Monday, July 24, 2017

कुलपति जी, आपका टैंक एक मजबूत वाहन है लेकिन...


आर्मी टैंक, बख्तरबंद गाड़ियों की ज़रूरत युद्धभूमियों में होती है. एक विश्वविद्यालय में उसकी क्या जरूरत?
पर देश के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश कुमार की माने तो उन्हें कैंपस में एक टैंक चाहिए. ताकि जवानों की शहादत छात्रों के मन में हमेशा बनी रहे. और उन्होंने भारत सरकार के मंत्रियों से सेना के टैंक दिलवाने की गुज़ारिश की है. ये मंत्री रविवार को कारगिल विजय दिवस मनाने जेएनयू में मौजूद थे.
भले ही जेएनयू की स्थापना के 47 वर्ष से ऊपर हो गए हो कुछ साल पहले तक जेएनयू ‘दिल्ली में होकर भी दिल्ली से अलहदा’ था. विश्वविद्यालय की चर्चा पठन-पाठन और छात्र राजनीति की सरगर्मियों के संदर्भ में होती थी, लेकिन पिछले तीन वर्षों से जबसे केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ जेएनयू की चर्चा अध्ययन-अध्यापन के प्रसंग में कम देशप्रेम, राजद्रोह की वजह से ज्यादा हो रही है. इसमें मीडिया के एक हिस्से की भी बड़ी भूमिका रही है.
पिछले साल फरवरी में जब जेएनयू के अंदर तथाकथित कुछ लोगों ने देश के खिलाफ नारे लगाए तब पहली बार प्रशासन की तरफ से छात्रों को राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने के लिए टैंक की मांग उठी थी.
यह किसी से छिपा नहीं है कि मौजूदा सरकार और संघ से जुड़े कुछ लोगों की आँखों में जेएनयू एक किरकिरी की तरह है.
फरवरी 2016 की घटना से पहले संघ का मुखपत्र ‘पांचजन्य’ अपनी कवर स्टोरी में जेएनयू को ‘दरार का गढ़’ कह चुका था. वह कैंपस को हिंदू विरोधी, देश विरोधी करार दिया था. पर इस घटना के करीब डेढ़ साल बाद भी पुलिस आरोपियों के खिलाफ़ अभी तक चार्जशीट फाइल नहीं कर सकी है और दोषियों को पकड़ नहीं पाई है. हालांकि इस घटना के तुरंत बाद राजद्रोह (Sedition) के आरोप में जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और दो अन्य छात्रों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था, फिलहाल वे जमानत पर हैं.
फरवरी की घटना के बाद जेएनयू के छात्रों-प्रोफेसरों ने खुले मंच पर राष्ट्रवाद की अवधारणाओं पर एक लेक्चर सिरीज का आयोजन किया था जो यू ट्यूब जैसे सोशल मीडिया पर मौजूद है और अब एक मुकम्मल किताब की शक्ल में है (What the Nation Really Needs to Know: The JNU Nationalism Lectures). इस तरह का रचनात्मक हस्तक्षेप जेएनयू को विशिष्ट बनाता रहा है.
सवाल है कि जेएनयू जैसी स्वायत्त संस्थान में, जिसकी प्रतिष्ठा देश-विदेश में है, एक वीसी को राष्ट्रवाद की शिक्षा देने के लिए टैंक जैसे प्रतीकों के इस्तेमाल की जरूरत क्यों पड़ी? जाहिर है, देश में राष्ट्रवाद, देशभक्ति, राजद्रोह के इर्द-गिर्द जिस तरह का विमर्श इन दिनों चलाया जा रहा है. जगदीश कुमार जैसे वीसी चाहे-अनचाहे एक मोहरे के रूप में नज़र आते हैं.
जेएनयू एक उच्च अध्ययन संस्थान का केंद्र है जहाँ ज्ञान के उत्पादन पर हमेशा जोर रहा है. सवाल करने और सत्य की खोज की प्रवृत्ति को हमेशा बढ़ावा दिया जाता रहा है.
प्रतिरोध की संस्कृति और समाज के हाशिए के लोगों के प्रति संवदेनशीलता जेएनयू की पहचान रही है. पुराने छात्र याद करते हैं कि किस तरह जेएनयू के पहले वीसी जी पार्थसारथी और रेक्टर मूनिस रज़ा ने जेएनयू में वाद-विवाद की संस्कृति के निर्माण में एक बड़ी भूमिका निभाई थी.
और इस वजह से वाम रुझानों की बावजूद जेएनयू एक लोकतांत्रिक स्पेस के रूप में उभरा जहाँ विभिन्न मत, विचारधारा के लोगों के लिए हमेशा जगह रही है. लेकिन ऐसा लगता है कि केंद्र में भाजपा सरकार इसे एक ख़ास विचारधारा के रंग में रंगना चाहती है जो किसी भी विश्वविद्यालय के लिए सही नहीं है. सच तो यह है कि इस तरह की सोच विश्वविद्यालय की अवधारणा पर ही सवालिया निशान लगाती है.
कल दिन में मैं एक प्रोफेसर से मिलने जेएनयू गया था. लाइब्रेरी के पीछे, गोपालन कैंटिन के पास एक किताब गाड़ी दिखी. मन ख़ुश हो गया.
मन में सोचा कि वीसी जगदीश कुमार के प्रस्तावित टैंक, बख्तरबंद पर ये गाड़ी जब तक जेएनयू में घूमती रहेगी भारी पड़ेगी. जैसा कि ब्रेख्त ने लिखा है: जनरल, तुम्हारा टैंक एक मजबूत वाहन है/ वह मटियामेट कर डालता है जंगल को/ और रौंद डालता है सैकड़ों आदमियों को/ लेकिन उसमें एक नुक्स है/ उसे एक ड्राइवर चाहिए.../जनरल आदमी बहुत उपयोगी होता है/ वह उड़ सकता है/ और हत्या भी कर सकता है/ लेकिन उसमें एक नुक्स है/ वह सोच सकता है.
वीसी जगदीश कुमार इस ‘सोच’ पर ताला लगाना चाहते हैं!
(राजस्थान पत्रिका वेबसाइट पर प्रकाशित, 24 जुलाई 2017)

