हाल ही में शाहरुख खान ने बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में कहा कि ‘हमें यह तथ्य स्वीकार करना चाहिए कि एक सिनेमा मनोरंजन के लिए है और एक सिनेमा सोच-विचार के लिए है और दोनों ही एक साथ रह सकते हैं.’ इस साल रिलीज हुई बॉलीवुड की फिल्मों पर शाहरुख की यह बात खरा उतरती है.
सिंग्ल स्क्रीन सिनेमाघरों के जाने और मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों की आवक से महानगरों, शहरों में नए तरह की सिनेमा की संस्कृति उभरी है. बड़े बजट की मनोरंजक फिल्मों के साथ-साथ ऑफ बीट फिल्में, जो बॉलीवुड के स्टारों की लकदक से दूर हैं, यहाँ दिखाई जा रही हैं. इसमें क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्में भी शामिल हैं. लेकिन मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों को ऑनलाइन डिजिटल प्लेटफॉर्म से चुनौती भी मिल रही है. ‘सोनी’ जैसी फिल्म और ‘मेड इन हैवेन’, ‘सेक्रेड गेम्स’, ‘फैमली मैन’ आदि वेब सिरीज इस साल काफी देखी और सराही गई. नए साल में बॉलीवुड किस तरह दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच पाता है, यह देखना रोचक होगा.
इस साल के शुरुआत में आई आदित्य धर निर्देशित ‘उरी- द सर्जिकल स्ट्राइक’ बॉक्स ऑफिस पर काफी सफल रही और इस फिल्म के लिए विक्की कौशल को आयुष्मान खुराना (अंधाधुन) के साथ संयुक्त रूप से सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. आने वाले साल में आयुष्मान खुराना, विक्की कौशल और राजकुमार राव से उम्मीदें है. वहीं जोया अख्तर के निर्देशन में बनी, रणवीर सिंह और आलिया भट्ट अभिनीत ‘गली बॉय’ फिल्म में हाशिए के समाज के प्रति संवेदना और संघर्ष का यथार्थपरक चित्रण है. साथ ही अनुभव सिन्हा की ‘आर्टिकल 15’ में आयुष्मान खुराना ने अभिनय से लोगों को एक बार फिर से प्रभावित किया और अप्रत्याशित रूप से यह फिल्म लोगों को सिनेमाघरों तक लाने में कामयाब रही. यह फिल्म जाति और अस्मिता के सवालों के लिए आने वाले वर्षों में भी याद रखी जाएगी. हालांकि राजकुमार राव और कंगना रनौत अभिनीत ‘जजमेंटल है क्या’ कोई खास हलचल नहीं मचा पाई और कमजोर पटकथा ने निराश किया.
कोई भी कला समकालीन समय और समाज से कटी नहीं होती है. हिंदी सिनेमा में समकालीन स्वर, खास तौर पर राष्ट्रवादी भावनाएँ, इस साल खूब सुनाई दिया. यह प्रवृत्ति ‘उरी’ और अक्षय कुमार की ‘मिशन मंगल’, ‘केसरी’ जैसी फिल्मों में अभिव्यक्त हुई. हिंदी सिनेमा में राष्ट्रवाद एक विषय के रूप में गाहे-बगाहे चित्रित होता रहा है.
50-60 के दशक में ‘नया दौर’, ‘मदर इंडिया’, ‘लीडर’ जैसी फिल्मों से लेकर पिछले दशकों में ‘स्वदेश’, ‘लगान’, ‘चक दे इंडिया’, ‘भाग मिल्खा भाग’ जैसी फिल्मों में यह दिखाई दिया था. जवाहरलाल नेहरू के दौर का राष्ट्रवाद और नरेंद्र मोदी के दौर में जिस रूप में हम राष्ट्रवादी विमर्शों को देखते-सुनते हैं उसके स्वरूप में पर्याप्त अंतर है. साल के जाते-जाते राजनीतिक गलियारों और संसद में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) की खूब चर्चा हुई, जिसकी अनुगूँज पूरे देश में विश्वविद्यालयों के कैंपस के लेकर सड़कों पर सुनाई पड़ी.
प्रसंगवश, बांग्ला के चर्चित निर्देशक ऋत्विक घटक ने निर्वासन, विस्थापन की समस्या को अपनी फिल्मों में एक नया आयाम दिया था. विभाजन की त्रासदी और राष्ट्रीयता का सवाल घटक की फिल्मों के केंद्र में है, जिसके वे भोक्ता थे.
आज जब भूमंडलीय ग्राम में निर्वासन, विस्थापन, नागरिकता और शरणार्थियों के सवाल एक नए रूप में उपस्थित हैं, ऋत्विक घटक की फिल्में एक बार फिर से प्रासंगिक हो उठी हैं. ‘सुवर्णरेखा’ फिल्म के आरंभ में एक पात्र कहता है- यहाँ कौन नही है रिफ्यूजी? उम्मीद की जानी चाहिए कि बॉलीवुड और खास कर बांग्ला और असमिया फिल्में इन भावनात्मक और सामाजिक मुद्दों को संवेदनशीलता के साथ चित्रित करेंगी और नए साल को सार्थक सिनेमा से सुशोभित करेंगी.
(प्रभात खबर, 22 दिसंबर 2019)