Thursday, November 15, 2018

दिल्ली में दरभंगा घराना


किसी भी राज्य और समाज की आर्थिक बदहाली की कहानी सांस्कृतिक बदहाली से भी गहरे जुड़ी होती है. जहाँ आर्थिक बदहाली के आंकड़े अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री और मीडिया के लिए महत्वपूर्ण होते हैं वहीं सांस्कृतिक रुग्णता इनके सरोकार का हिस्सा नहीं बन पाते. यह स्थिति कहीं भी देखी जा सकती है. लेकिन अगर बिहार की बात करूँ तो जैसे-जैसे वहाँ की आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितयाँ प्रतिकूल होती गई, सदियों पुरानी शास्त्रीय संगीत की परंपरा भी सिमटती चली गई. बिहार की राज्य सत्ता और समाज अपनी परंपरा को सहेज नहीं सका. इन सब बातों को लक्ष्य कर दरभंगा-अमता घराने में प्रशिक्षितध्रुपद के गायक और लेखक जर्मनी के पीटर पानके ने दरभंगा घराने के ऊपर लिखी अपनी किताब का नाम सिंगर्स डाई ट्वाइस रखा है.  ऐसा लगता है कि पिछली सदी में दरभंगा ध्रुपद घराने के चर्चित कलाकारों की इहलौकिक मौत के बाद बिहार राज्य और समाज की नजर में उनकी स्मृति शेष हो गई.

पर परंपरा से नि:सृत प्रतिभाएँ समय और स्थान से प्रभावित भले हो, विषम परिस्थितियों में भी वह अपना रास्ता तलाश लेती है. पिछले दिनों दिल्ली ध्रुपद घराने के युवा कलाकार प्रशांत और निशांत मल्लिक को सुनना अह्लादकारी अनुभव रहा. जहाँ बिहार की एक अन्य ध्रुपद शैली- बेतिया घराने की परंपरा सिमट रही हैवहीं दरभंगा घराना के युवा कलाकार देश-विदेश में एक बार फिर से अपनी छाप छोड़ रहे है. गौरतलब है कि दरभंगा ध्रुपद घराने के संगीतकार खुद को तानसेन की परंपरा से जोड़ते हैं.

दरभंगा संगीत घराना दरभंगा राज की छत्रछाया में 18वीं सदी से फलता-फूलता रहा. पर दरभंगा राज की जमींदारी के विघटन के बाद संरक्षण के अभाव में यह घराना दरभंगा से निकल कर इलाहाबादवृंदावनदिल्ली आदि जगहों पर फैलता गया.

कहते हैं कि सत्यजीत राय की फ़िल्म जलसाघर’ (1958) दरभंगा राज घराने से ही प्रेरित है. ध्रुपद गायक प्रेम मल्लिक के पुत्र और विदुर मल्लिक के पौत्र प्रशांत और निशांत इस घराने की तेरहवीं पीढ़ी के गायक हैं. हालांकि जब मैंने प्रशांत और निशांत मल्लिक के ध्रुपद कार्यक्रम के आख़िर में विद्यापति’ सुनने की फरमाइश की तो उनका कहना था कि ध्रुपद शैली पर यह प्रोग्राम आयोजित किया गया है और मंच को देखते हुए यह उचित नहीं. उन्होंने मुझे यह कहीं और सुनाने की बात कहीं. निश्चित रूप से इसके पीछे कोई वाजिब वजह होगी.

दरअसल, दरभंगा घराना के संगीतज्ञ अपनी गायकी के आख़िर में विद्यापति के पद गाया करते थे और इस वजह से ही मैंने फरमाइश की थी. दो साल पहले जब मैं दरभंगा घराने के वयोवृद्ध गायकसंगीत नाटक अकादमी से पुरस्कृत पंडित अभय नारायण मल्लिक से मिला था तब उन्होंने भी मुझे उगना रे मोर कतय गेला’ गाकर सुनाया था. शायद ये उनकी परंपरा थी. दरभंगा घराने के गायक जिस रागात्मकता से ध्रुपद गाते थे उसी रागात्मकता से विद्यापति के पद भी. मल्लिक बंधुओं की प्रस्तुति सुन कर मुझे ऐसा लगा कि उनके गायन में ध्रुपद का नोम-तोम था पर मैथिल मिठास गायब थी. साथ ही उस लयकारी का अभाव था जिसकी वजह से दरभंगा घराना पूरे देश में पिछले तीन सौ वर्षों में अपनी विशिष्टता बनाए रखा.

ध्रुपद गायकी की चार शैलियां- गौहरडागरखंडार और नौहर में दरभंगा गायकी गौहर शैली को अपनाए हुए है. इसमें आलाप चार चरणों में पूरा होता है और जोर लयकारी पर होता है. ध्रुपद के साथ-साथ इस घराने में खयाल और ठुमरी के गायक और पखावज के भी चर्चित कलाकार हुए हैं. पखावज के नामी वादक पंडित रामाशीष पाठक दरभंगा घराने से ही थे. ध्रुपद के सिरमौर राम चतुर मल्लिक (पद्मश्री) के बारे में बड़े-बड़े संगीत साधक आज भी आदर से बात करते हैं. संगीत समीक्षक गजेंद्र नारायण सिंह (पद्मश्री) ने उनके बारे में लिखा है- रामचतुर दरअसल गानचतुर थे. गायकी की हर विधा पर उनकी ज़बरदस्त पकड़ थी.
रामचतुर मल्लिक के छोटे भाई विधुर मल्लिक 80 के दशक में वृदांवन चले गए और वहाँ पर उन्होंने ध्रुपद एकेडमी की स्थापना की थी. वर्ष 2002 में उनकी मौत हो गई. बातचीत के दौरान प्रशांत मल्लिक ने बताया कि हर राज्य के आयोजक और वहाँ के सांस्कृतिक विभाग अपने राज्य के कलाकारों को पहले आगे करते हैं, लेकिन अफसोस यह है कि बिहार सरकार और बिहार के आयोजकों ने कभी अपने कलाकारों की अहमियत नहीं समझी.’ बहरहाल, निस्संदेह विधुर मल्लिक ने कई योग्य शिष्यों को ध्रुपद गायकी में प्रशिक्षित किया जिनमें पंडित सुखदेव चतुर्वेदी और पंडित वृज मोहन गोस्वामी आदि प्रमुख हैं. पर यह यह घराना अपने सामाजिक आधार का विस्तार नहीं कर सका.

मशहूर शास्त्रीय संगीतकार और रेमन मैग्सेसे पुरस्कार विजेता टीएम कृष्णा कर्नाटक संगीत में सामाजिक विस्तार और समरसता की वकालत करते हैं, ताकि शास्त्रीय संगीत में वर्ग और जाति के वर्चस्व को तोड़ा जा सके. समकालीन हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की भी यह ज़रूरत है. दरभंगा घराना यदि इस दिशा में पहल करे तो उसकी परंपरा की जड़ और मजबूत होगी.
(जनसत्ता, 15 नवंबर 2018 को, संस्कृति और सरोकार शीर्षक से प्रकाशित)

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