समकालीन पूंजीवादी समाज
में ‘नेटवर्क’ संबंधों के मूल में है. यह भूमंडलीकरण के मूल में भी है. नेटवर्क, मसलन
इंटरनेट, के सहारे भूमंडलीकरण की भाषा और संस्कृति बाजार के माध्यम से फैलती है.
पर इस भूमंडलीकृत बाजार में अंग्रेजी का ही दबदबा रहा है. हालांकि समाजशास्त्रियों,
भूमंडलीकरण के अध्येताओं का मानना है कि भूमंडलीकरण की इस संस्कृति को स्थानीय
संस्कृतियों से प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है. स्थानीय संस्कृति और भूमंडलीय
संस्कृति के बीच आवाजाही, लेन-देन चलती रहती है, इसलिए इसे ‘ग्लोकोलाइजेशन’ भी कहा गया. सिनेमा की बात करें वैश्विक स्तर पर हॉलीवुड में बनने वाली
फिल्में ही पुरस्कार समारोह में छाई रहती हैं.
बहरहाल, प्रतिष्ठित ऑस्कर
पुरस्कार के 92 साल के इतिहास में दक्षिण
कोरियाई फिल्म ‘पैरासाइट’ पहली गैर-अंग्रेजी फिल्म है जिसे ‘सर्वश्रेष्ठ फिल्म’ का पुरस्कार मिला है. इससे पहले अब तक सिर्फ दस
गैर-अंग्रेजी फिल्में ही ऐसी थी जिसे सर्वश्रेष्ठ फिल्म की श्रेणी में नामांकित
किया गया था. पिछले साल विदेशी फिल्मों की श्रेणी में ऑस्कर पुरस्कार जितने वाली मैक्सिको के चर्चित निर्माता-निर्देशक अल्फोंसो
कुरों की ‘रोमा’ भी सर्वश्रेष्ठ फिल्म के लिए नामांकित थी, पर पुरस्कार ‘ग्रीन बुक’ को मिला. प्रतिष्ठित स्वीडिश
फिल्म निर्देशक इंगमार बर्गमैन की ‘क्राइज एंड व्हीसपर्स’, ग्रीक मूल के फ्रेंच निर्देशक कोस्ता गावरास की ‘ज़ेड’ आदि फिल्में भी नामांकित की गई थी. इन्हें विदेशी भाषा में
बनने वाली फिल्म के लिए ऑस्कर से नवाजा जाता रहा. पैरासाइट को ‘सर्वश्रेष्ठ
अंतरराष्ट्रीय फीचर फ़िल्म’ का खिताब भी
मिला है.
‘पैरासाइट’ के शुरुआती दृश्य में एक पूरा परिवार सियोल
स्थित एक स्लम के सेमी-बेसमेंट के कमरे में मोबाइल नेटवर्क की तलाश करता दिखता है.
पड़ोसी के फ्री वाई-फाई के नेटवर्क की तलाश एक रूपक है, जो फिल्म के नाम को
चरितार्थ करता है. पर जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ती है, परजीवी की कई अर्थच्छवियाँ
हमारे सामने आती है.
‘पैरासाइट’ कोरियाई समाज की स्थानीय जमीन पर रची गई है, पर
अपनी पहुँच में वैश्विक है. राजधानी सियोल के स्लम में रहने वाले किम का परिवार और
पॉश कॉलोनी में रहने वाले पार्क के परिवार के संबंधों के माध्यम से आर्थिक और
सामाजिक विषमता को कुशलता से फिल्म उजागर करती है. धनाढ्य पार्क का परिवार
खानसामा, ड्राइवर, टयूटर आदि के लिए समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों पर निर्भर
है. वहीं गरीबी और अमानवीय परिस्थितियों में रहने वाले किम के पूरे परिवार को
नौकरी की तलाश है, ताकि भरण-पोषण हो सके. छल और कौशल से किम परिवार धीरे-धीरे
पार्क परिवार में घुसपैठ कर जाता है. पार्क परिवार में उनका सामना अपने ही जैसे एक
और परिवार से होता है जो कि बेसमेंट मे ही रहता है.