Friday, July 14, 2017

बीबीसी का प्रोपगैंडा और जॉर्ज ऑरवेल !

बीबीसी हिंदी में राजेश प्रियदर्शी के इस ब्लॉग में  अन्य बातों के अलावे प्रकारांतर से पिछले दिनों बीबीसी हिंदी पर जो स्टीरियोटाइप छवि गढ़ने, मनगढंत विश्लेषण करने का आरोप लगा, उसका जवाब दिया गया है. मैंने ‘बीबीसी सिरीज’ के तहत जेएनयू के प्रसंग में लिखे एक लेख-‘सतही हो चुकी है जेएनयू की भीतरी विचारधारा’ को लेकर बिंदुवार कुछ सवाल उठाए थे. असल में यह लेख एक प्रोपगैंडा के सिवाय कुछ भी नहीं है. पर मेरे सवालों का जवाब या उस लेख की चर्चा इस ब्लॉग में कहीं नहीं है. उलटा बीबीसी ने हाथी के दाँत से बनी मीनार में बैठ कर, गुरु ज्ञानी बन कर पूछा है: सबको चाहिए मनभावन समाचार, क्या करें पत्रकार?
इस ब्लॉग के मुताबिक बीबीसी के दिशा-निर्देश में हर तरह के विचारों को जगह देने की बात है. पर क्या इसमें प्रोपगैंडा भी शामिल है ? बीबीसी हिंदी को खुद से यह सवाल पूछना चाहिए.
‘भारत में अल्पसंख्यक होना कितना तकलीफ़देह है’, क्या यह अलीगढ़ में पढ़ रही एक हिंदू लड़की और बीएचयू में पढ़ रही एक मुस्लिम लड़की के विचारों से तय होगा? संभव है ऐसा ‘जनरलाइजेशन’ बीबीसी के लिए ‘मनभावन’ हो.
जब बीबीसी का संवाददाता एक लड़की का सरनेम ‘तिवारी’ से बदल कर ‘यादव’ कर देता है (एमएमयू वाले लेख में) और लोटा को सांप्रदायिक बना देता है, तब उसके लिए यह सब ‘मनभावन’ होता है. क्या बीबीसी के दिशा-निर्देश में मुसलमानों को ओबीसी के ख़िलाफ़ खड़ा करना भी शामिल है?

