फैक्ट एंड फिक्शन के मालिक अजीत विक्रम सिंह |
बीस बरस पहले जब मैं देश की राजधानी
में आया था, तब
दक्षिणी दिल्ली के वसंत लोक स्थित प्रिया सिनेमा हॉल के इर्द-गिर्द खूब चहलकदमी
रहती थी. दिल्ली के धनाढ्य लोगों, कॉलेज-विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और सैलानियों के लिए तब यह एक आधुनिक, लोक-लुभावन अड्डा हुआ करता था. दिल्ली
में पहली अंगरेजी फिल्म ‘बेसिक
इंस्टिंक्ट’ मैंने
प्रिया सिनेमा हॉल में ही देखी थी. पर प्रिया हॉल के ठीक सामने एक छोटे से शीशे के
गेट के पीछे किताबों से सजी रैक पर नजर बाद में पड़ी.
मेरे कॉलेज और विश्वविद्यालय चूंकि
दक्षिणी दिल्ली में ही थे तो इस किताब की दुकान से जल्दी ही राब्ता कायम हो गया.
गेट के खुलते ही उससे लगी घंटी की टुन-टुन बजने की ध्वनि और किताबों की पहचानी-सी
गंध अपनी ओर खींचती रहती.
इस छोटे पर बेहतरीन संग्रह से भरी
किताब की दुकान को इसी महीने इसके मालिक ने हमेशा के लिए बंद करने का फैसला किया
है. सही है कि दिल्ली में किताबों की और भी दुकानें हैं. लेकिन इस किताब की दुकान
पर अकादमिक और लोकप्रिय साहित्य का जैसा संग्रह मिल पाता था, वह दुर्लभ था. पिछले दिनों पता चलने पर
जब मैं अपना आखिरी सलाम कहने इस दुकान पर पहुंचा तो किताबों से हर समय भरी रहने
वाली रैक खाली पड़ी थी. कुछ ग्राहक-पाठक दुकान के अंदर मौजूद थे.
मैंने जब दुकान के मालिक अजीत विक्रम
सिंह की तस्वीर खींचने से पहले उनकी इजाजत मांगी तो उन्होंने हंस दिया. वहीं मौजूद
एक युवा लेखिका ने कहा कि ‘जल्दी
से तस्वीर उतार लीजिए, आजकल
ये कम ही हंसते हैं.’ अजीत
विक्रम सिंह के चेहरे पर एक विषादपूर्ण हंसी फिर से उभर आई. उन्होंने कहा कि ‘नहीं, अब स्थितप्रज्ञ हो चला हूं.’ हालांकि मुझे ऐसा लगा कि अपने प्रिय से
बिछुड़ने के सदमे से वे उबरे नहीं हैं.
दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफेंस
कॉलेज से स्नातक अजीत विक्रमजी अपने पुस्तक प्रेम के कारण ही इस व्यवसाय में आए थे.
लेकिन वे कहते हैं कि अब न उतने निष्ठावान पाठक रहे और न इतनी आमदनी होती है कि इस
महंगी जगह का किराया भी चुका सकूं. फिर आस-पड़ोस में बड़े-बड़े मॉल बन जाने के बाद अब
इस जगह के प्रति लोगों का आकर्षण भी पहले जैसा नहीं रहा.
मॉल में जो बड़े व्यवसायियों की दुकानें
हैं, वहां
किताबों की बिक्री हो या न हो, उन्हें बहुत फर्क नहीं पड़ता. लेकिन छोटे दुकानदारों के लिए यह संकट का समय
है. पाठकों के लिए भी मॉल में वही किताबें बिखरी हुई मिलती हैं जो बाजार की मांग
के अनुरूप हो. क्या यह अनायास है कि आज हमें अखबारों के पूरे पेज पर आने वाले नए
उपन्यासों का विज्ञापन दिखता है!
सन 2008 में इसी तरह दिल्ली के कनॉट प्लेस
स्थित किताब की चर्चित तीस वर्ष पुरानी दुकान ‘बुकवर्म’ की अकाल मौत हुई थी. जैसे छोटे शहरों
और कस्बों की दुकानों से आपका एक निजी रिश्ता रहता है, उसी तरह ग्राहकों के साथ इन छोटी
दुकानों का भी एक खास संबंध रहा है. बहरहाल, इन किताब की दुकानों का बंद होना हमारे
समय में शहर की बदल रही पुस्तक संस्कृति और नए मध्यवर्ग के जीवन में किताबों की
घटती अहमियत पर भी एक टिप्पणी है. किताबों के पढ़ने, खरीदने और लोगों में बांटने का एक अलग
समाजशास्त्र होता है. सच तो यह है कि जिस अनुपात में लोगों के पास पैसा बढ़ा है, पढ़ने की फुर्सत उतनी ही कम हुई है. लोग
हलकी-फुलकी वैसी किताबें पढ़ना ज्यादा पसंद करते हैं, जिन्हें मेट्रो या बसों की यात्रा के
दौरान निबटाया जा सके.
ऐसा भी नहीं है कि किताबों की बिक्री
नहीं होती है. दिल्ली में हर साल होने वाले पुस्तक मेले में किताबों की बिक्री इस
बात की ताकीद करते हैं कि एक नया पाठक और नव शिक्षित वर्ग उभरा है, जिसमें पढ़ने की भरपूर ललक है. साथ ही, पिछले कुछ वर्षों में वेबसाइट के
माध्यम से किताबों की खरीद-बिक्री का एक कारोबार फला-फूला है, जहां पुस्तक प्रेमियों को मूल्य में
छूट पर किताबें मिल जाती हैं.
अजीत विक्रम कहते हैं कि ‘इंटरनेट से तो मैं भी किताबें खरीदता
हूं, पर
आपको वहां यह सुख तो नहीं मिलता जो किताबों के रैक के बीच भटकते हुए अचानक से ऐसी
किताब पाने से मिलता है, जिसे
आप अर्से से ढूंढ़ रहे थे. या ऐसी किताब जो आपकी रुचि के अनुकूल न हो, पर पढ़ने के बाद आपके जीवन का वह हिस्सा
बन जाती है!’ अब
किताबों के इस कोने पर रुकना नहीं हो पाएगा, लेकिन यहां से गुजरते हुए इसकी याद
जरूर आएगी.
(जनसत्ता के दुनिया मेरे आगे कॉलम में 18 अगस्त 2015 को प्रकाशित)
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