फिल्म में बेरोजगारी और कर्ज का सवाल गहरे उजागर होता है. एक जगह किम का
परिवार कहता है ‘जहाँ एक सुरक्षा गार्ड
के लिए विश्वविद्यालय से पढ़े पाँच
सौ नौजवान लाइन में खड़ें मिलते हैं, वहाँ हमारे पूरे परिवार को नौकरी मिल गई.’ यह संवाद भारत में बेरोजगारी की समस्या पर भी
टिप्पणी करती हुई प्रतीत होती है.
गौरतलब है कि फिल्म के निर्देशक बोंग जून हो को सर्वश्रेष्ठ
पटकथा और सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार भी मिला है. फिल्म की पटकथा में
रोचकता, रहस्यात्मकता और ड्रामा के तत्व है जो दर्शकों को पूरे सिनेमा के दौरान
बांधे रखता है. सिनेमा के आलोचकों ने इसे ‘कॉमेडी ड्रामा’ कहा है. पर दर्शकों के लिए इस सिनेमा की दृश्य योजना और भाषा व्यंजना कई स्तरों पर
उजागर होती है. पूंजीवादी समाज में भौतिक सुख-सुविधा की आकाँक्षा और स्वप्न, उस
स्वप्न को पाने के लिए मानवीय संबंधों के बीच संघर्ष और हिंसा को संवेदनशीलता के साथ फिल्म चित्रित किया गया है.
सवाल है कि वर्ग विभेद वाले पूंजीवादी समाज में परजीवी कौन है? कवि नागार्जुन ने कलकत्ते
के ट्राम में श्रमजीवियों के पसीने से लथपथ शरीर से आने वाली बू को लेकर अपनी एक
कविता में कभी पूछा था- सच, सच बताओ, घिन तो नहीं आती है?’ इस फिल्म में पार्क परिवार का मुखिया ‘सब वे’ से सफर करने वाले लोगों के शरीर
से आने वाली एक तरह की गंध की बात करता है. पैरासाइट में निर्देशक ने ‘गंध-भेद’ को लेकर, इस ‘घिन’ को लेकर बेहतर दृश्य रचे
हैं. प्रसंगवश, वॉकिन फीनिक्स को 'जोकर' फिल्म के लिए
सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का ऑस्कर पुरस्कार मिला है. यह फिल्म भी वर्ग विभेद और
प्रतिरोध की संस्कृति के इर्द-गिर्द बुनी गई है.
बोंग जून हो की कई
अन्य फिल्में भी काफी चर्चित रही हैं. वर्ष 2003 में रिलीज हुई ‘मेमोरीज ऑफ मर्डर’ से उनकी ख्याति दूर तक
फैली. इससे पहले वर्ष 2019 में फ्रांस के कान फिल्म समारोह में पैरासाइट को प्रतिष्ठित
‘पाम द ओर’ पुरस्कार से भी नवाजा गया.
पुराने दौर के
सिनेमाप्रेमी किम कि यंग की ‘द हाउसमेड’ जैसी क्लासिक फिल्मों का जिक्र करते हैं. हालांकि कोरियाई
सिनेमा को लेकर भारत में ज्यादा उत्साह नहीं है, जबकि हाल के वर्षों में कोरियन
पॉपुलर म्यूजिक (के-पॉप) का शहरी युवाओं में चलन बढ़ा है.
पिछले महीने जब
दिल्ली के सिनेमाघरों में यह फिल्म रिलीज हुई तब एक सिनेमाघर में बमुश्किल बीस लोग
सिनेमा देख रहे थे. हालांकि पैरासाइट को सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार मिलने पर
भारतीय सिनेमा से भी उम्मीद बंधी है. कई युवा प्रयोगधर्मी फिल्मकार भारतीय भाषाओं
में पिछले दशकों में अच्छी फिल्में बना रहे हैं. पिछले साल ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अखबार ‘द गार्डियन’ के लिए फिल्म
समीक्षकों ने इस सदी की विश्व की बेहतरीन सौ फिल्मों की एक सूची बनायी थी, जिसमें भारत से अनुराग कश्यप निर्देशित ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ को भी जगह मिली थी. तथ्य यह है कि भारत में प्रति वर्ष सबसे
ज्यादा फीचर फिल्मों का निर्माण होता है. यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि आर्थिक और
तकनीक रूप से सक्षम भारतीय सिनेमा विश्व सिनेमा की ऊंचाई छूने में क्यों नाकाम है!
जनसत्ता, 20 फरवरी 2020