किसी प्रोफेसर पर मुसलमान विरोधी होने का आरोप लगाना, स्टोरी में बिना उस प्रोफेसर का पक्ष दिए (बीएचयू वाले लेख में), क्या पेशेवर पत्रकारिता है? भले उस प्रोफेसर का नाम लेख में ना लिखा गया हो, ऑन लाइन की दुनिया में लोग चटखारे लेकर उनकी चर्चा कर रहे हैं.


इस ब्लॉग के मुताबिक: किसी ज़माने में बीबीसी में काम कर चुके जाने-माने लेखक जॉर्ज ऑरवेल ने लिखा था, “पत्रकारिता उसे सामने लाना है जिसे कोई छिपाना चाहता हो, बाक़ी सब प्रचार है.”
अव्वल तो मुझे यह जानने की उत्सुकता है कि ऐसा ऑरवेल ने कहाँ और कब लिखा था? लेकिन ऑरवेल ने अपने इस्तीफा पत्र में बीबीसी को  यह जरूर लिखा था :
“पिछले कुछ समय से मुझे लग रहा था कि मैं अपना समय और सरकार का पैसा उस काम को करने में बर्बाद कर रहा हूँ जिससे कोई परिणाम सामने नहीं आ रहा. मैं मानता हूं कि मौजूदा राजनीतिक वातावरण में ब्रिटिश प्रोपगैंडा का भारत में प्रसार करना लगभग एक निराशाजनक काम (hopeless work) है. इन प्रसारणों को तनिक भी चालू रखना चाहिए या नहीं इसका निर्णय और लोगों को करना चाहिए लेकिन इस पर मैं अपना समय खर्च करना पसंद नहीं करुंगा, जबकि मैं जानता हूँ कि पत्रकारिता से खुद को जोड़ कर ऐसा काम कर सकता हूं जो कुछ ठोस प्रभाव पैदा कर सके…”
यह पत्र 1943 में ऑरवेल ने लिखा था. लगभग 75 साल बाद भी ऐसा लगता है कि बीबीसी प्रोपगैंडा ही कर रहा है, परिप्रेक्ष्य भले बदल गया हो (भूलना नहीं चाहिए कि इराक युद्ध (2003) के दौरान बीबीसी ने जिस तरह से युद्ध को कवर किया, प्रोपगैंडा में भाग लिया, उसकी काफी भर्त्सना हो चुकी है) पर बीबीसी के हिंदी पत्रकारों में यह स्वीकार करने की कूवत नहीं रही. इस्तीफा देना तो दूर की बात है!
बहरहाल, ऐसा नहीं कि मनभावन खबरों पर जोर हाल के वर्षों में (व्हाट्स एप या फेसबुक के दौर में) बढ़ा है, जैसा कि इस ब्लॉग को पढ़ने पर लगता है. पिछले दशक में मैंने अपनी पीएचडी शोध में पाया था कि हिंदी अखबारों में भूमंडलीकरण के आने के बाद किस तरह ‘ख़ुशखबर’ देने पर जोर बढ़ा है, किस तरह खबरों का विभाजन ‘अप मार्केट/डाउन मार्केट’ खबरों में किया जाने लगा है. इतना ही नहीं पाठकों की क्रय शक्ति (वर्ग) को ध्यान मे रख कर खबरों का उत्पादन किया जा रहा है. वर्ष 2007 में इसी के इर्द-गिर्द दया थुस्सु ने ‘NEWS AS ENTERTAINMENT ‘ नाम से एक किताब लिखी थी.
सवाल है कि जब बीबीसी पर बाज़ार का दबाव नहीं है तब क्यों वेबसाइट ‘मनभावन ख़बरों’ को पाठकों को परोसता है? क्यों अंग्रेजी संवाददाता की आँखों से ही हिंदी के पाठकों को ख़बर दिखाने पर जोर है? जबकि इन वर्षों में पुल के नीचे काफ़ी पानी बह चला है. अखबारों के अलावे हिंदी के कई समाचार चैनल बाज़ार में आ गए हैं, खबरों के कई वेबसाइट हैं. पर क्या बीबीसी की होड़ इन्हीं हिट बटोरू वेबसाइटों से है, जिनका काम हेडिंग में सेन्सेशनल और प्रोवोकेटिव शब्द डाल कर चल जाता है!
यदि हम बीबीसी हिंदी के वेबसाइट का ‘कंटेंट एनालिसिस’ करें तो पाते हैं कि वह हिंदी के पाठकों को अनूदित भाषा (यहाँ अंग्रेजी से हिंदी) में आधुनिकता को परोसने की कोशिश करता है, यह देशज आधुनिकता (Vernacular Modernity) कतई नहीं है. एक ‘साफ्ट पॉर्न (SOFT PORN) की पॉलिसी यहाँ भी स्पष्ट दिखती है ताकि हिट बटोरा जा सके. उदाहरण के लिए 11 जुलाई 2017 को बीबीसी के मेन पेज पर:

