आर्मी टैंक, बख्तरबंद गाड़ियों की ज़रूरत युद्धभूमियों में होती है. एक विश्वविद्यालय में उसकी क्या जरूरत?
पर देश के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश कुमार की माने तो उन्हें कैंपस में एक टैंक चाहिए. ताकि जवानों की शहादत छात्रों के मन में हमेशा बनी रहे. और उन्होंने भारत सरकार के मंत्रियों से सेना के टैंक दिलवाने की गुज़ारिश की है. ये मंत्री रविवार को कारगिल विजय दिवस मनाने जेएनयू में मौजूद थे.
भले ही जेएनयू की स्थापना के 47 वर्ष से ऊपर हो गए हो कुछ साल पहले तक जेएनयू ‘दिल्ली में होकर भी दिल्ली से अलहदा’ था. विश्वविद्यालय की चर्चा पठन-पाठन और छात्र राजनीति की सरगर्मियों के संदर्भ में होती थी, लेकिन पिछले तीन वर्षों से जबसे केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ जेएनयू की चर्चा अध्ययन-अध्यापन के प्रसंग में कम देशप्रेम, राजद्रोह की वजह से ज्यादा हो रही है. इसमें मीडिया के एक हिस्से की भी बड़ी भूमिका रही है.
पिछले साल फरवरी में जब जेएनयू के अंदर तथाकथित कुछ लोगों ने देश के खिलाफ नारे लगाए तब पहली बार प्रशासन की तरफ से छात्रों को राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाने के लिए टैंक की मांग उठी थी.
यह किसी से छिपा नहीं है कि मौजूदा सरकार और संघ से जुड़े कुछ लोगों की आँखों में जेएनयू एक किरकिरी की तरह है.
फरवरी 2016 की घटना से पहले संघ का मुखपत्र ‘पांचजन्य’ अपनी कवर स्टोरी में जेएनयू को ‘दरार का गढ़’ कह चुका था. वह कैंपस को हिंदू विरोधी, देश विरोधी करार दिया था. पर इस घटना के करीब डेढ़ साल बाद भी पुलिस आरोपियों के खिलाफ़ अभी तक चार्जशीट फाइल नहीं कर सकी है और दोषियों को पकड़ नहीं पाई है. हालांकि इस घटना के तुरंत बाद राजद्रोह (Sedition) के आरोप में जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार और दो अन्य छात्रों को पुलिस ने हिरासत में ले लिया था, फिलहाल वे जमानत पर हैं.
फरवरी की घटना के बाद जेएनयू के छात्रों-प्रोफेसरों ने खुले मंच पर राष्ट्रवाद की अवधारणाओं पर एक लेक्चर सिरीज का आयोजन किया था जो यू ट्यूब जैसे सोशल मीडिया पर मौजूद है और अब एक मुकम्मल किताब की शक्ल में है (What the Nation Really Needs to Know: The JNU Nationalism Lectures). इस तरह का रचनात्मक हस्तक्षेप जेएनयू को विशिष्ट बनाता रहा है.
सवाल है कि जेएनयू जैसी स्वायत्त संस्थान में, जिसकी प्रतिष्ठा देश-विदेश में है, एक वीसी को राष्ट्रवाद की शिक्षा देने के लिए टैंक जैसे प्रतीकों के इस्तेमाल की जरूरत क्यों पड़ी? जाहिर है, देश में राष्ट्रवाद, देशभक्ति, राजद्रोह के इर्द-गिर्द जिस तरह का विमर्श इन दिनों चलाया जा रहा है. जगदीश कुमार जैसे वीसी चाहे-अनचाहे एक मोहरे के रूप में नज़र आते हैं.
जेएनयू एक उच्च अध्ययन संस्थान का केंद्र है जहाँ ज्ञान के उत्पादन पर हमेशा जोर रहा है. सवाल करने और सत्य की खोज की प्रवृत्ति को हमेशा बढ़ावा दिया जाता रहा है.
प्रतिरोध की संस्कृति और समाज के हाशिए के लोगों के प्रति संवदेनशीलता जेएनयू की पहचान रही है. पुराने छात्र याद करते हैं कि किस तरह जेएनयू के पहले वीसी जी पार्थसारथी और रेक्टर मूनिस रज़ा ने जेएनयू में वाद-विवाद की संस्कृति के निर्माण में एक बड़ी भूमिका निभाई थी.
और इस वजह से वाम रुझानों की बावजूद जेएनयू एक लोकतांत्रिक स्पेस के रूप में उभरा जहाँ विभिन्न मत, विचारधारा के लोगों के लिए हमेशा जगह रही है. लेकिन ऐसा लगता है कि केंद्र में भाजपा सरकार इसे एक ख़ास विचारधारा के रंग में रंगना चाहती है जो किसी भी विश्वविद्यालय के लिए सही नहीं है. सच तो यह है कि इस तरह की सोच विश्वविद्यालय की अवधारणा पर ही सवालिया निशान लगाती है.
कल दिन में मैं एक प्रोफेसर से मिलने जेएनयू गया था. लाइब्रेरी के पीछे, गोपालन कैंटिन के पास एक किताब गाड़ी दिखी. मन ख़ुश हो गया.
मन में सोचा कि वीसी जगदीश कुमार के प्रस्तावित टैंक, बख्तरबंद पर ये गाड़ी जब तक जेएनयू में घूमती रहेगी भारी पड़ेगी. जैसा कि ब्रेख्त ने लिखा है: जनरल, तुम्हारा टैंक एक मजबूत वाहन है/ वह मटियामेट कर डालता है जंगल को/ और रौंद डालता है सैकड़ों आदमियों को/ लेकिन उसमें एक नुक्स है/ उसे एक ड्राइवर चाहिए.../जनरल आदमी बहुत उपयोगी होता है/ वह उड़ सकता है/ और हत्या भी कर सकता है/ लेकिन उसमें एक नुक्स है/ वह सोच सकता है.
वीसी जगदीश कुमार इस ‘सोच’ पर ताला लगाना चाहते हैं!
(राजस्थान पत्रिका वेबसाइट पर प्रकाशित, 24 जुलाई 2017)