर उसका अपना गाँव, नैहर उससे मरते समय तक नहीं छूटा. जब कभी हम
पूछते गाँव चलोगी? एक चमक उसकी आँखों में कौंध उठती.
हम रोजी-रोटी के लिए इस शहर उस शहर भटकते रहे. दाय खूंटे की तरह अपनी
जमीन से गड़ी रही. जब भी उससे कहते दिल्ली चलो, तो उसका टका सा जवाब होता- मरने
समय क्या मगहर जाऊँगी. हम एक बछड़े की तरह छह महीने, साल में उस खूंटे की ओर दौड़
पड़ते.
उस दिन पापा ने फोन पर कहा, ‘माँ गुज़र गई’. निस्तब्ध, मुझे लगा खूंटा उखड़ गया. अपनी ज़मीन
से नमी चली गई.
(जनसत्ता के समांतर स्तंभ में 'अंतिम पहर बीता' शीर्षक से 6.02.14 को प्रकाशित)
2 comments:
क्या लिखते हो यार,दाय के मार्फ़त पिछले सदी की कहानी कह दिया, कभी कहानी में हमे भी याद कर लिया करो कुछ मेरा भी नाम हो जाये- उदय राज
उदय राज सिनेमा बुनते हैं, कहानी क्यों बनना चाहते हैं?
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