‘सेक्स स्लेव’ बनाई गई महिलाओं का वीडियो
सेक्स के दौरान वजाइना में ग्लिटर कैप्सूल ख़तरनाक
पत्नी के साथ सेक्स वीडियो डालता था पॉर्न साइट पर…. आदि खबरों का लिंक दिखता है.
इसी तरह बीबीसी सिरीज के तहत लिखे गए लेखों के शीर्षक भी इस बात की पुष्टि करते हैं.
बीबीसी लिखता है कि- ‘नीयत पर शक करने की हड़बड़ी ऐसी है कि लोग हेडलाइन पढ़कर फ़ैसला सुना देते हैं.’ ….बीबीसी ऑन लाइन पर फ़ैसला सुनाने का वक़्त यह भले ना हो, पर नीयत, नीति और खबरों के उत्पादन की संस्कृति पर संदेह जरूर है. पत्रकारिता की पहली शर्त (और आलोचना की भी) संदेह और सवाल उठाना ही तो है.
बीबीसी को ‘निंदक नियरे’ रखना चाहिए.
(Media Vigil पर प्रकाशित)

Saturday, July 01, 2017

प्रतिरोध वाया सोशल मीडिया

जंतर-मंतर पर क़रीब तीन-चार हज़ार लोग मौजूद थे. जितने लोग उतने ही कैमरे. प्रदर्शनकारियों में शायद ही कोई ऐसा था जो फेसबुक, ट्विटर या इंस्टाग्राम जैसे न्यू मीडियापर मौजूद नहीं हो. जो ऑन लाइन पोर्टल से जुड़े पत्रकार थे, वे वहीं से फेसबुक लाइवके जरिए इस मुहिम को बाहर लोगों के बीच ले जा रहे थे और आम नागरिक सोशल मीडिया के माध्यम से. कुछ टेलीविजन चैनलों पर भी इस विरोध प्रदर्शन को प्रसारित किया जा रहा था.

फ़िल्मकार सबा दीवान की फेसबुक पोस्ट से प्रेरित होकर देश (और विदेश) के विभिन्न शहरों में एक साथ हुए इस प्रतिरोध के अगले दिन साबरमती में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा (अंतत:) कि 'गौ-भक्ति' के नाम पर लोगों की हत्या स्वीकार नहीं की जा सकती'. देखा जाए तो गौरक्षा के नाम पर गोरखधंधा करने वालों के ख़िलाफ़ यह प्रतिरोध एक हद तक सफल रहा और इसका श्रेय सोशल मीडिया (बजरिए इंटरनेट) को जाता है.

लोकतंत्र में राजनीतिक भागेदारी और राजनीतिक दलों के संचार में मीडिया की प्रमुख भूमिका रही है. साथ ही किसी भी सामाजिक आंदोलन में मीडिया की सहभागिता जरूरी है. मोदी सरकार की अघोषित नीति मेनस्ट्रीम (प्रिंट और टेलीविजन) के बदले न्यू मीडिया को तरजीह देने की है. ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ऑन लाइनमीडिया की दुनिया में सबसे ज्यादा सक्रिय रहने वाले नेताओं में से एक है. ट्विटर पर उनके 30.9 मिलियन (तीन करोड़ नौ लाख) और फेसबुक पर 41.7 मिलियन (चार करोड़ 17 लाख) फॉलोअर हैं. लेकिन इस बार नागरिक समाज के लोग उन्हीं हथियारों का इस्तेमाल सत्ता के ख़िलाफ़ करने में सफल रहे, जिसका इस्तेमाल मौजूदा सरकार करती रही है.

