किसी मंत्र की
तरह अक्सर ही यह सुनने को मिलता है कि लोक उत्सवधर्मी होता है। लेकिन जिन परंपराओं,
लोकविधाओं के कारण लोक में उत्सव आकार लेता रहा है आधुनिकता के
संसर्ग में उसका विघटन भी हुआ है, इस पर बात कम की जाती है।
यह अच्छी बात है कि आधुनिक रंगमंच के कलाकारों के बीच इस तरह का मंथन चल रहा है।
पिछले दिनों रतन वर्मा के लिखे नाटक ‘नेटुआ करम बड़ा दुखदायी’
का दिलीप गुप्ता के निर्देशन में दिल्ली में मंचन हुआ। इस नाटक में
बिहार की लोक नाट्य शैली, नेटुआ को लेकर आधुनिक मन में जो
दुचित्तापन है, समाज में जेंडर को लेकर जो स्टिरियोटाइप है,
कलाकारों के साथ जो भेदभाव है उसे नृत्य-संगीत के साथ प्रस्तुत किया
गया। मौजूदा समय में लोक नाट्य शैली की बदहाली पर भी यह एक महत्वपूर्ण टिप्पणी है।
बिहार में
नेटुआ एक प्रकार का नृत्य है जिसे पुरुष पात्रों के द्वारा स्त्री के भेष में किया
जाता रहा है। पैरों में घुंघरू बांध, स्त्रियों की आंगिक भाव-भंगिमाओं से नर्तक लोक का
मनोरंजन करते रहे हैं। मेरे बचपन की अनेक स्मृतियों में यह भी सुरक्षित है। अपने
इलाके, मिथिला की बात करूं तो वहां इसे नटुआ कहा जाता था।
शादी-ब्याह के अवसर पर शामियाने के नीचे या किसी पर्व-त्योहार पर चौकियां जोड़ कर
मंच तैयार किया जाता था, जिस पर ये नर्तक नाचते थे। ढोल,
ढाक और अन्य वाद्य यंत्रों के बीच नाचते पैर देखने वालों को अपने
सम्मोहन में बांधे रखते थे। हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध गायक उदित नारायण अपने कई
इंटरव्यू में इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि इन्हीं महफिलों, मंचों से निकल कर उन्होंने बॉलिवुड की ऊंचाइयों को छुआ है।
प्रसंगवश, छह-सात साल
पहले मैंने मनोज वाजपेयी से पूछा था कि आप ‘नेटुआ’ लेकर मंच पर कब आ रहे हैं? उन्होंने कहा था- जल्दी
ही। पर लगता नहीं कि वे मंच पर फिर लौटेंगे। रंगमंच से जुड़े एक मित्र कहते हैं कि
अब वे कहां वापस लौटेंगे! फिल्मों से पहले 90 के शुरुआती
वर्षों में उन्हें दिल्ली रंगमंच पर ‘नेटुआ’ नाटक से ही प्रसिद्धि मिली थी।
इसी तरहपिछले साल भारत रंग महोत्सव में नौटंकी की वर्तमान समाज में स्थिति, उसके उरूज और
अवसान को लेकर भी एक नाटक का मंचन किया गया था। बात चाहे नौटंकी की हो, जात्रा की, तमाशा या भवाई की, आधुनिक
समाज में लोक नाट्य विधाओं की जो स्थिति है, वह सुखद नहीं
कही जा सकती।
जब से
पॉपुलर कल्चर और खासतौर पर सिनेमा का प्रचार-प्रसार हुआ लोक में प्रदर्शनकारी कला
के जो रूप चलन में थे वे हाशिये पर आ गए। जाहिर है सिनेमा के प्रचलन में आने से
पहले और बाद के दशकों में भी ये लोक नाट्य विधाएं लोगों की रुचि और प्रोत्साहन की
वजह से चलन में रहीं। अगर आज ये दर्शकों या मंच के लिए तरस रही हैं तो इसके लिए
हमारा समय और समाज भी जिम्मेदार है।
सच तो यह
है कि हमारे समाज में अभिनेताओं को वह स्थान कभी नहीं दिया गया जो साहित्यकारों या
मूर्तिकारों को प्राप्त रहा है। आधुनिक काल में फिल्मों के अभिनेताओं की प्रसिद्धि
और प्रतिष्ठा अपवाद है। इसी बात को लक्ष्य कर संजीव के लिखे चर्चित उपन्यास ‘सूत्रधार’
के नायक, भोजपुरी के प्रसिद्ध लोक कलाकार
भिखारी ठाकुर क्षोभ के साथ कहते हैं: जिस साहित्य और साहित्यकार को वे इतनी बड़ी
चीज मानते आए थे, वहां भी वही कनफुसुकिया और चपड़-चालाकी,
वही डाह, वही बाभन-सूद चलता है क्या?’
असल में
लोक कलाओं, नाट्य विधाओं से जुड़ने वाले अधिकांश कलाकार समाज के हाशिए पर रहने वाले
समुदाय से आते रहे हैं। सामंती और पूंजीवादी समाज की जाति और वर्ग व्यवस्था इस कला
के सम्यक मूल्यांकन और कलाकारों के प्रति संवेदनशील दृष्टि में बाधा बन कर उपस्थित
रही है। पर नृत्य जीवन है और इसलिए लोक में यह स्वर हमेशा सुनाई पड़ता है-जे नाची
से बाची।
(नवभारत टाइम्स के संपादकीय पेज पर 12 सितंबर 2018 को प्रकाशित)
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