कोरोना वायरस की वजह से देशव्यापी लॉकडाउन के दौरान लोग घरों में सिमटे हैं.
समाचार पत्रों के वितरण-प्रकाशन, पठन-पाठन पर इसका
प्रभाव पड़ा है. ऐसे में फिर से टेलीविजन घरों के केंद्र में आ गया. रामायण,
महाभारत जैसे सिरीयलों के साथ-साथ एक बार फिर
से समाचार चैनल प्रासंगिक हो उठे है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कोरोना संकट
के बीच राष्ट्र के नाम संदेश के लिए टेलीविजन का बखूबी सहारा लिया.
पिछले दो दशकों में उदारीकरण की नीतियों के फलस्वरूप सेटेलाइट, निजी टेलीविजन समाचार चैनलों का अभूतपूर्व
प्रसार हुआ. जनसंचार, विचार-विमर्श,
छवियों के निर्माण और संसदीय चुनावों के दौरान
राजनीतिक लामबंदी में टेलीविजन समाचार चैनल एक प्रमुख माध्यम बनके उभरे हैं.
चर्चित आलोचक रेमंड विलियम्स ने ‘टेलीविजन’
नाम से लिखी अपनी किताब में टेलीविजन माध्यम को
तकनीक और विशिष्ट सांस्कृतिक रूप में परखा है. विजुअल माध्यम होने से टीवी के
दर्शकों के बीच सहभागिता का सहज बोध होता है. हालांकि खबरों, विभिन्न कार्यक्रमों के साथ विज्ञापन भी लिपटा
हुआ दर्शकों तक चला जाता है, जो इन
कार्यक्रमों के लागत और चैनलों के मुनाफा का प्रमुख जरिया है.
उदारीकरण के बाद खुली अर्थव्यस्था में मीडिया पूंजीवाद का प्रमुख उपक्रम है.
उसकी एक स्वायत्त संस्कृति भले हो पर अब वह कारपोरेट जगत का हिस्सा है. समकालीन
मीडिया की व्याख्या में इन रिश्तों की पड़ताल भी बेहद जरूरी है. निस्संदेह,
हाल के वर्षों में बड़ी पूंजी के प्रवेश से
मीडिया की सार्वजनिक दुनिया का विस्तार हुआ है, लेकिन पूंजीवाद के किसी अन्य उपक्रम की तरह ही मीडिया
उद्योग का लक्ष्य और मूल उदेश्य दर्शकों की संख्या को बढ़ाना, टीआरपी बटोरना और मुनाफा कमाना है. 21वीं सदी के दो दशक भारत में टेलीविजन समाचार
चैनलों के विस्तार के रहे, पर इसके साथ ही
इसी दशक में चैनलों की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने लगे.
प्रसंगवश, 2008-09 में दुनिया भर
में आए आर्थिक मंदी का असर भारतीय टेलीविजन उद्योग की सेहत पर पड़ा और चैनलों का
जोर दूर-दराज की सुध लेने, खोजपरक कहानियों
को ढूंढ़ने से ज्यादा टीवी स्टूडियो में होने वाले विचार-विमर्श और बहस की ओर तेजी
से बढ़ा है. एंकर और प्रोड्यूसर का ध्यान ऐसे मुद्दों पर बहस करवाना होता है जिससे
कि स्टूडियो में एक नाटकीयता का संचार हो. इनका उद्देश्य दर्शकों की सोच-विचार में
इजाफा करना नहीं होता, बल्कि उनके
चित-वृत्तियों के निम्नतम भावों को जागृत करना होता है. ऐसे में
एंकरों-प्रोड्यूसरों की तलाश उन मुद्दों की तरफ ज्यादा रहती है जिसमें सनसनी भाव
हो.
टेलीविजन न्यूज का दूसरा दशक पूरी तरह इन्हीं विमर्शों को समर्पित रहा. इन
वर्षों में समाचार चैनलों में संवादताओं की भूमिका कम हुई, ‘कास्ट कटिंग’ पर जोर रहा. कोरोना संकट के बाद फिर से आर्थिक मंदी का असर समाचार चैनलों की
सेहत पर पड़ेगा. ऐसे में सवाल है कि इस बीच जो दर्शकों में टीवी उद्योग ने अपनी पैठ
बनाई है, क्या उसे बरकरार रख
पाएगी. क्या खोई हुई विश्वसनीयता वह अर्जित कर पाएगी?
(प्रभात खबर, 10 अप्रैल 2020)
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