रिपोर्टों के मुताबिक मई 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से गौरक्षा, गौमांस के नाम पर देश के विभिन्न भागों में मुसलमानों के ऊपर क़रीब 32 हमले हुए हैं. मारे गए लोगों में मोहम्मद अखलाक, पहलू खान, जुनैद खान आदि महज नाम बन कर रह गए हैं.  साथ ही इस सांप्रदायिक भीड़ की हिंसा के शिकार (लींचिंग) दलित भी हुए हैं. निस्संदेह इस भीड़ को सत्ता की भाषा- जो श्मशान और कब्रिस्तानमें लिपटी हुई है, से बल मिला है.
मोदी सरकार के बनने के तीन साल बाद शायद पहली बार, बिना किसी राजनीतिक नेतृत्व के, सिर्फ सोशल मीडिया का इस्तेमाल कर हिंसा के खिलाफ प्रतिरोध में नागरिक समाज (सिविल सोसाइटी) की आवाज़ एक वृहद स्तर पर मुखर हुई है. हालांकि जब तक ऑन लाइनप्रतिरोध को ऑफ लाइन (ज़मीनी स्तर पर)हो रहे विभिन्न प्रतिरोधों से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक इसकी सफलता संदिग्ध रहेगी.

विरोध प्रदर्शन के अगले दिन यानी 29 जुलाई की तारीख़ को दिल्ली से प्रकाशित होने वाले हिंदी अख़बारों- नवभारत टाइम्स, जनसत्ता, हिंदुस्तान और दैनिक जागरण में किसी ने भी पहले पन्ने पर इस ख़बर को जगह नहीं दी. अंदर के स्थानीय पन्ने पर किसी कोने में एक तस्वीर या दो-तीन कॉलम की छोटी सी ख़बर देकर इस प्रदर्शन को निपटा दिया गया. वहीं, दिल्ली से प्रकाशित होने वाले अंग्रेजी अख़बारोंहिंदुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस और द हिंदू अख़बार के पहले पन्ने पर तस्वीर के साथ विस्तृत ख़बर भी छपी थी.

भले ही किसी राजनीतिक बैनर के तले जंतर-मंतर और अन्य शहरों में जनता नहीं जुटी हो पर ‘NotInMyName’ का जो नारा बुलंद हुआ उसकी जबान बहुसंख्यक भारतीयों की जबान नहीं है. इस ऑनलाइन मीडिया और प्रतिरोध की संस्कृतियों को दूर-दराज, छोटे शहरों-कस्बों पर पहुँचाने कि लिए इन संस्कृतियों को देशज (vernacular) होना होगा, साथ ही इन संस्कृतियों का देशजीकरण (vernacularisation of protest) करना होगा. जाहिर है भाषाई अख़बारों की भूमिका इसमें महत्वपूर्ण हो सकती है.

अंग्रेजी मीडिया के बदले हमें यह देखना होगा कि हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं (regional/vernacular) में इन प्रतिरोधों की अनुगूंज किस रूप में हैजरूरत भाषाई अख़बारों में चल रहे विमर्श को बदलने की है, जिसका प्रसार देश के गाँवो, क़स्बों तक है. यहाँ इस बात का उल्लेख जरूरी है कि मंडल-कमंडल की राजनीति में भाषाई मीडिया सांप्रदायिक एजेंडे को आगे में बढ़ाने में हमेशा तत्पर रही है.


ग़ालिब ने लिखा है कि फरियाद की कोई लय नहीं है’, पर सत्ता के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की आवाज़ तो बुलंद होनी ही चाहिए जो दूर, एक बहुसंख्यक वर्ग तक पहुँचे और एक बड़े नागरिक समाज को लामबंद कर सके.