Tuesday, November 20, 2018

उम्मीद-ए-सहर की बात


दीवाली के हफ्ते भर पहले से पांच साल की कैथी कुछ पंक्तियां गुनगुना रही थी- चकरी, बम, हवाई इनसे बचना भाई/ दीवाली आयी, खुशियों की बहार है लायी. मैंने उससे पूछा कि कहां से सीखी? उसने कहा कि स्कूल में मैडम ने सिखाया. फिर उसने मुझे दीवाली में बम-पटाखों से होने वाले ध्वनि और वायु प्रदूषण, बड़े-बूढ़ो को आने वाली दिक्कतें और इसकी वजह से जानवरों के अंदर होने वाले भय के बारे में बताया. आश्चर्य हुआ मुझे कि उसने मुझसे ग्रीन पटाखों के बारे में बात की और कहा कि अगले साल से हम उसे जलायेंगे.

 उच्चतम न्यायालय ने इस साल दिल्ली-एनसीआर में पटाखों की ब्रिकी और इस्तेमाल पर रोक लगा दिया था और सिर्फ ग्रीन पटाखे की इजाजत दी थी.

 साथ ही रात आठ से दस बजे के बीच ही पटाखे फोड़ने की समय सीमा तय कर दी थी. काउंसिल ऑफ साइंटिफिक एंड इंडस्ट्रियल रिसर्च के नेशनल इनवायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट की वैज्ञानिक डॉक्टर साधना रायलु से फोन पर जब मैंने पिछले दिनों बात की थी, तब उन्होंने स्पष्ट कहा था कि वर्तमान में भारत में ग्रीन पटाखों का उत्पादन नहीं होता है.

 इस दीवाली कैथी ने कोई भी पटाखा खरीदने की जिद नहीं की. पर दीवाली की रात ऐसा लगा कि उच्चतम न्यायालय के आदेश की अवहेलना जम कर हुई और लोगों ने मन से आतिशबाजी की. मीडिया में जो रिपोर्ट आयी, उसमें मास्क पहन कर लोग पटाखे जलाने में मशगूल दिखे. जाहिर है पहले से ही दिल्ली की प्रदूषित हवा, दीवाली की सुबह अवैध पटाखोंकी वजह से फैली गर्दो-गुबार से और भी प्रदूषित हुई.

 क्या पर्यावरण की चिंता सिर्फ न्यायालय की है? क्या इसमें नागरिकों और नागरिक समाज की कोई भूमिका नहीं है? स्पष्ट है कि न्यायालय की बात और आदेश का असर आम नागरिकों पर नहीं पड़ा और राजनीतिक पार्टियों में भी पर्यावरण के मुद्दों पर कोई आम सहमति नहीं दिखती. 

मैं कई ऐसे बुर्जुगों को जानता हूं जो दशकों से दिल्ली में रहते आए हैं, पर हाल के वर्षों में, दीवाली के दौरान, दिल्ली-एनसीआर छोड़ कर हफ्ते-दस दिन के लिए शहर से बाहर चले जाते हैं.  पर उनका क्या हाल है जो शहर छोड़ने में असमर्थ हैं? उन गर्भवती महिलाओं और गर्भ में पल रहे बच्चों की किसे चिंता है जो  प्रदूषण की मार झेल रहे हैं?

मुझे ऐसा लगा कि पांच साल की एक बच्ची जो बात आसानी से समझ सकती है, वह तथाकथित पढ़े-लिखे मध्यवर्ग के पल्ले नहीं पड़ा. पर्यावरण उनकी चिंता का विषय है ही नहीं. खाओ, पीओ और ऐश करो को मंत्र की तरह दुहारने वाला और वर्तमान में जीने वाला यह वर्ग, भविष्य के प्रति न तो संवेदनशील है, न हीं समाज और राष्ट्र के प्रति जिम्मेदार. फिर उम्मीद किस से है? मेरी समझ से उम्मीद स्कूली शिक्षा ले रहे इन्हीं बच्चों से है.

(प्रभात खबर, 20 नंवबर 2018 को प्रकाशित)

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