Thursday, February 04, 2016

जाना एक लोक कलाकार का: रौदी पासवान

रौदी पासवान एक पेंटिंग दिखाते हुए
पिछले दिनों दस्तकार के संस्थापक लैला तैयबजी के फेसबुक पोस्ट से पता चला कि रौदी पासवान नहीं रहे. मुझे सहसा विश्वास नहीं हुआ. मैंने तुरंत गूगल में उनके मौत की ख़बर ढूंढी. निराशा हाथ लगी. वैसे भी मीडिया के बाज़ार में लोक कलाकारों की क्या क़ीमत है!

मैंने रौदी पासवान के मोबाइल पर फोन किया. फोन उनके बेटे ने उठाया और कहा कि नवंबर में छठ पूजा के खरना’ के दिन ही उनका देहांत हो गया.

रौदी पासवान मिथिला पेंटिंग के एक सिद्ध कलाकार थे. उन्होंने अपनी पत्नी चानो देवी के साथ मिल कर मिथिला पेंटिंग के क्षेत्र मेंजो अब मधुबनी पेंटिंग के नाम से जाना जाता हैगोदना (tattoo) शैली को स्थापित किया था. उसे विस्तार दिया था. एक नई भंगिमा दी थी.

पिछले साल मैं एक शोध के सिलसिले में मधुबनी के नजदीक, जितवारपुर गाँव उनसे मिलने गया था. इस गाँव में कमोबेश हर घर में लोग पेंटिंग बनाते हैं. प्रसंगवश, मिथिला पेंटिंग के चर्चित नाम सीता देवी और जगदंबा देवी इसी गाँव की थीं.

पिछले कुछ वर्षोंमें मधुबनी जिले के रांटी और जितवारपुर गाँव मिथिला पेंटिंग के गढ़ के रूप में उभरे हैं. और इस वजह से मिथिला पेंटिंग का नाम भौगोलिक इकाई के आधार पर मधुबनी पेंटिंग के रूप में चलन में आ गया. गोकि दरभंगामधुबनी ज़िले के अमूमन हर गाँव और नेपाल के तराई इलाके में यह पेंटिंग पीढ़ी दर पीढ़ी स्त्रियों के हाथों से सजती रही है. मिथिला के सामंती समाज में इसने स्त्रियों की आजादी और सामाजिक न्याय के नए रास्ते खोले हैं. साथ ही जातियों में बंटे समाज में इस कला से समरसता भी आई है.
चानो देवी

70 के दशक से रौदी पासवान समाज के हाशिए के तबके के जीवन और वे जिस दुसाध समुदाय से आते थे उनके नायकराजा सलहेस के जीवन वृत्त को अपने रंग से रंगते रहे. उन्होंने गोदना कला के मार्फ़त इस कला में वर्षों से रत कायस्थ और ब्राह्मण कलाकारों की मौजूदगी को विस्तार दिया.  उन्होंने चानो देवी को पारंपरिक रूप से स्त्रियों के शरीर पर गोदे गए डिजाइन को काग़ज़ पर उतारने के लिए प्रेरित किया.

गोदना पेंटिंग की शैली कायस्थों की कछनी और ब्राह्मणों की भरनी से इतर है. साथ ही इन शैलियों से प्रेरणा भी लेती रही है. इन पेंटिंग में जीव-जंतुओंपेड़-पौधेआस-पड़ोस के जीवन को तीर और सघन वृत्तों के माध्यम से उकेरा जाता है. कई समकालीन कलाकारों में इस शैली की झलक मिल जाती है.

गोदना पेंटिंग की रेखाओं में एक अनगढ़पन होता हैजो उसे विशिष्ट बनाता है.

मीडिया में भारतीय कलाकारों के अरबों-खरबों की पेंटिंग की बिक्री का गाहे-बगाहे जिक्र मिलता है. पर इनके ख़रीददार कौन हैंभारतीय मध्यवर्ग तक इन्हीं लोक कलाकारों की कला पहुँचती है. इनके ड्राइंग रूम की शोभा इन्हीं से बढ़ती है. पर इस वर्ग को इन कलाकारों की कितनी चिंता है?

रौदी पासवान और चानो देवी ने एक पूरी पीढ़ी को मिथिला पेंटिंग में प्रशिक्षित किया था.  गोदना कला में योगदान के लिए चानो देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया था. वर्ष 2010 में कैंसर से उनकी मौत हो गई थी. उनके परिवार में उनकी पतोहू और बेटे उनकी थाती को संभाले हुए हैं.

परंपरा के साथ समकालीन विषय-वस्तुओं का चित्रण मिथिला पेंटिंग में दिखाई पड़ता है. पर हाल के दिनों में मिथिला पेंटिंग में मास प्रोडक्शन भी बढ़ा हैजिसकी झलक दिल्ली हाट जैसी जगहों पर मिल जाती है. बिचौलिए इस कला के बाज़ार में वर्षों पहले सेंध लगा चुके हैं, जिससे कलाकारों तक उनकी कला का मेहनताना नहीं पहुँच पाता.


इस पेंटिंग ने देश और विदेश में भारतीय लोक कलाजो अपनी महत्ता में समकालीन आधुनिक कला के समकक्ष ठहरती हैको एक नई ऊँचाई दी. मिथिला पेंटिंग के कलाकार गंगा देवीसीता देवीजगदंबा देवीमहासुंदरी देवी को भारत सरकार ने कला के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मश्री से नवाजा था. लेकिन वर्तमान कलाकारों की सुध किसे हैं!

पिछले दिनों एक तरफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हनोवर के मेयर को बौआ देवी की एक पेंटिंग भेंट की थीवहीं दूसरी तरफ दिल्ली स्थित क्राफ्टस म्यूजियम में गंगा देवी के मिथिला शैली में बनाए अदभुत और बहुमूल्य कोहबर’ पेंटिंग को पुर्निर्माण के नाम पर मिट्टी में मिला दिया गया.


सदियों से लोक कला लोक से जीवनशक्ति पाती रही है. उम्मीद की जानी चाहिए कि लोक-चेतना से संपन्न कलाकार अपनी कूची से इसे पोषित करते रहेंगें. सही मायने में रौदी पासवान के प्रति यही श्रद्धांजलि भी होगी.

                                                                  ( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)

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