गोवा में चल रहे भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) के पचासवें
संस्करण का ऐतिहासिक महत्व है. वर्ष 1952 में जब भारत के चार महानगरों में पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन
किया गया, यह एशिया का भी पहला
अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव था. इसमें 23 देशों के फिल्मकारों ने भाग लिया था, जबकि पचासवें समारोह में 76 देशों के
फिल्मकार भाग ले रहे हैं.
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस समारोह के आयोजन में व्यक्तिगत
रूचि ली थी. वे दुनिया के सामने सिनेमा के माध्यम से एक स्वतंत्र राष्ट्र की ऐसी
छवि प्रस्तुत करना चाह रहे थे जो किसी महाशक्ति के दबदबे में नहीं है. साथ ही देश
के फिल्मकारों और सिनेमाप्रेमियों को विश्व सिनेमा की कला से परिचय और
विचार-विमर्श का एक मंच उपलब्ध कराना भी उद्देश्य था. गुट निरपेक्षता के सिद्धांत
की नींव नेहरू ने 1961 में भले ही डाली
हो, वे इस पर 50 के दशक के शुरुआत से ही काम कर रहे थे. पहला
अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह को हम इसकी एक कड़ी के रूप में देख सकते हैं.
महात्मा गाँधी और सरदार बल्लभभाई पटेल के विपरीत नेहरू खुद एक सिनेमाप्रेमी थे
और नए भारत के निर्माण में सिनेमा की एक महत्वपूर्ण भूमिका देख रहे थे. वे सिनेमा
के कूटनीतिक महत्व से परिचित थे. नेहरू ने उद्धाटन भाषण में कहा था कि ‘लोगों के जीवन में सिनेमा एक शक्तिशाली प्रभाव
के रूप में उपस्थित है’. उन्होंने सिनेमा
के माध्यम से जीवन में कलात्मक और सौंदर्यात्मक मूल्यों को समाहित करने पर जोर
दिया था. नेहरू सांस्कृतिक शिष्टमंडलों में बॉलीवुड के कलाकारों को शामिल करते थे.
समारोह के पहले संस्करण में राज कपूर की फिल्म ‘आवारा’ के साथ एनटी
रामाराव अभिनीत ‘पाताल भैरवी
(तेलुगू)’, वी शांताराम की ‘अमर भूपाली (मराठी)’ और अग्रदूत की ‘बाबला (बांग्ला)’ दिखाई गई थी.
अमेरिकी निर्देशक फ्रैंक कापरा हॉलीवुड के शिष्टमंडल का प्रतिनिधित्व कर रहे थे.
सोवियत संघ से मिखाइल चियायुरली की फिल्म ‘फॉल ऑफ बर्लिन’ के अतिरिक्त इटली
की नव-यथार्थवादी धारा के फिल्मकारों विटोरियो डी सिका की चर्चित ‘बाइसिकिल थिव्स’ और रोबर्टो रोजीलीनी की ‘रोम: ओपन सिटी’ आदि का भी प्रदर्शन किया गया था. रोजीलीनी के करीबी रहे मकबूल फिदा हुसैन ने
अपनी आत्मकथा में लिखा है- “ओपन सिटी ने
दुनिया भर में हलचल मचा दी, लेकिन जब इटैलियन
प्रेजिडेंट को पहली बार थिएटर में दिखाई गई तो उन्होंने उस फिल्म की नुमाइश पर
पांबदी लगा दी.”
नेहरू ने
रोजीलीनी को भारत के ऊपर फिल्म बनाने का न्यौता दिया, जो ‘इंडिया: मातृ
भूमि’ डाक्यूमेंट्री के रूप में
सामने आई. 70 और 80 के दशक में समारोहों के दौरान दिखाई गई दुनिया
के नामी फिल्मकारों मसलन, आंद्रे
तारकोव्सकी, जोल्तान फाबरी, फेदेरीकी फेलीनी, इंगमार बर्गमान, फ्रांसिस फोर्ड कोपोला, कोस्ता गावरास,
रोमान पोलंस्की आदि की फिल्मों की चर्चा पुराने
दौर के लोग आज भी करते हैं. हिंदी के चर्चित कवि कुंवर नारायण ने इन फिल्म
महोत्सवों का जिक्र अपनी किताब- ‘लेखक का सिनेमा’
में बखूबी किया है. हालांकि इंडियन पैनोरमा
खंड में व्यावसायिक फिल्मों को शामिल करने को लेकर हाल के वर्षों में सवाल उठते
रहे हैं.
कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से सम्मानित असमिया फिल्मों के
चर्चित निर्देशित जानू बरुआ कहते हैं कि ‘पिछले कुछ वर्षों में देश में फिल्म समारोह कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं.
व्यावसायिक दृष्टि ज्यादा हावी है, सिनेमा को कला के
रूप में देखने-सुनने का अवसर नहीं मिलता. अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह इस मायने में
सफल रहा है कि यहाँ सिनेमाप्रेमियों और फिल्मकारों को दुनिया भर के सिनेमा की कला
से रू-ब-रू होने का मौका मिलता है.” फिल्म समारोह के पचासवें संस्करण में इस बात का भी लेखा-जोखा किया जाना चाहिए कि भारतीय फिल्म उद्योग और
फिल्मकारों पर इन समारोहों का क्या प्रभाव पड़ा है? भूमंडलीकरण के इस दौर में विदेश नीति में बॉलीवुड के ‘साफ्ट पावर’ की खूब चर्चा होती है, सवाल यह भी है कि नेहरू दौर के 'आइडिया ऑफ इंडिया' से नरेंद्र मोदी के ‘न्यू इंडिया’ तक का सिनेमाई सफर कैसा रहा?
(प्रभात खबर, 24 नवंबर 2019)
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