सोशल नेटवर्किंग वेबसाइटों और न्यू मीडिया पर इन दिनों ‘ओम दर-ब-दर’ की खूब चर्चा है. पिछले
दिनों जब मैंने एक मित्र से इस फिल्म के बारे में बताया तो उसने हँसते हुए कहा कि ‘यह फिल्म है भी या नहीं इस पर बहस जारी है!’ 25 वर्ष पहले नेशनल फिल्म डेवलपमेंट कारपोरेशन (एनएफडीसी) के सहयोग से बनी यह फिल्म 17 जनवरी को
पहली बार रुपहले पर्दे पर आ रही है.
असल में बॉलीवुड की मसाला फिल्मों से अलग यह फिल्म एक नए सौंदर्यबोध
की माँग करती है. समांतर सिनेमा के दौर में बनी मणि कौल की ‘उसकी रोटी’ या कुमार साहनी की ‘मायादर्पण’ की तरह ही यह फिल्म फिल्म व्याकरण को धता
बताते हुए दर्शकों के धैर्य की परीक्षा करती है. पर अंत में
हम एक ऐसे अनुभव से भर उठते हैं जो हमारे मन-मस्तिष्क पर वर्षों तक छाया रहता है.
भारतीय फिल्म के सौ सालों के इतिहास में भले ही आम दर्शकों के बीच यह
फिल्म चर्चित नही हुई हो, लेकिन कमल स्वरुप निर्देशित इस फिल्म को बॉलीवुड और
भारतीय फिल्म के अवांगार्द फिल्ममेकरों के बीच ‘कल्ट
फिल्म’ का दर्जा प्राप्त है. वर्तमान में अनुराग कश्यप
से लेकर अमित दत्ता तक की फिल्मों पर इस फिल्म की छाया दिखती है. पुणे स्थित फिल्म
और टेलीविजन संस्थान में तो इस फिल्म की चर्चा के बिना कोई बात ही पूरी नहीं होती.
खुद कमल स्वरुप इस संस्थान के स्नातक रहे हैं और मणि कौल के साथ काम किया है.
पर इस फिल्म की कहानी क्या है? इस आसान से सवाल का
जवाब बेहद मुश्किल है. अजमेर-पुष्कर इलाके में किशोर और युवा की वयसंधि पर खड़ा ‘ओम’ और उसके आस पास के जीवन की यह कहानी है.
फिर सवाल ‘राना टिगरीना’ या उस मेढ़क का बचा
रह जाता है जिसके पेट में हीरा भरा है! सवाल बाबूजी,
गायत्री और जगदीश के प्रेम संबंधों का भी है!
असल में इस फिल्म में कोई एक कहानी नहीं है, कई कहानियाँ हैं. यह एक
साथ कई रेखाओं में यात्रा करती है. यदि फिल्म दृश्य,
विंब और ध्वनि का संयोजन कर एक कला की सृष्टि करती है तो निस्संदेह इस फिल्म के
माध्यम से एक अलहदा अनुभव संसार हमारे सामने दरपेश होता है.
इस फिल्म का एक सिरा ‘एबसर्ड’ से जुड़ता है तो दूसरी ओर ‘एमबिग्यूटी’ के सिद्धांतों से.
हिंदी सिनेमा के अवांगार्द फिल्म मेकर इसे एक उत्तर आधुनिक फिल्म मानते हैं.
भूमंडलीकरण के इस दौर में जिसे हम ‘ग्लोकल’ कहते हैं उसकी छाया इस फिल्म में दिखती है. एक
साथ इस फिल्म में विटोरियो डी सिका की ‘बाइसिकिल थिव्स’ की झलक है तो दूसरी ओर मनोहर श्याम जोशी के
उपन्यास में आए ‘मारगांठ’ की. फिल्म के संवाद भारतीय सामाजिक संरचना, राजनीतिक
चेतना और अंतर्राष्ट्रीय हालात पर एक साथ टिप्पणी करते हैं. इस सार्थक-निरर्थक संवाद
के बीच दर्शक व्यंग्य और हास्य बोध से भर उठता है.
एक साथ मिथक, विज्ञान, अध्यात्म, ज्योतिष, लोक और शास्त्र के बीच जिस
सहजता से यह फिल्म आवाजाही करती है वह भारतीय फिल्मों के इतिहास में मिलना दुर्लभ
है.
करीब दस साल पहले पुणे फिल्म संस्थान के कुछ स्नातकों और
डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर के साथ मैंने यह फिल्म जेएनयू में देखी थी. उसके
बाद सवाल-जवाब के क्रम में कमल स्वरुप अपने बेलौस अंदाज में जितनी सहजता से
दर्शकों के सवाल को स्वीकार रहे थे, उसी सहजता से नकार भी रहे थे. बिलकुल कुछ देर
पहले देखी फिल्म की तरह!
पर उन्होंने माना था कि ‘ओम दर-ब-दर’ मेरा पासपोर्ट है’... और इस
बात से किसी को इंकार भी नहीं!
(जनसत्ता में समांतर स्तंभ के तहत 16 जनवरी 2014 को प्रकाशित)
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