क़रीब
25 वर्ष पहले जेएनयू के खुले रंगमंच पर हबीब
तनवीर के निर्देशन में नया थिएटर ने शेक्सपीयर के नाटक ‘मिड
समर नाइट्स ड्रीम’ का मंचन किया था. ज़ाहिर है, यह
नाटक उन्होंने अंग्रेजी में नहीं, हिंदुस्तानी
और छत्तीसगढ़ की रंगभाषा में किया था.
मेरे
बड़े भाई उस वक्त जेएनयू में पढ़ते थे और उन्होंने काफी तारीफ़ के साथ इस नाटक के
बारे में बताया था. और उन्होंने यह भी बताया था कि बकौल हबीब तनवीर ‘जेएनयू
के पार्थसारथी रॉक्स पर बना ‘ओपन
एयर थिएटर’ जैसा खुला मंच भारत में कहीं नहीं है!’
बहरहाल,
पिछले बीस वर्षों में दिल्ली में मैंने कई नाटक देखे. हबीब
तनवीर निर्देशित आगरा बाज़ार, चरण दास चोर, सड़क,
पोंगा पंडित आदि भी देखे, पर कहीं ना कहीं ‘कामदेव
का अपना वसंत ऋतु का सपना’ देखने की चाह बची रही थी.
इस
साल जनवरी में संगीत नाटक अकादमी दिल्ली में नया थिएटर के इस नाटक का मंचन देखने
का मौका मिला. हबीब तनवीर के ग़ुजर जाने के बाद नया थिएटर में वो तासीर नहीं बची
है, फिर भी लोक कलाकारों के अभिनय देख कर, शेक्सपीयर के पात्रों का देसी
संवाद सुन कर गुदगुदी सी होती रही. देश-काल की सीमा से परे ‘शेख पीर’
शेक्सपीयर की आत्मा लोक भाषा में हमारे सामने थी. मनोरंजन के लिए इतना काफ़ी था.
लेकिन
मैं अभी शेक्सपीयर को क्यों याद कर रहा हूँ? असल
में, एवन के बार्ड (चारण, भाट)
को इस दुनिया से गए 400 साल पूरे हुए हैं और दुनिया भर उनकी
पुण्यतिथि मनाई जा रही है. इंग्लैंड के एवन नदी के तट पर एक छोटे से
गाँव स्ट्रैटफोर्ड में 26 अप्रैल 1564 को
शेक्सपीयर का जन्म हुआ था और 23 अप्रैल
1616 को देहांत.
लंदन
के टेम्स नदी के तट पर उन्होंने ग्लोब थिएटर की स्थापना 1599
में की. इन चार सौ सालों में ग्लोब ने वक्त के कई थपेड़े झेले हैं.
पिछले बीस बरस से इसे शेक्सपीयर ग्लोब के नाम से जाना जाता है.
शेक्सपीयर कभी इस जगह सशरीर टहलते-घूमते रहे होंगे. ईर्ष्या,
द्वेष, प्रेम, ग्लानि, करुणा, हास्य से भरे हैमलेट, रोमियो
एंड जूलिएट, किंग लियर, एज यू लाइक इट, मच
अडो एबाउट नथिंग आदि के पात्र दर्शकों से मुखातिब होते होंगे और मंच पर आकर
शेक्सपीयर अभिवादन स्वीकार करते होंगे! कैसी दुनिया रही होगी तब. इन सवालों को मन
में लिए कुछ वर्ष पहले जब मैं लंदन घूमने गया था तब शेक्सपीयर ग्लोब में एक नाटक
का मंचन देखा था. खुले आंगन में बने मंच, जिसके
दोनों ओर दर्शकों के बैठने के झरोखे हैं और सामने खड़े दर्शकों के लिए जगह.
शेक्सपीयर ग्लोब अपनी वास्तुकला शिल्प में भी अदभुत है.
शेक्सपीयर
ग्लोब ने दुनिया भर में घूम, शेक्सपीयर
के नाटकों का मंचन कर इस महान नाटककार को श्रद्धांजलि दी है. साथ ही पूरे साल
विभिन्न सांस्कृतिक, साहित्यिक कार्यक्रमों के माध्यम से लंदन में इस महान
साहित्यकार को याद किया जा रहा है. प्रसंगवश,
अतुल कुमार के निर्देशन में ‘टवेल्थ नाइट’
का अनुदित नाटक—‘पिया बहरूपिया’
का ग्लोब थिएटर में मंचन किया जा चुका है. सोचिए लंदन में बैठी
जनता नाटक में कबीर के पद-‘थारा रंगमहल में,
अजब शहर में/ आजा रे हंसा भाई/ निर्गुण राजा पे सिरगुन सेज बिछाई…,’
सुन कर कैसा महसूस करती होगी. यकीन
मानिए यदि आप ‘पिया बहरूपिया’ के
इस देसी रूप को देखेंगे-सुनेंगे तो एक ऐसे रंग अनुभव से भर उठेंगे जो समय-काल से
परे अदभुत और अलौकिक है.
शेक्सपीयर ग्लोब थिएटर में नाटक का मंचन |
इसी
तरह पुराने लोग प्रसिद्ध नाटय निर्देशक बी वी कारंत के यक्षगान शैली में किए गए ‘मैकबेथ’ (बरनम वन) को याद करते
हैं.
सच
तो यह है कि साहित्य यदि उत्कृष्ट हो तो वह किसी भाषा की मोहताज नहीं होती. वह
सहृदय में रस का संचार करने के लिए पर्याप्त होती है.
भरत
मुनि ने नाटक को सभी कलाओं का उत्स कहा है. साथ ही नाटक भिन्न कलाओं का संगम भी
है. आधुनिक समय में नाटक का स्थान सिनेमा ने ले लिया. भारत और ख़ास तौर से हिंदी
के प्रसंग में तो यह बात कहीं ही जा सकती है. पर ऐसा नहीं कि हिंदी सिनेमा
शेक्सपीयर के प्रभाव से अछूता हो. शेक्सपीयर का मैकबेथ कभी बंबई के माफिया संसार
में ‘मकबूल’ बन कर, तो कभी ओथेलो मेरठ
के जाति से बंटे समाज में ‘ओंकारा’ के रूप में, तो कभी हैमलेट ‘हैदर’
के रूप में रक्त रंजित कश्मीर की वादियों में भटकता है.
हालांकि,
मुक्तिबोध की एक काव्य पंक्ति का सहारा लेकर कहूँ तो बंबइया सिनेमा
ने हिंदी थिएटर से लिया बहुत ही ज्यादा, दिया
बहुत ही कम है.
कुछ
वर्ष पहले मैंने मनोज बाजपेयी से पूछा था कि नेटुआ (मनोज बाजपेयी का प्रसिद्ध
नाटक) की मंच पर वापसी कब होगी? उन्होंने
भरी भीड़ में जवाब दिया था, जल्दी. इस बात को पाँच साल हो रहे हैं. और हम इंतज़ार ही कर रहे
हैं…
ख़ैर,
शेक्सपीयर के बहाने यदि हम अपने अमर नाटककारों को भी याद करें,
नाटक की स्थिति-परिस्थिति की चर्चा करें, नाटककारों,
अभिनेताओं की बदहाली और हिंदी समाज की उपेक्षा की विवेचना करें तो
हमारी संवृद्ध नाटक परंपरा को गति मिल सकती है. एक बार फिर दुहाराना उचित होगा कि
भरत मुनि ने नाटक को ‘सर्वशिल्प-प्रवर्तकम’ कहा
है.
( द लल्लन टॉप पर प्रकाशित)
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